Thursday, October 5, 2017

घुटने न टेकने की जिद

कुछ नारियों से मिलने, उनके बारे में पढने और जानने के बाद मन में अपार सम्मान, श्रद्धा और नतमस्तक होने के भाव जाग उठते हैं। उनका धरा-सा धैर्य, सेवा भावना, अग्नि-सा तेज और नीर-सी मिलनसारिता खुद-ब-खुद उन्हें आदर्श नायिकाओं वाली वो पदवी दिला देती है जिस पर गर्व ही गर्व होता है। अपनी हिम्मत, ज़ज्बे और हौसले की बदौलत कुछ नया करने और विपरीत से विपरीत परिस्थितियों का डटकर सामना करने वाली वैसे तो भारतवर्ष में कई महिलाएं हैं, लेकिन कुछ महिलाओं के द्वारा उठाये गये नये कदम और जीवन संघर्ष पर मेरा लिखने को मन हो रहा है। बेटे के हत्यारों को अधिकतम सजा दिलाकर दम लेने वाली नीलम कटारा के अटूट साहस और विपरीत हालातों से टकराने की लम्बी कहानी है। उन जैसी हौसले वाली महिलाएं कम ही देखने में आती हैं। उनका एक जवान बेटा था जिसका नाम था- नीतीश कटारा। नीतीश ने मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी गाजियाबाद संस्थान से स्नातक की उपाधि ली थी। २५ वर्षीय नीतीश पढाई के दौरान अपनी सहपाठी भारती यादव से प्यार करने लगा था। भारती भी उसे दिलोजान से चाहती थी। भारती के परिवार वालों को दोनों के प्रेम और मिलने-जुलने पर घोर आपत्ति थी। १७ फरवरी २००२ को भारती के भाई विकास ने नीतीश की हत्या कर दी। विकास का पिता डीपी यादव कहने और दिखाने को राजनेता है, लेकिन दरअसल वह छंटा हुआ गुंडा और बदमाश है। नेतागिरी का नकाब ओढकर उसने अपार धन-दौलत कमायी है। दौलत और रसूख के गरूर में अंधे हो चुके पिता और बेटे को एक आम परिवार से ताल्लुक रखने वाले युवक से अपनी बेटी का रिश्ता जोडना गवारा नहीं था। हत्यारों ने नीतीश के शव को बुरी तरह से जलाकर फेंक दिया था ताकि उसकी शिनाख्त न हो सके। मां नीलम ने लगभग पूरी तरह जल चुके बेटे के शव को देखते ही पहचान लिया था। वे काफी देर तक बेटे के शव को निहारती रहीं। भीड को लगा कि युवा बेटे की मां खुद को संभाल नहीं पायेगी। लेकिन इस बहादुर मां ने फौरन ही खुद को संभाला और पुलिस वालों से जब यह पूछा कि शव का डीएनए टेस्ट कहां होगा तो लोग उनकी तरफ देखने लगे। अपने लाडले बेटे को खो चुकी मां ने तभी ठान लिया था कि अब इंसाफ की लडाई लडना ही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। न्याय की लडाई लडने के लिए उन्हें कई तकलीफों का सामना करना पडा। बार-बार धमकियां दी गयीं। धन लेकर चुपचाप बैठ जाने का दबाव भी डाला गया, लेकिन बहादुर मां ने हार नहीं मानी। बेटे के हत्यारों की हर चाल को नाकाम करते हुए उन्हें अधिकतम सजा दिलवा कर ही दम लिया। नीलम कटारा ने निर्बलों को न्याय दिलाना अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। अनाचारी नेताओं और नकाबपोश समाज के ठेकेदारों के खिलाफ उनकी बुलंद आवाज गूंजती रहती है।
देश में जहां-तहां बेटियों पर तेजाब फेंककर उनकी जिन्दगी तबाह करने की खबरें सतत पढने और सुनने को मिलती रहती हैं। एकतरफा प्यार करने वाले बिगडैल युवकों को एसिड अटैक कर तसल्ली का आभास होता है। देखने में आ रहा हैं कि अधिकांश एसिड अटैक करने वाले कानूनी दांवपेच की बदौलत बच जाते हैं या फिर बहुत कम सजा मिलती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंक‹डों के अनुसार तेजाब फेंकने की सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हो रही हैं। २०१५ में ही देशभर में ऐसे मामलों में ३०५ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन हकीकत यह है कि मात्र १८ मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाया। वास्तविकता यह भी है कि सभी तेजाबी हमलों की रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज नहीं होती। इसलिए तेजाब से कितनी जिन्दगियां तबाह होती हैं इसके वास्तविक आंकडे सामने नहीं आते। यह भी सच है कि तेजाबी अत्याचार, शोषण, बलात्कार, हत्या से भी अधिक पीडा देता है। यह एक तरह से जीवन की सारी खुशियां और सपने छीन लेता है। लक्ष्मी अग्रवाल जैसी चंद नारियां ऐसी भी हैं जिन्होंने तेजाब के जानलेवा वार को झेलने के बाद संघर्ष की ऐसी मिसाल पेश की है जिसका यशगान देश और दुनिया में गूंज रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में १९९० में जन्मी लक्ष्मी अग्रवाल जब पंद्रह वर्ष की थीं तब एक तरफा प्रेम में पडे ३२ वर्षीय सनकी युवक ने तेजाब फेंक दिया। लक्ष्मी का दोष बस इतना था कि