Thursday, February 9, 2017

जुमलेबाजों का तमाशा

देश का ऐसा कौन-सा प्रदेश है जहां शराब और अन्य नशे के सामान नहीं मिलते। शासन और प्रशासन को भी पूरी खबर रहती है, लेकिन अनदेखी का दस्तूर निभाया जाता है। देश के जिन प्रदेशों में शराब बंदी है वहां पर भी शराब आसानी से उपलब्ध हो जाती है। गुजरात इसका जीता-जागता प्रमाण है। इतिहास गवाह है कि जिन प्रदेशों में नशाबंदी के प्रयोग किये गए वहां पर सफलता नहीं मिल पायी। पूरी तरह से सफलता मिल पाना मुमकिन भी नहीं है। शराब के बारे में तो यह बात दावे के साथ की जा सकती है। कौन नहीं जानता कि नशा पंजाब की जवानी को दीमक की तरह खा रहा है। गांवों से लेकर शहरों के डिस्कोथेक और क्लबों तक हर जगह नशीले पदार्थ उपलब्ध हैं। पुलिस ने बीते कुछ वर्षों में अरबों रुपयों की ड्रग पकडी। कई गिरोहों का पर्दाफाश किया। आजकल चुनाव के समय सभी विपक्षी पार्टियां नशे के मुद्दे को भुनाने में लग जाती हैं। सच यह भी कि जब उनकी सत्ता आती है, तब भी नशे का कारोबार सतत चलता रहता है। जितनी जांचें होती हैं उनमें से अधिकांश में कहीं न कहीं सत्ताधारी नेताओं की भागीदारी सामने आती है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं। पंजाब में हुए विधानसभा चुनावों में नशे का मुद्दा छाया रहा। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हो गया कि एक राज्य जो कभी गेहूं का कटोरा माना जाता था, नशा करने वालो का राज्य बन गया? दूध और लस्सी पीने वाले शराब के शौकीन हो गए? जानकार बताते हैं कि पंजाब में आतंकवाद के ठंडे पडने के बाद अचल सम्पत्तियों की कीमतों में भारी उछाल आया। अनेक लोग जमीनें बेचकर रातों-रात लखपति-करोडपति बन गए। जमीन बेचकर अमीर बने खेतों के मालिकों ने बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों से मजदूर बुलाने शुरू कर दिए। उनसे काम लिया जाने लगा। युवाओं के पास कोई काम-धाम नहीं रहा। कहावत भी है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। युवा नशे की ओर आकर्षित होने लगे। धीरे-धीरे हालात कुछ ऐसे बने कि शराब तो शराब, अफीम और हेरोइन भी युवाओं की साथी बनती चलती गई। एक सच यह भी है आतंकवाद के दौरान आतंकवादियों की वजह से भी पंजाब में नशाखोरी बढी। युवाओं में असमंजस की स्थिति बन गयी थी और आतंकवादी गिरोह हथियार खरीदने के लिए नशे के सामानों को बाजार में फैलाकर धन जुटाने लगे थे। उसी दौर में पडोसी देश पाकिस्तान से इफरात ड्रग्स आने का सिलसिला शुरू हो गया। पंजाब के एक पत्रकार ने कुछ वर्ष पूर्व इस लेखक को बताया था कि पंजाब के कई गांव नशे की भेंट चढ चुके हैं। उन्हीं गांवों में से है एक गांव मकबूलपूरा जो अमृतसर के निकट स्थित है। इस गांव को विधवाओं और अनाथों के गांव के रूप में पहचाना जाता है। यहा पर लगभग हर घर में से किसी न किसी परिवार के सदस्य को मादक पदार्थों की लत के कारण अपनी जान गंवानी पडी। इस गांव में १९९० में नशीले पदार्थों का चलन शुरु हुआ था और सन २००० तक तो ऐसे हालात बन गये कि शराब, सिंथेथिक दवाओं, अफीम इंजेक्शन, चरस, गांजा आदि नशों ने गांव वालों को अपना गुलाम बनाकर रख दिया। चौंकाने वाली सच्चाई यह भी थी कि स्कूली बच्चे भी नशेडी बन गए थे। हालांकि अब हालातों में काफी सुधार आता दिखायी दे रहा है। पंजाब में नशे की समस्या को काफी करीब से देखने वाले एक डॉक्टर बताते हैं कि धनलोलुपों को जैसे ही पता चला कि नशे के धंधे