Thursday, July 13, 2017

क्या यह ईश्वर की मर्जी है?

विदेशी विद्वान, पर्यटक समरसेट मॉम ने अपने संस्मरणों की किताब में लिखा है- "जब मैं भारत छोड रहा था, तो लोगों ने मुझसे पूछा कि भारत में मुझे सबसे अधिक किस बात ने प्रभावित किया। मुझे प्रभावित करने वाली चीजों में न ताजमहल था, न बनारस का घाट। न मदुरे के मंदिर और न ही श्रावणकोट के पहाड। ऐसा नहीं कि मैं इनसे प्रभावित नहीं हुआ था, बल्कि सच कहूं तो इनका प्रभाव भी मुझपर बहुत अधिक पडा था, लेकिन जिसका सबसे अधिक प्रभाव पडा था, वह था- भारत का किसान, दुबला-पतला। जिसके पास अपना तन ढकने के लिए मोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। जो सुबह से शाम तक चटकती धूप में धरती को जोतता है, दोपहर में पसीने से नहाता है और शाम को डूबते सूरज की किरणों के साथ परिश्रम से थककर सो जाता है। ऐसा वह आज से नहीं, बल्कि उस समय से कर रहा है जबकि आर्यों ने इस धरती पर कदम रखा था। सिर्फ एक आशा उसके मन में काम करती है कि वह इस परिश्रम के बल पर अपने को जिन्दा रखने की एक छोटी-सी जरूरत, पेट भरने की, पूरी करता रह सकता है।"
भारतीय किसान की इस तस्वीर को समरसेट मॉम ने कई वर्ष पूर्व पेश किया था। होना तो यह चाहिए था कि इस तस्वीर में काफी सकारात्मक बदलाव होता। भारत का किसान खुशहाली के झूले में झूल रहा होता। लेकिन यहां तो हर वर्ष लगभग पचास लाख किसान खेती करना छोड रहे हैं। गांव के गांव खाली हो रहे हैं और खस्ताहाल किसानों की भीड रोजी-रोटी की खातिर शहरों की भीड बनने को विवश है। बेबस किसान और उनके परिवार अंतहीन तकलीफों और मजबूरी के शिकंजे में कराह रहे हैं। आर्थिक तंगी के कारण बैल की जगह बेटियों को खेतों में हल चलाना पड रहा है। कई लोग इस सच को मानने को आसानी से तैयार नहीं होंगे। लेकिन यह सच है कि मध्यप्रदेश में स्थित बसंतपुर पांगरी गांव में रहने वाले किसान सरदार काहला के पास खेतों की जुताई के लिए बैल खरीदने और उनकी देखभाल के लिए पैसे नहीं हैं। आर्थिक तंगी के चलते अपनी पढाई छोड चुकी किसान की दोनों बेटियां बैल की जगह हल चलाती हैं। एक बेटी १४ साल की है और दूसरी ११ साल की। जैसे ही यह खबर अखबारों में छपी तो प्रशासन के कान खडे हो गए और मानव अधिकार आयोग भी जाग उठा। कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट पेश करने के आदेश दे दिये गए। अपने देश में इस तरह की रस्म अदायगी सतत चलती रहती है। मूल समस्या का समाधान नदारद रहता है। नारंगी नगर नागपुर के निकट स्थित मालेगांव ग्राम में एक किसान-पुत्र स्कूल के बस्ते के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया। आठवीं कक्षा में पढने वाला गरीब किसान का यह बेटा कई दिनों से स्कूल की किताबों, कापियों को सुरक्षित रखने के लिए बस्ते की मांग करता चला आ रहा था। बस्ता नहीं मिलने पर आखिरकार उसने छत पर जाकर फांसी लगा ली। वह बहुत दुखी था और यह बात उसके मन में घर कर गई थी कि गरीब पिता उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम नहीं हैं। यह बालक अपनी तीन बहनों का इकलौता भाई और काफी होनहार खिलाडी था। जब वह फांसी के फंदे पर झूला तब उसके पिता खेत पर काम के लिए निकल चुके थे।
