Thursday, July 21, 2016

इन्हें कब होश आयेगा?

कांग्रेस देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी है। उसने कई वर्षों तक देश और प्रदेशों की सत्ता का सुख भोगा है। लेकिन पराजय पर पराजय ने उसके जोश को एकदम ठंडा कर दिया है। इस पार्टी के कर्ताधर्ताओं की सोचने-समझने की ताकत पर ग्रहण लगता चला जा रहा है। अपने पैरों पर चलने का साहस खो चुकी पार्टी को बैसाखियों की तलाश में दिमाग खपाना पड रहा है। फिर भी कोई बैसाखी उसके काम नहीं आ रही है। राहुल गांधी कभी शोर मचाते थे कि कांग्रेस में युवाओं की तूती बोलने का समय आ गया है। राहुल फेल क्या हुए कि कांग्रेस युवा नेताओं को हाशिए में डालने के लिए मजबूर हो गयी! अगर ऐसा नहीं होता तो दिल्ली में करारी हार झेल चुकी ७४ साल की शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित कर कांग्रेस को अपनी खिल्ली नहीं उडवानी पडती। मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी घोषित होने के बाद शीला तो आकाश पर उडने लगीं हैं। उन्हें गरूर है कि वे तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। यूपी फतह करना तो उनके बायें हाथ का खेल है।
कपूरथला में जन्मी और दिल्ली में पली-बढी शीला दीक्षित रिश्ते जोडने में माहिर हैं। जब दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड रही थीं तब उन्होंने मतदाताओं को लुभाने के लिए यह तीर छोडा था कि उनकी देश की राजधानी में जान बसती है। अब कह रही हैं कि मैं तो उत्तर प्रदेश की लाडली बहू हूं। इस देश में बहू को कभी निराश नहीं किया जाता। वैसे रिश्ते जोडकर वोट बटोरने का नेताओं का यह जगजाहिर तरीका है। शीला दीक्षित, इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री रहे स्व. उमाशंकर दीक्षित की बहू हैं। उन्हें लगता है कि इसका उन्हें भरपूर फायदा मिलेगा। इंदिरा गांधी के कहने पर राजनीति में पदापर्ण करने वाली यूपी की यह बहू कन्नोज से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद तीन साल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहीं। फिर बाद में धीरे-धीरे उन्हें दिल्ली ऐसे भायी कि यूपी से दूर होती चली गयीं। उम्रदराज शीला को उत्तर प्रदेश में अपना चेहरा बनाकर कांग्रेस ने यह संदेश तो दे ही दिया है कि उसके आंगन में युवा नेताओं के लिए कोई स्थान नहीं है। यहां तो उन्हीं को सत्ता का सुख हासिल हो सकता है जिन्हें मतदाताओं को जाति-धर्म और रिश्ते-नातों की भूल-भुलैया में भटकाने की कला का ज्ञान हो। उत्तर प्रदेश में करीब १३ फीसदी ब्राह्मण वोटर हैं। कांग्रेस को लगता है कि शीला के दम पर वह ब्राह्मणों से काफी हद तक जुडने और उनके वोट पाने में सफल हो जाएगी। मुसलमान वोटर भी कांग्रेस के निशाने पर हैं। मुसलमान और ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए ब्राह्मण शीला दीक्षित को सामने खडा करने वाली कांग्रेस इस सच को भूल गयी है कि आज की तारीख में उत्तर प्रदेश में उस युवा आबादी का वर्चस्व है जो धर्म और जात-पात की भावनाओं में बहकर वोट नहीं डालती। आज देश और हर प्रदेश के युवा जागृत हो गये हैं। उन्हें राजनीतिक दलों का चुनावी खेल भटका नहीं सकता। उन्हें जात-पात और अपने-पराये के रंग में रंग पाना आसान नहीं। दरअसल, भारतवर्ष के अधिकांश प्रगतिशील युवाओं की यही सोच है कि हम सभी भारतीय हैं। ऐसे में हमें अलग-अलग हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई का डंका पीटने की क्या जरूरत है! फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने बहुत प्रासंगिक सवाल उठाया है कि यदि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो यहां हर फार्म में धर्म और जाति का कॉलम क्यों है? उत्तर प्रदेश में चुनाव अगले वर्ष होने हैं। भाजपा और बसपा की तरह कांग्रेस को भी लग रहा है कि युवा अखिलेश सिंह यादव मतदाताओं की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे हैं इसलिए उसकी किस्मत का ताला खुल सकता है। इसलिए कांग्रेस ने तो शीला दीक्षित को घर-घर तक प्रचारित करने के लिए यह नारा उछालने की ठानी है, 'मेरा आखिरी सपना, उत्तर प्रदेश में दिल्ली जैसा विकास करना।' उधर भाजपा, सपा और बसपा वाले शीला के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए टैंकर, मीटर व कॉमनवेल्थ स्ट्रीट घोटाले सहित अन्य विभिन्न मामलों में लगे संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों को उछालकर कांग्रेस पर हमलों की बरसात करने की तैयारी में हैं।
दिल्ली की सत्ता से हाथ धोने के बाद शीला केरल की राज्यपाल बनायी गयीं, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते वे इस सम्मानजनक पद पर ज्यादा दिनों तक काबिज नहीं रह पायीं। उन्हें वापस दिल्ली लौटना पडा। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विधानसभा के चुनावी मौसम में चीख-चीखकर कहा था कि आम आदमी पार्टी के सत्ता में आते ही शीला को उनके कर्मों की सजा दिलाते हुए जेल में ठूंस दिया जायेगा। केजरीवाल भी पेशेवर और चालाक नेताओं की तरह अपने चुनावी वायदे को भूल गए। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में १९८९ से सत्ता से बाहर है। नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे। आज की तारीख में कांग्रेस सपा, बसपा और भाजपा के बाद चौथे नंबर की पार्टी है। सोनिया गांधी एंड कंपनी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद और राज बब्बर को भी यूपी में इसलिए आगे किया है ताकि मुस्लिम वोटरों को लुभाया जा सके। फिल्मी कलाकार के तौर पर नाम कमाने वाले राज बब्बर पहले समाजवादी पार्टी में थे। वे खुद को राम मनोहर लोहिया का अनुयायी बताते थे। मुलायम सिंह यादव कितने सच्चे समाजवादी हैं इसकी खबर तो राज को भी थी, लेकिन राजनीति के आकाश में चमकने के लिए उन्होंने नेताजी की चाकरी करने में परहेज नहीं किया। नेताजी ने 'समाजवाद'  के नाम पर 'परिवारवाद'  को किस तरह बढावा दिया और अरबो-खरबों की धन-सम्पति जुटायी उससे भी  बेखबर नहीं थे बब्बर। नेताजी के खासमखास अमर सिंह से मतभेद होने के बाद अभिनेता ने समाजवादी पार्टी से नाता तोडकर उस कांग्रेस का दामन थाम लिया जिसे दिन-रात कोसा करते थे। आज वे कांग्रेसियों को भले ही पसंद हों, लेकिन उन्हें जननेता तो कतई नहीं कहा जा सकता। शीला, आजाद और बब्बर में कांग्रेस को जितवाने की क्षमता तो कहीं भी नजर नहीं आती।

No comments:

Post a Comment