Thursday, October 12, 2017

बदलाव के बीज

बाल मजदूरों, भीख मांगने और नशा करने वाले बच्चों पर लोगों का कम ही ध्यान जाता है। नेता उनकी कमजोरी, विवशता और मुश्किलों को अपने भाषणों में ही ज़ाहिर कर संतुष्ट हो जाते हैं। इस दुनिया में शायद ही ऐसे माता-पिता होंगे जो अपने बच्चों को पढा-लिखाकर बडा आदमी बनाने की ख्वाहिश नहीं रखते होंगे। गरीब से गरीब मां-बाप अपने बच्चों के स्वर्णिम भविष्य का सपना देखते हैं, लेकिन जिनके पास न रहने को घर होता है और न ही दो वक्त की रोटी का जुगाड, उनकी सभी चाहतें धरी की धरी रह जाती हैं। उनके बच्चों का बचपन उन्हीं के सामने दम तोड देता है और वे कुछ नहीं कर पाते। मेरे देश में ऐसे बेबस लोगों की संख्या करोडों में है। मेरे ही देश में ऐसे कुछ धर्मात्मा हैं जो सडक पर भीख मांगते और बाल मजदूरी करते बच्चों को देखकर विचलित हो जाते हैं और उनकी आंखें भीग जाती हैं।
मैंने कल ही एक खबर पढी : पंजाब में स्थित पटियाला के थापर इंजिनियरिंग के तीन छात्र अनोखे मिशन पर हैं। वे बाल मजदूरी कर रहे या भीख मांग रहे मासूम बच्चों को मुफ्त में पढाते हैं। उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के कटोरा थामने को विवश हुए हाथों में कलम थमाकर उन राजनेताओं और शासकों के मुंह पर तमाचा जडा है जो देश के भविष्य को संवारने का झांसा देकर वोट हथियाते हैं और निर्लज्जता के साथ सत्ता पर काबिज होते चले जाते हैं। यह तीनों छात्र गांव-गांव जाकर लोगों को बाल मजदूरी न कराने के लिए जागरूक करते हैं। उनकी इस मुहिम से और भी कई लोग जुडते चले जा रहे हैं। उन्होंने अपनी इस मुहिम को 'हर हाथ कलम' नाम दिया है। हरीश कोठारी जो कि 'हाथ धरे कलम' के संरक्षक हैं, ने बताया कि तीन साल पहले वह अपने दो दोस्तों के साथ यूनिवर्सिटी के बाहर चाय पीने गए थे, तब वहां दीपक नामक छोटा बच्चा चाय के जूठे बर्तन धो रहा था। हमने बच्चे से पूछा कि तुम्हे इस छोटी-सी उम्र में मजदूरी क्यों करनी पड रही है तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आंखों में तैरती उदासी और गहरी चुप्पी ने हमारे मन को झकझोर कर रख दिया। हमें पता चला कि उसके माता-पिता पास के ही गांव में रहते हैं। हम गांव गये और वहां जाकर हमने उन्हें बेटे को बालमजदूरी नहीं कराने के लिए किसी तरह से राजी किया। आज वह दस वर्षीय बच्चा रोजाना दूसरे बच्चों के साथ स्कूल पढने जाता है। उसके चेहरे की चमक देखते बनती है। दीपक की तरह कई बच्चों के हाथों से भीख का कटोरा छूट गया है। 'हाथ धरे कलम' के द्वारा गरीब बच्चों को कॉपी व किताबें मुहैय्या कराई जाती हैं। गौरतलब है कि भीख मांगना छोड चुके बच्चों को पढाने के लिए स्थान की जरूरत थी इसके लिए प्रशासन ने शहर के तीन नामी स्कूलों - रेयान इंटरनेशनल, सेंट पीटर्स एवं डीएवीवी पब्लिक स्कूल में बच्चों को पढाने की मंजूरी दिला दी है। यह तीनों परोपकारी छात्र करीब सत्तर बच्चों को शाम पांच बजे से सात बजे तक खुद पढाते हैं।
