Thursday, April 27, 2017

वीआईपी कल्चर की चोट

सुखदायी खबर है। आपने भी पढी और सुनी होगी। बहुत अच्छा भी लगा होगा। अब १ मई से सडकों पर लालबत्ती वाली गाडियां नजर नहीं आएंगी। सत्ताधीशों, मंत्रियों, राजनेताओं और नौकरशाहों आदि के रूतबे और अहंकार की पहचान बन चुकी लालबत्ती की एकाएक ऐसे रवानगी हो जाएगी इसकी तो कल्पना ही नहीं की गई थी। इस लालबत्ती को पाने के लिए देशभर के वीआईपी और वीवीआईपी लालायित रहते थे। इसकी विदायी का सबसे ज्यादा झटका भी इसी जमात को लगा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वीआईपी कल्चर की देन ही है यह लालबत्ती। अपने यहां तो लालबत्ती धौंस जमाने का माध्यम भी मानी जाती रही है। देश और प्रदेशों में सरकार बदलने पर लालबत्ती पाने की होड मच जाती थी। असमाजिक तत्व और छुटभइया किस्म के नेता भी इसे पाने में कामयाब हो जाते थे। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर ही यह ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है। अंग्रेजों ने अपनी अलग पहचान दर्शाने के लिए लालबत्ती की परम्परा शुरू की थी। देश की आजादी के बाद भी इसे बडी शान के साथ अपनाये रखा गया। देश पर सबसे अधिक समय तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस के नेताओं के मन में तो इससे मुक्ति पाने का कभी विचार ही नहीं आया। लालबत्ती को हटाने की खबर के आते ही भाजपा शासित प्रदेशों में तो लालबत्ती को हटाने की प्रभावी शुरुआत भी हो गई है। केंद्र और कई राज्यों के मंत्रियों ने अपने हाथों से लालबत्ती उतार दी है। गैर भाजपा शासित राज्यों के कुछ मंत्रियों और विधायकों ने इस नियम के खिलाफ आवाज उठायी है।
यह भी सच है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी गाडी में कभी लालबत्ती नहीं लगाई। लालू-राबडी भी बिना लालबत्ती की कार में चलना पसंद करते हैं। कुछ नये-नवेले विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को ही लालबत्ती ज्यादा लुभाती रही है। उन्हें लालबत्ती लगी गाडी में बैठने पर वीआईपी होने का एहसास भी होता है और गरूर भी। जब कर्पुरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे तब उनकी कार में भी लालबत्ती नहीं लगती थी। उनके पास एम्बेसेडर कार हुआ करती थी जिसमें सात-आठ लोग बैठ जाते थे। उनसे जो लोग मिलने आते थे वे उससे बात करते और फिर पूछते कहां जाना है? वे अपनी कार में सबको बिठा लेते। जिसको जहां जाना होता उसे वहीं उतारते हुए बढ जाते। आज के दौर में ऐसे मुख्यमंत्री हैं ही कहां जिनसे लोग आसानी से मिल सकें। मंत्रियों के बडे काफिले की वजह से भी जनता को उनसे मिलने में बेहद परेशानी होती है। वीआईपी होने की सोच के साथ जीने वाले हमेशा भीड से घिरे रहते हैं। यह भीड उन चापलूसों की होती हैं जो उनको जमीन पर पैर नहीं रखने देती। काबिलेगौर है कि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में ही यह निर्णय ले लिया था कि उनका कोई मंत्री अपनी गा‹डी पर लालबत्ती नहीं लगाएगा। कैप्टन एक अनुभवी राजनेता हैं। उन्हें दूसरी बार पंजाब का मुख्यमंत्री बनने का सुअवसर मिला है। पटियाला राजघराने की दसवीं पीढी के इस शख्स को राजसी ठाठबाट के साथ जीने की आदत रही है। राजशाही से ताल्लुक रखने के बावजूद जनता का दिल जीतने की कला में भी कैप्टन पारंगत हैं। इसी अच्छाई के चलते ही उन्हें जनता चुनती रही है। उन्होंने भी इस सच को जान लिया है कि अब वो जमाना नहीं रहा जब राजा-महाराजा अहंकार में डूबे रहकर अपनी मनमानी करते थे।
लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। आम जनता ऐसे शासकों को कतई पसंद नहीं करती जो जबरन वीआईपी कल्चर को ब‹ढावा देते हैं। इतिहास गवाह है कि देश और प्रदेश में जो पार्टी सत्ता पर काबिज होती है उसके विधायकों, सांसदों की तो चांदी हो जाती है। उन्हें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि चलाने के नाम पर करोडों रुपये की जमीनें भेंट में मिल जाती हैं। कोई भी बंदा विधायक, सांसद बनने के बाद गरीब नहीं रहता। एक ही झटके में आने वाली सात पीढ़ियों का इंतजाम हो जाता है। अब वक्त आ गया है कि खैरातें बांटने और सुविधाएं देने पर भी रोक लगनी चाहिए। अपने देश में तरह-तरह के वीआईपी भरे पडे हैं जो अपने संबंधों का फायदा उठाते हुए देश की आम जनता के खून-पसीने की कमाई पर डाका डालते रहते हैं। देश में बहुतेरे वीआईपी बाबाओ, संतों, प्रवचनकारों के मंचों पर राजनेता और सत्ताधीश अपनी हाजिरी लगाकर गर्वित होते हैं और उन्हें आश्रमों के नाम पर अरबों-खरबों की जमीनें उपहार स्वरूप देकर यह सोचते हैं कि इससे उनके लाखों अनुयायियों और भक्तों पर अच्छा प्रभाव पडेगा। वे उनकी पार्टी के मुरीद हो जाएंगे। जाने-माने अध्यात्मिक गुरु और आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्रीश्री रविशंकर की गिनती भी देश की अति महत्वपूर्ण शख्सियतों में की जाती है। सरकारें उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं। २०१६ के मार्च महीने में 'आर्ट ऑफ लिविंग' ने दिल्ली में यमुना किनारे विश्व सांस्कृतिक महोत्सव मनाया था। शासन और प्रशासन उनपर मेहरबान था इसलिए उन्हें यह सुविधा मिली थी। उनके इस कार्यक्रम में लाखों लोग शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई केंद्रीय मंत्री और नौकरशाहों ने कार्यक्रम की शोभा ब‹ढायी थी। इस महाआयोजन से पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुंचाया गया था। यमुना नदी के पश्चिम भाग का करीब ३०० एकड और नदी के पूर्वी भाग का १२० एकड क्षेत्र तहस-नहस होने के कारण करोडों रुपये का नुकसान हुआ था। पेड-पौधों की उखाडबाजी और खोदा-खादी में जमीन की उपजाऊ क्षमता लगभग खत्म हो गई। एक आकलन के अनुसार इस नुकसान की भरपाई करने में सरकार के ४२ करोड रुपये खर्च होंगे और इसमें १० वर्ष का समय लगेगा। श्रीश्री को इतनी बडी बर्बादी से कोई फर्क नहीं पडा। उनका तो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर बयान आया कि अगर पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचा है तो इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है। न जाने कितने वीआईपी इसी तरह से सरकारी सम्पत्ति को लूटने के साथ-साथ उसकी बर्बादी करते रहते हैं। सरकार फिर भी उनपर मेहरबान रहती है।

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