Thursday, July 28, 2016

अपना-अपना अभिनय

बहनजी अपनी पार्टी की सर्वेसर्वा हैं। उन्हें दखलअंदाजी बिलकुल नहीं भाती। न ही किसी कार्यकर्ता और नेता का आगे बढना सुहाता है। इसलिए बहुजन समाज पार्टी में जिसका भी कद बढता नजर आता है उसे बाहर करने में देरी नहीं की जाती। कभी-कभी तो उलटा भी हो जाता है। पार्टी की वर्षों तक सेवा करते-करते किसी जुझारू पदाधिकारी को जब असली सच समझ में आ जाता है तो वह स्वामी प्रसाद मौर्य बन बहनजी की नींद हराम कर देता है। बहनजी पर धन लेकर चुनावी टिकटें बांटने के शुरू से आरोप लगते रहे हैं। यह ऐसे आरोप हैं जिन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता। देनेवाला कभी मुंह नहीं खोलता। वैसे भी पार्टी में सक्रिय रहने के दौरान सभी देखकर भी अंधे बने रहते हैं। मनमुटाव होने के बाद ही 'मोहभंग' होता है। देखने और समझने वालों को हकीकत खुद-ब-खुद समझ में आ जाती है। बसपा के संस्थापक कांशीराम एक वोट, एक नोट के उसूल पर चलने वाले जमीनी नेता थे। उन्होंने देशभर में सायकल से यात्राएं कर पार्टी के नाम और रूतबे को बनाया और बढाया था। उनका परिवार आज भी आर्थिक बदहाली का शिकार है। बहनजी के पास महंगी से महंगी कारें हैं। रहने के लिए आलीशान कोठियां हैं। यानी अरबो-खरबों में खेलती हैं। उनके भाई-भतीजे बिना कोई उद्योग-धंधा लगाये बेहिसाब दौलत के मालिक हैं।
देश में जब भी चुनाव करीब होते हैं तो आरोप-प्रत्यारोप की आंधी बहने लगती हैं। अच्छे-अच्छे बहकने लगते हैं। कुछ नेता तो मर्यादा का दामन छोड अभद्रता की सभी सीमाएं पार कर जाते हैं। यकीनन ऐसा ही किया भाजपा के नेता दयाशंकर सिंह ने। मंच पर खडे होकर उन्होंने कहा, "माया किसी को १ करोड में टिकट देती हैं, कोई एक घण्टे बाद दो करोड देता है, तो उसे दे देती हैं। अगर तीन करोड वाला मिल गया तो टिकट उसी का। माया... से भी बदतर हो चुकी हैं।"  यह उनकी जुबान की फिसलन थी या जानबूझकर विष उगला गया इसका जवाब पाना कतई मुश्किल नहीं है। इस तरह की बदजुबानी पहली बार नहीं सुनी गयी है। देश के कुछ सांसद और साधु-साध्वियां भी अपने विरोधियों का दिल दुखाने के लिए बहुत कुछ बोलते रहते हैं और मीडिया में छाये रहते हैं। हंगामा भी बरपा होता रहता है। दयाशंकर के जहरीले बयान से बहनजी तो बहनजी, सजग देशवासी भी आहत हो उठे। गुस्साये बसपा के कार्यकर्ता सडकों पर उतर आये। उनके हाथों में दयाशंकर की पत्नी, बेटी और बहन के लिए अपशब्द लिखे बैनर थे। जिन्हें गुस्से में लहराया जा रहा था। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बेशर्मी के सभी हदें पार करते हुए नारा लगाया- "पेश करो, पेश करो, दयाशंकर की बहन बेटी को पेश करो"। घटिया किस्म के बदमाशों वाली यह ओछी भाषा को सुनने के बाद भी बहन जी चुप रहीं। उन्हें कुछ भी गलत नहीं लगा! उन्होंने फरमाया कि मेरे कार्यकर्ता मुझे देवी मानते हैं। ऐसे में वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि कोई मेरा अपमान करने की जुर्रत कर दिखाये। मेरे सजग कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों ने अपशब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया ताकि दयाशंकर के परिवार को उस पीडा की अनुभूति हो जिससे मैं गुजर रही हूं। दयाशंकर के परिवार वालों में अगर थोडी भी महिलाओं के प्रति सहानुभूति होती तो उन्हें यह गंदा बयान सुनते ही माफी मांगनी चाहिए थी। मीडिया के सामने आकर दयाशंकर की भर्त्सना करनी चाहिए थी। उन्होंने ऐसा न कर बहुत बडा गुनाह किया है। इस अपराध की सजा तो मिलनी ही चाहिए थी। बहनजी के इस कथन ने सजग देशवासियों को चौंकने और सोचने को विवश कर दिया। करे कोई और भरे कोई! यह कहां का न्याय है? लेकिन राजनेता तो ऐसे अन्यायी खेल खेलने के लिए ही जाने जाते हैं। उन्हें खुद को सच्चा और अच्छा दर्शाने की सभी कलाएं आती हैं। वे किसी भी हालत में अपने कार्यकर्ताओं को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाते। ऐसे अंधभक्त कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों और टिकट के लालची छुटभइये नेताओं की बदौलत ही राजनीतिक पार्टियां चलती हैं और सुप्रीमो के अहंकार का गुब्बारा फूला रहता है। दयाशंकर की बदजुबानी के मुद्दे ने बहनजी तथा उनके कार्यकर्ताओं को जैसे नयी ताकत बख्श दी। चुनावी मौसम जब करीब हो तो ऐसे मामले अंधेरे में दीपक का काम करते हैं। बहनजी ने मान लिया था कि भाजपा के खिलाफ जो आग भडक चुकी है वह आसानी से नहीं बुझने वाली। लेकिन दयाशंकर की पत्नी ने जैसे ही मुंह खोला तो नजारा ही बदल गया। उन्होंने भी सवालों की झडी ही लगा दी: "आखिर हमारी गलती क्या है, हमें किस गुनाह की सजा दी जा रही है? मायावती कह रही हैं कि दयाशंकर के परिवार की बेटी और पत्नी को सामने आकर दयाशंकर के बयान की निंदा करनी चाहिए थी। जब हमारा राजनीति से ही कोई लेना-देना ही नहीं है। तो ऐसे में हमारा माफी मांगने का तो सवाल ही कहां उठता है?" जिस अमर्यादित बयानबाजी को लेकर बसपा बेहद आक्रामक दिख रही थी, जब वही बर्ताव उसके लिए जंजाल बन गया तो बहनजी को भी पसीने आ गए। चारों तरफ यह सवाल उठने लगे कि क्या सिर्फ ताकतवर नारी की इज्जत, इज्जत होती है, बाकियों की आबरू कोई मायने नहीं रखती? बहनजी महिला हैं तो दयाशंकर की मां, पत्नी, बेटी, बहन कौन हैं? वे भी तो महिला ही हैं। जितनी बहनजी इज्जत और सम्मान की हकदार है उतनी ही वे भी हैं। दयाशंकर का मामला हो या बहनजी के कार्यकर्ताओं के बेलगाम होने का... दोनों ही राजनीति के पतन के जीवंत प्रमाण हैं। इस सच से अब कौन इनकार कर सकता है कि राजनीति कीचड बनकर रह गयी है जहां गाली का जवाब गाली से दिया जाने लगा है।

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