Thursday, July 14, 2016

बेटियों के पंख मत काटो

पिता ने छह वर्ष की बेटी को गिनती बताने को कहा। बेटी ने एक से १२ तक की गिनती सुनाई। इसके बाद वह गिनती बोलना भूल गई। उसकी जबान लडखडाई और वह पिता का चेहरा इस उम्मीद से ताकने लगी कि अब वे उसकी पीठ थपथपाते हुए आगे कि गिनती बताएंगे। लेकिन उनका तो पारा ही चढ गया। अपना आपा खोकर बच्ची को गुस्से से घूरने लगे जैसे उसने ऐसा कोई बहुत बडा गुनाह कर दिया हो जो माफ करने के लायक ही न हो। पिता के तमतमाये चेहरे को देखकर मासूम बेटी कांपने लगी। पिता ने लाड-प्यार से आगे की गिनती बताने की बजाय थप्पड मारा और फिर उसके मुंह में जबरन प्याज ठूंस दिया। छोटे से मुंह में बडा प्याज ठूंसे जाने के कारण बच्ची का दम घुट गया और फिर उसकी वहीं मौत हो गयी। इसके बाद पिता ने बेटी का शव कब्रिस्तान में दफनाया और ऐसे बेफिक्र हो गये जैसे कुछ हुआ ही न हो। बच्ची की मां की शिकायत पर मुंबई के इस गुस्सैल पिता को गिरफ्तार किया गया। इस पिता को आप क्या कहेंगे? दरिंदा, हैवान, शैतान और हत्यारा आदि...आदि? मेरे विचार से इस पापी के अमानवीय कृत्य ने तो इन सभी शब्दों को ही शर्मसार कर पिता के संबोधन को ही कटघरे में खडा करने का गुनाह किया है। इस गुनाहगार को कोई भी सजा मिले, कम ही होगी। इस दुनिया में एक से बढकर एक दुष्ट भरे पडे हैं। उनकी निर्ममता हतप्रभ करके रख देती है। मां-बाप के निर्मोही होने की खबरें पूरे वुजूद को हिलाकर रख देती हैं। मन में तरह-तरह के सवाल कौंधते हैं।
मध्यप्रदेश में स्थित शिवपुरी निवासी एक मां-बाप ने चार लोगों के साथ मिलकर अपनी ही बेटी को देहमंडी में ६० हजार रुपये में बेच दिया। बेटी रोती रही। गिडगिडाती रही। पर उन्हें रहम नहीं आया। वे रुपयों को अपनी जेब में डालकर ऐसे चलते बने जैसे उन्होंने बाजार में कोई सामान बेचा हो। बेटी को बेचने के बाद वे निश्चिंत हो गए। लेकिन कुछ दिन बाद किशोरी देह की मंडी से सौदागरों के चंगुल से छूटकर भागने में सफल हो गयी। लालची मां-बाप के पास जाने के बजाय उसने पुलिस की शरण में जाना बेहतर समझा। फिरोजाबाद में पुत्र की चाहत में एक पिता ने तांत्रिकों के चक्कर में आकर अपनी १२ साल की बेटी को मौत की नींद सुला दिया। ऐसी खबरें रोजमर्रा का हिस्सा बन चुकी हैं। फिर भी आस और विश्वास की किरणें अंधेरे में उजाला फैलाती रहती हैं।
छत्तीसगढ के महासमुंद में रहते हैं ट्रांसपोर्ट कारोबारी किशोर चोपडा और उनकी पत्नी पुष्पा चोपडा। दोनों को बेटों की चाहत थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उनके यहां एक के बाद एक पांच बेटियों ने जन्म लिया। घर में जब भी बेटी जन्मती, पति-पत्नी उदास और निराश हो जाते। परिवार में ऐसा मातम छा जाता जैसे किसी की मौत हो गयी हो। हताश और निराश माता-पिता आंसू बहाने लगते। लडकियों को पालने-पोसने, पढाने-लिखाने और उनके शादी-ब्याह की अथाह फिक्र उनके मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह से हावी हो जाती। घर का हर सदस्य वारिस न होने की चिन्ता में डूबा नजर आता। रिश्तेदार और आसपास के लोग भी पांच-पांच बेटियों के होने पर तानाकशी करने से बाज नहीं आते। आखिरकार चोपडा दंपति ने बेटे की आस छोडकर बेटियों के अच्छे पालन-पोषण का निर्णय लिया। उन्हें पढाया-लिखाया और उस शिखर तक पहुंचाया जहां तक लडके भी बहुत मुश्किल से पहुंच पाते हैं। इसके लिए भी उन्हें लोगों के तानें सुनने पडे। कहा गया कि लडकियां तो पराया धन होती हैं। उन पर इतना खर्च करने से क्या फायदा...। फिर भी उन्होंने परवाह नहीं की। बेटियों को बाहर पढने के लिए भेजा। दरअसल, उन्होंने बेटियों की बेटों की तरह खुलकर परवरिश दी। आज चोपडा परिवार की पांचों