अभिषेक सिंह राठौर उच्च अधिकारी हैं। पिछले वर्ष उनकी नियुक्ति नैनीताल में हुई तो वे सहज ही शहर में घूमने के लिए निकले। उन्होंने सडक पर बच्चों को भीख मांगते देखा। कुछ बच्चे नशा करते भी नजर आए। ऐसे दृश्य हर शहर में देखने को मिल जाते हैं। शासन और प्रशासन के द्वारा इसे सामान्य घटना मान नजरअंदाज कर दिया जाता है। हालांकि भिखारियों के पुनर्वान के लिए सरकारें करोडो रुपये खर्च करने का दावा करती हैं। भिखारियों की पकडा-धकडी भी होती है फिर भी उनकी संख्या बढती चली जाती है। बच्चों को भीख मांगते देख राठौर के मन में विचार आया कि इन्हें भीख देने की बजाय किसी और तरीके से सहायता की जाए। भीख मांगना और भीख देना दोनों अपराध हैं। उन्होंने बच्चों से बात करने की कोशिश की। पहले तो वे राजी नहीं हुए। फिर जब एक दिन बच्चों को पैसों का लालच दिया तो वे यह बताने को राजी हो गए कि उन्होंने भीख मांगना कब और क्यों शुरू किया। कई बच्चे ऐसे थे जिन्हें परिवार की गरीबी के चलते भीख मांगनी पडती थी। कुछ के पिता नकारा थे और वे खुद बच्चों को भीख मांगने के लिए विवश करते थे। कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो अनाथ थे। ऐसे मां-बाप की संख्या ज्यादा थी, जिन्होने अपने बच्चों को स्कूल को पढाने-लिखाने की कभी सोची ही नहीं थी। उनका यही मानना था कि अगर बच्चे भीख नहीं मांगेगे तो उनके पूरे परिवार को रात को भूखे पेट सोना पडेगा। राठौर ने संकल्प कर लिया कि भीख मांगने वाले और नशेडी बच्चों के भविष्य को किसी न किसी तरह से संवार कर ही दम लेना है। यकीनन यह काम आसान नहीं था। लेकिन राठौर एक जिद्दी और जूनूनी अधिकारी हैं जो ठान लेते हैं उसे अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं। राठौर ने बच्चों के मां-बाप से मिलने का निश्चय किया। सभी के घर गंदी बस्तियों में थे जहां हर कोई जाना पसंद नहीं करता। राठौर अफसर होते हुए भी उनके मां-बाप से मिले और उन्हें समझाया कि आप लोगों ने अपनी तो जिन्दगी तबाह कर दी पर अब बच्चों के साथ तो बेइंसाफी मत करो। इन्हें पढाओ-लिखाओ। इनका भविष्य बनाओ। पहले तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उनका कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता। उनका परिवार भीख से ही चलता है। वर्षों से ऐसा होता चला आ रहा है। फिर बच्चों को पढाई-लिखाई में होने वाला खर्च भी तो उठा पाना भी उनके लिए आसान नहीं है। राठौर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे बच्चों की पढाई और छोटी-मोटी तमाम जरूरतों को पूरा करेंगे। माता-पिता को भी रोजगार और नौकरी दिलवाने में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। आखिरकार कई मां-बाप राजी हो ही गए। राठौर ने बच्चों को छावनी परिषद के एक स्कूल में दाखिल करा दिया। स्कूल संचालकों को मनाने के लिए भी उन्हें काफी पापड बेलने पडे। धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। कुछ बच्चों के माता-पिता जो खून-पसीना बहाने से नहीं कतराते थे उनके लिए भी नौकरी, रोजगार की व्यवस्था भी की। राठौर को इस बात का भी दु:ख सताता रहा कि कुछ परिवार वालों ने स्कूल के बाद शाम को बच्चों से भीख मंगवाने का सिलसिला बरकरार रखा। धीरे-धीरे अधिकांश बच्चों में सुधार देखने को मिलने लगा है। राठौर सतत अपने अभियान में लगे हैं। कोई भी बच्चा भीख मांगता दिखता है तो उसे स्कूल में दाखिल करवा देते हैं। बच्चों की पढाई अनवरत चलती रहे इसके लिए आर्ट आफ लिविंग की एक संस्था 'हैपीनेस ह्यूमन कलेक्टिव' की मदद भी ली जा रही है। बच्चों की माताओं को स्कूल में भोजन बनाने का रोजगार भी उपलब्ध कराया गया है। बच्चों को नशे से मुक्ति दिलाने के लिए भी कई संस्थाओं की मदद ली जा रही हैं। वे कहते हैं कि मेरी योजना इन बच्चों को पढा-लिखाकर ऐसा आदर्श उदाहरण बनाने की है जो अपने जैसे बच्चों के लिए खुद ब्राँड एम्बेसेडर का काम करें।

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