में बहुत बडा मुनाफा है तो वे विभिन्न नशीले पदार्थों को गांव-गांव पहुंचाने लगे। १९९१ में जब उन्होंने मनोरोग चिकित्सालय बनाया तब हर सप्ताह दो-चार नशे के मामलों से रूबरू होते थे, लेकिन कालांतर में इनकी संख्या कई गुणा बढती चली गयी। जब नशे के सौदागरों ने देखा कि ड्रग्स युवाओं की कमजोरी बन चुकी है तो उन्हें और नशे के गर्त में धकेलने के लिए एक नया फंडा अपनाया। जो स्मैक पहले प्रति ग्राम ४५० रुपये में बेची जाती थी, वही स्मैक २५० रुपये प्रति ग्राम के रेट पर बेची जाने लगी। आज पंजाब में कुछ ऐसे हालात बन चुके हैं कि जो नशेडी महंगी ड्रग्स नहीं खरीद सकते उनके लिए कई ऐसी दर्द निवारक दवाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं जो भरपूर नशा देती हैं। नशे की लत ने पंजाब के कई हंसते-खेलते परिवारों को बरबाद करके रख दिया है। नशे के चक्कर में बर्बाद हुए कई लोगों को भीख का कटोरा थामना पडा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि पंजाब के शासक और राजनेता इस चिंताजनक हकीकत से वाकिफ न रहे हों। यकीनन उन्हें हालात की पूरी खबर थी, लेकिन वे जानबूझकर चुप्पी साधे रहे। इस बार के पंजाब विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने मतदाताओं में शराब बांटने के लिए एक नया हथकंडा अपनाया। वोटरों को टोकन दिए गये जिनसे उन्होंने शराब की दुकानों से जमकर शराब हासिल की। कूपन या टोकन के माध्यम से शराब बंटने के खेल को देखकर चुनाव आयोग भी दंग रह गया! पंजाब के विभिन्न शहरों में भारी मात्रा में शराब की बरामदगी के बाद चुनाव आयोग को शराब के उत्पादन और बिक्री पर रोक लगाने के आदेश देने पडे। इसी तरह से गोवा के विधानसभा चुनाव में कसीनो और ड्रग्स बडे सियासी मुद्दे बने रहे। गोवा एक ऐसा प्रदेश है जहां पर देश और विदेश से लाखों सैलानी पहुंचते हैं। शराब, बीयर और अन्य नशों के साथ-साथ कसीनो का आकर्षण भी उन्हें गोवा खींच लाता है। कसीनो यानी जुआघर भारत में आमतौर पर प्रतिबंधित है। लेकिन गोवा, दमन एवं दीव और सिक्किम में राज्य सरकारों की स्वीकृति से वर्षों से कसीनो चल रहे हैं। बीती सदी के अंतिम दशक में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गोवा में कसीनो की अनुमति पर्यटन को बढावा देने के लिए दी थी। वर्तमान में गोवा में डेढ दर्जन से ज्यादा कसीनो हैं। गोवा में कसीनो का व्यवसाय १२०० करोड रुपये सालाना का है। इसमें करीब दस हजार लोगों को रोजगार मिला हुआ है और विभिन्न करों के रूप में कारीब २०० करोड रुपये हर साल सरकार को प्राप्त होते हैं, जो खनन और पर्यटन के बाद सरकार की आय का सबसे बडा जरिया है। देशी-विदेशी पर्यटकों की बडी संख्या तो गोवा में सिर्फ कसीनो का आनंद उठाने और दांव लगाने के लिए ही आती है। गोवा में मटका (एक तरह का जुआ-सट्टा) भी युवाओं की बरबादी का कारण बन चुका है। इसे तो कसीनो से भी ज्यादा खतरनाक माना जाता है। कसीनो में तो ज्यादातर रईस ही पहुंचते हैं, लेकिन मटका के चक्कर में तो गोवा के बहुतेरे युवा बर्बाद हो रहे हैं। इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कसीनो और नशे के कारोबार के खात्मे का ढोल पीटकर भाजपा को घेरने की भरपूर कोशिश की। भाजपा जब सत्ता में नहीं थी, तब उसने भी गोवा को हर तरह से सुधारने के वादे किये थे। इस चुनावी जुमलेबाजी का कभी अंत होने वाला नहीं है।

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