बेटी की शादी के एक दिन पहले बांदा जिले के गांधीनगर में रहने वाले किसान निखिल रस्तोगी ने छत से कूद कर जान दे दी। धन के घोर अभाव और काफी कर्ज में डूबे होने के चलते की गई इस आत्महत्या ने गांववासियों को हतप्रभ कर दिया। बेटी की तो सांसें ही अटक गर्इं। निखिल का दाह संस्कार करने के बाद गम में डूबे परिवार के सामने शादी के इंतजाम की समस्या ख‹डी हो गई। उनके पास तो एक फूटी कौडी भी नहीं थी। ऐसे वक्त में मोहल्ले के लोगों और पडोसियों ने अपना धर्म निभाया और बिटिया की शादी नियत तिथि पर करने की ठानी। आपस में मिलकर चंदे से रकम जुटायी गई। दूल्हा भी बिना किसी तामझाम के शादी करने को तैयार हो गया। मैरिज हॉल के मालिकों ने भी ने किराया नहीं लिया। खुदकुशी कर चुके किसान की बेटी की लोगों के सहयोग से सम्पन्न हुई इस शादी ने इंसानियत की लाज रख ली। बीते हफ्ते राजस्थान के कोटा में बनवारी लाल नामक किसान ने आत्महत्या कर ली। यह किसान लहसुन के सही भाव नहीं मिलने से परेशान था। गौरतलब है कि राजस्थान के कोटा सम्भाग में इस बार लहसुन की बम्पर फसल हुई है, लेकिन किसानों को इसका पूरा भाव नहीं मिल रहा है। इसी के चलते पहले भी चार किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आ चुके हैं। किसान बनवारी लाल ने आठ बीघा का खेत किराए पर ले रखा था। सिर पर कुछ कर्ज भी था। उसे उम्मीद थी कि लहसुन के अच्छे भाव मिलेंगे और वह कर्ज से मुक्त हो जाएगा, लेकिन यहां तो उम्मीदों पर ही पानी फिर गया। हताश और निराश होकर आखिरकार वह फांसी के फंदे पर झूल गया। उसकी जेब से एक पर्ची मिली जिसमें माता-पिता को सम्बोधित करते हुए उसने लिखा था कि मेरी गलती को ईश्वर की मर्जी मानना। हमारे देश में हर वर्ष हजारों किसान फसल के चौपट हो जाने, फसल का सही भाव नहीं मिलने और कर्ज के बोझ से थक-हार जाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं। राजनीतिक दल किसानों की दुर्दशा पर सियासी रोटियां सेंकते हैं और सरकारें दीर्घकालीन समाधान तलाशने की बजाय कर्ज माफी की घोषणा कर अपने वोटों को पक्का करने का भ्रम पाल लेती हैं। ऐसा पिछले कई वर्षों से होता चला आ रहा है। किसान वहीं का वहीं है। हर वर्ष कृषि लागत बढती चली जा रही है। हमारी कृषि व्यवस्था में ऐसी आधारभूत खामियां है जिनसे किसान संकटों से उबर ही नहीं पा रहा है। कृषि विशेषज्ञों का मत है कि सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिनसे किसान की खेती मुनाफे का सौदा बन सके। कर्ज माफी किसानों के कल्याण का स्थायी समाधान नहीं है। देश की आजादी के बाद शासकों ने किसानों की दशा सुधारने के कोई दूरगामी प्रयास नहीं किए। खेती सतत घाटे का सौदा बनती चली गई। देश की दो-तिहाई आबादी जिस पेशे से जुडी थी उसे नजरअंदाज कर दिया गया। अगर कृषि को फायदे का सौदा बना दिया गया होता तो गरीब किसानों को इतने बुरे दिन न देखने पडते। आत्महत्याओं की नौबत ही नहीं आती।

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