बेटियां अमेरिका की बडी कंपनियों में कार्यरत होकर बुलंदियों के शिखर पर हैं। चोपडा परिवार को अपनी कामयाब बेटियों के नाम से पहचाना जाता है। जो लोग बेटियों को बेटा बनाने वाले मां-पिता पर तानों की बौछार करते थे, आज तारीफों की बरसात करते नहीं थकते। सोचिए अगर चोपडा दंपत्ति ने बेटियों को नजअंदाज करने की भूल की होती तो क्या उनके नाम की जयजयकार हो पाती? यकीनन नहीं। उन्हें भी गैरजिम्मेदार माता-पिताओं की तरह दुत्कारते हुए विस्मृति के गर्त के हवाले कर दिया जाता। यह भी सच है कि हमारे समाज में आज भी ऐसे लोग भरे पडे हैं जो लडकियों को परम्परा की बेडियों में जकड कर रखना चाहते हैं। आज भी हमारे समाज में अधिकांश बेटियों को अपनी मनचाही राह पर अकेले डर-डर कर चलना पडता है। अपनों के अविश्वास और संशय के दंशों को झेलना पडता है। चोपडा परिवार ने अपनी बेटियों पर भरोसा किया। उनके मन की बात को जाना-समझा। हर मोर्चे पर उनका साथ दिया तो बेटियों ने भी मेहनत और लगन के बलबूते पर अभूतपूर्व कामयाबी हासिल कर दिखायी। यह भी अक्सर देखने में आता है कि सगे-संबंधी भी लडकियों को बार-बार लडकी होने का अहसास कराते हुए उनके मनोबल को तोडने का गुनाह करने से बाज नहीं आते।
जबकि बेटियां बेटों से किसी भी मामले में कमतर नहीं होतीं। इस हकीकत पर देश की बेटियां लगातार मुहर लगाती चली आ रही हैं। पिछले दिनों कानपुर से लगे एक गांव की बेटी ने जान की बाजी लगाकर अपने पिता की जान बचायी। पिता हृदय नारायण घर के बाहर पुराने कुएं के पास कुछ जरूरी कागजात सुखा रहे थे। तभी हवा में कुछ कागजात उडकर कुएं में गिर गए। वे कागजात निकालने के लिए रस्सी के सहारे कुएं में उतर गए। कुआं काफी गहरा था। आक्सीजन की कमी के कारण वह बेहोश हो गए। बेटी ने मदद के लिए आसपास निगाहें दौडायीं। किसी ने भी घुटन भरे कुएं में उतरने की हिम्मत नहीं दिखायी। २२ वर्षीय बेटी ने खुद को रस्सी से बांधा और गहरे कुएं में उतर गयी। उसने भी जानलेवा घुटन महसूस की, लेकिन अपनी जान की परवाह न करते हुए बेटी ने बेहोश पडे पिता को कुएं से बाहर निकालकर ही दम लिया। राधा उर्फ रक्षा जब पिता को रस्से से बांधकर कुएं से बाहर खींच कर बाहर लायी तो वहां तमाशबीन बनकर खडे युवकों के चेहरे का रंग उड गया और शर्मिंदगी के मारे उनका वहां खडा रहना मुश्किल हो गया।
छत्तीसगढ के नक्सली समस्या से ग्रस्त दंतेवाडा जिले के नकुलनार गांव की अंजली सिंह गौतम की अभूतपूर्व वीरता की कहानी को पांचवीं की किताब में पढाया जा रहा है, ताकि छात्र-छात्राएं उससे प्रेरणा ले सकें। ७ जुलाई २०१० की आधी रात १२ बजे के आसपास अंजली के घर पर ५०० नक्सलियों ने उसके पिता की हत्या के इरादे से धावा बोल दिया। नक्सलियों की बेतहाशा गोलीबारी में उसके मामा और घर के एक कर्मचारी की मौत हो गई। पिता किसी तरह से बच गये। अंजली के छोटे भाई के पैर में गोली जा लगी और वह दर्द के मारे कराहने लगा। घायल भाई को नक्सलियों से बचाने के लिए अंजली ने उसे अपने कंधे पर लादा और सरपट दौड पडी। नक्सली लगातार चेतावनी देते रहे कि वह फौरन रूक जाए वर्ना गोली मारकर उसका खात्मा कर दिया जाएगा। नक्सली उसके पिता का पता भी पूछ रहे थे, लेकिन अंजली बस भागती ही चली गयी। उस पर लगातार गोलियों की बरसात होती रही, लेकिन किस्मत से उसे एक भी गोली नहीं छू पायी। उसने अपने घायल भाई को कंधे पर लादे-लादे अपने दादा के घर में सुरक्षित पहुंच कर ही दम लिया। गांववासी उसकी वीरता के कायल हो गये और अब तो उसकी कहानी को पूरा देश पढ रहा है। अंजली को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। अंजली तब मात्र १४ वर्ष की ही थी।

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