उसने शादी से इन्कार कर दिया था। सिर से पांव तक तेजाब में नहायी लक्ष्मी स‹डक पर तडप रही थी और लोग देखकर भी अनदेखा कर आगे बढते चले जा रहे थे। एक शख्स को दया आयी और उसने लक्ष्मी को अस्पताल पहुंचाया। पूरे दो महीने तक वह अस्पताल के बिस्तर पर बिलखती-तडपती, कराहती रही। डिस्चार्ज होने के बाद जब वह अपने घर पहुंची तो उसके मन में दर्पण देखने की इच्छा जागी। लेकिन घरवालों ने तो सभी दर्पण ही गायब कर दिए थे। अंतत: उसने पानी में अपनी सूरत देखी तो उसे पूरी दुनिया ही घूमती नजर आई। आत्महत्या के प्रबल विचार ने उसे जकड लिया। घर से बाहर निकलने पर आसपास के लोगों की तानाकशी ने भी लक्ष्मी को काफी आहत किया। लोग अजीब निगाह से देखते और यही जताते कि जैसे इस सबकी वह ही दोषी हो। यह तो लक्ष्मी के पिता ही थे जिन्होंने उसे लोगों की नुकीली निगाहों और तानों को नजरअंदाज कर नया जीवन जीने की सीख दी। पिता की सीख ने लक्ष्मी के मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार कर दिया। उसके बाद लक्ष्मी ने तेजाब फेंकने वाले बदमाश को अधिकतम सजा दिलवाने और जमाने को यह दिखाने की ठान ली कि चेहरे की सुंदरता तो दिखावटी है। इंसान को तो दिल से सुंदर होना चाहिए। लक्ष्मी अगर तब घुटने टेक देतीं तो उनका भी वही हश्र होता जो एसिड अटैक से तन-बदन जला कर अंधेरे के हवाले हो चुकी कई महिलाओं का हो चुका है। लक्ष्मी ने एसिड अटैक पीडित महिलाओं की सहायता करने की राह पकड ली। अनेक तेजाब पीडित महिलाओं के अंधेरे जीवन में उजाला भर लक्ष्मी ने अपने सभी गमों को बहुत पीछे छो‹ड दिया। उन्होंने ताज नगरी आगरा में ताजमहल से थो‹डी दूरी पर 'शीराज हैंगआउट' नामक कैफे शुरू किया जिसे एसिड अटैक पीडित महिलाएं चलाती हैं। ३०० से ज्यादा महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुकी लक्ष्मी को २०१४ में यूएस की फस्र्ट लेडी मिशेल ओबामा के हाथों 'इन्टरनेशनल वाइल्ड ऑफ कौर्यज अवार्ड' से नवाजा जा चुका है। २०१४ में ही वह आलोक दीक्षित नाम के सामाजिक कार्यकर्ता के संपर्क में आयीं। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और जीवनपर्यंत एक साथ रहने का फैसला कर लिया।
भयंकर गर्मी के दिन थे। एक युवती अपने दोस्तों के साथ मॉल में खरीदी और मौज-मज़ा करने के लिए गई थी। जब वह मॉल के बाहर निकली तो उसने ऐसे कुछ गरीब बच्चों को देखा जिनके पैरों में चप्पल नहीं थी। पेट की भूख की तडप उनके चेहरे से साफ-साफ झलक रही थी। उन्हें भीख मांगते देख उसके मन में कई तरह के विचार आने लगे। वह मॉल से घर लौट तो आई, लेकिन नंगे पैर, भीख मांगते बच्चों का चेहरा बार-बार उसके सामने आ जाता। उसके मन में विचारों की आंधी चलने लगी। उसने सोचा कि पांच-सात सौ रुपये तो वह यूं ही उडा देती है। इन बच्चों को पचास-सौ रुपये की चप्पल नसीब नहीं। नंगे पैर घूमने से बच्चों के पैरों में इन्फेक्शन और कई बीमारियां हो जाती हैं। इन रुपयों से दस-बारह बच्चों का खाना और पैरों में एक जोडी चप्पल तो जरूर आ सकती है। उसने सबसे पहले बच्चों के नंगे पैरों के लिए चप्पलें उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। वह अपने दोस्तों से मिली। बच्चों की तकलीफ के बारे में उन्हें अवगत कराया। आपस में मिलकर पैसे जुटाये गए। इन पैसों से बच्चों के लिए चप्पलें खरीदी गयीं। युवती ने रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और गलियों में रहने वाले गरीब बच्चों को चप्पलें बांटनी शुरू कर दीं। उसका साथ देने वालों का कारवां बढता चला गया। आज उसकी टीम में डाक्टर, इंजिनियर और समाजसेवक शामिल हैं। जहां चप्पलें बांटनी होती हैं वहां पर उनकी टीम पहले जाकर सर्वेक्षण करती है फिर उन परिवारों को चप्पले बांटी जाती हैं जिन्हें इनकी वास्तविक जरूरत होती है। जयपुर से अपनी पढाई पूरी कर दिल्ली लौटी युवती ने यहां पर भी अपना काम जारी रखा है। सैकडों बच्चों को चप्पलें उपलब्ध करा इस सच्ची बालसेविका का अगला लक्ष्य गरीब बच्चों को एक फिटनेस किट मुहैया कराना हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी अपने स्तर पर अपने आसपास के गरीब बच्चों की मदद करें। ताकि कोई भी बच्चा नंगे पैर होने के कारण बीमार न पडे। बच्चों के नंगे पैरों में चप्पलें पहनाने वाली इस आदर्श युवती का नाम है डॉ. समर हुसैन। क्या आप उसका अभिनंदन नहीं करना चाहेंगे?

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