Thursday, November 30, 2017

कमीशनखोरों के शिकंजे में मरीज

लोग हतप्रभ हैं। चिंतित और परेशान हैं। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। दलालों और ठगों की घेराबंदी में उनकी सांसें घुटने लगी हैं। सेवा भावना लुप्त होती चली जा रही है। नकाबों के उतरने का निरंतर सिलसिला जारी है। डॉक्टरों को तो तमाम भारतवासी इंसान नहीं, भगवान मानते आये हैं। भगवान की इस विश्वास के साथ पूजा की जाती है कि वे बिना किसी भेदभाव के सभी का भला ही करेंगे। कोई लालच उन्हें डिगा नहीं पायेगा। इसी देश में ऐसे कई डॉक्टर हुए हैं जिन्होंने मरीजों की सेवा और इंसानियत के गर्व को बढाने के कीर्तिमान रचे हैं। उनके कर्म-धर्म की मिसालें इतिहास में दर्ज हैं। उनके प्रति नतमस्तक है हर हिन्दुस्तानी। इन दिनों जो खबरें आ रही हैं वे ईश्वर का पर्यायवाची माने जाने वाले डॉक्टरों के अस्तित्व पर बट्टा लगा रही हैं और यह ढोल पीट रही हैं कि अधिकांश डॉक्टर धन के पीछे भाग रहे हैं। मरीजों की जेब पर डाका डालने की मनोवृत्ति ने उनके ईमान और कद को बौना कर दिया है। नोटों की चमक ने उनके मूल कर्तव्य को गिरवी रख लिया है। मरीजों को वे इंसान नहीं कमाई का साधन समझते हैं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। इसलिए मजबूरन लोगों को निजी अस्पतालों की शरण लेनी पडती है। बहुत ही खेद की बात है कि ९५ प्रतिशत निजी ब‹डे अस्पताल धोखाधडी, लूट और ठगी के भयावह अड्डे बन कर रह गए हैं। सच तो यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं के घोर अभाव का फायदा निजी हाई-फाई अस्पताल उठा रहे हैं। दिल्ली के पास गुरुग्राम में स्थित फोर्टिंस अस्पताल में एक सात साल की बच्ची को डेंगू के इलाज के लिए भर्ती किया गया। डॉक्टर उसकी जान तो नहीं बचा पाये, लेकिन १६ लाख रुपये का बिल जरूर थमा दिया गया। १६ लाख रुपये कोई छोटी-मोटी रकम नहीं होती। गरीब के लिए इतनी बडी राशि वो सपना होता है जो कभी पूरा नहीं होता। अमीरों के लिए हाथ का मैल हो सकती है, लेकिन मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी यह छोटा-मोटा आंकडा नहीं होती। डेंगू से पीडित सात वर्षीय बच्ची आद्या की मौत व इलाज के लिए १६ लाख रुपये के भारी भरकम बिल ने फिर कई सवाल खडे कर दिए और अस्पतालों के लूटतंत्र का भी खुलासा कर दिया। डेंगू की जो दवा ५०० रुपये की है उसके लिए तीन हजार रुपये और २७०० दस्ताने के लिए पौने तीन लाख रुपये, दवा का बिल चार लाख रुपये, १३ रुपये की ब्लड जांच स्ट्रिप के बदले प्रति स्ट्रिप २०० रुपये वसूले गए। मेनोपेनम इंजेक्शन के २१ वायल दिए गये जिनके प्रति वायल ३१०० रुपये एेंठे गए जबकि बाजार में ५०० रुपये में आसानी से वायल मिलता है। क्या वाकई दो सप्ताह के इलाज के दौरान डॉक्टरों ने २७०० दस्ताने व ६६० सिरिंज इस्तेमाल किए? ब्लड बैंक का खर्चा ६१,३१५ रुपये, डॉक्टरों की फीस ५३,९०० रुपये, दवाई का खर्चा २,७३,३९४ रुपये के अलावा एक कमरे का किराया १,७४,००० रुपये बिल में जो‹डकर मृत बच्ची के माता-पिता को दिन में तारे दिखा दिए! अभिभावकों का यह भी आरोप है कि अस्पताल ने जानबूझकर आखिर के तीन दिन तक बच्ची को वेंटीलेटर पर रखा।
बिल की रकम में इजाफा करने के लिए निजी अस्पतालों के द्वारा लाश को वेंटीलेटर पर रखने की कई खबरें आम होती चली जा रही हैं। नोएडा के एक अस्पताल में एक व्यक्ति की मौत कई दिन पहले हो गई थी, लेकिन अस्पताल के धनलोभी डॉक्टर लाश को वेंटीलेटर पर रखे रहे। परिजनों को पांच दिन तक मरीज से मिलने नहीं दिया गया और बाद में मनमाना बिल थमाया गया। परिजन इतना अधिक बिल भर पाने में सक्षम नहीं थे इसलिए वे लाचारी में अस्पताल में ही शव को छोडकर चले गये। गाजियाबाद निवासी पृथ्वी सिंह के दो साल के पोते को साधारण खांसी होने से उसकी सांस फूलने लगी थी। बच्चा रातभर परेशान न हो इसलिए उन्होंने उसे एक नामी हॉस्पिटल में ले जाने की भूल कर दी। आपातकालीन विभाग में डॉक्टर ने उसकी जांच की और बेहद गंभीर बताते हुए भर्ती करने की सलाह दी। पृथ्वी सिंह ने डॉक्टर से आग्रह किया कि बच्चे को साधारण-सी खांसी है। आप इसे चेक करके दवा दे दीजिये। मगर डॉक्टर ने स्थिति की गंभीरता का ऐसा डर दिखाया कि वे बच्चे को भर्ती करने को विवश हो गए। बच्चे को आईसीयू में भर्ती कर दिया गया। जहां पर छह बैड थे। बच्चा पूरे वार्ड में हंसते-खेलते हुए दौड लगा रहा था। वे दूसरे दिन बच्चे का डिस्चार्ज करवाना चाहते थे, लेकिन तीसरे दिन ४० हजार रुपये के बिल के साथ बच्चे को डिस्चार्ज किया गया। अस्पतालों के भारी भरकम बिल से बचने का मरीजों के पास कोई विकल्प नहीं हैं। इस लूट को रोक पाना कतई आसान नहीं है।
ध्यान रहे कि जो सिरिंज बाजार में होलसेल में दो रुपये में मिलती है उसके तथाकथित बडे अस्पतालों में दस रुपये वसूले जाते हैं। मरीजों की मजबूरी होती है। उन्हें डॉक्टरों की हर बात माननी पडती है। कमीशन के आधार पर काम करने वाले डॉक्टरों को हर मरीज का सीटी स्केन, एमआरआई लिखने का ऊपरी दबाव रहता है। जिस बीमारी की जांच की जरूरत ही नहीं होती उसकी जबरन जांच के बाद मोटा बिल थमा दिया जाता है। प्रायवेट अस्पताल अब एक बिजनेस मॉडल की तर्ज पर काम करने लगे हैं। यही वजह है कि यहां पर आम मरीज के लिए इलाज करवाना बेहद मुश्किल होता है। अस्पताल के कमीशनखोर डॉक्टर मरीज को ग्राहक मानते हुए उसे लूटने का कोई मौका नहीं छोडना चाहते। मरीज को अगर पांच दिन अस्पताल में रखना जरूरी हो तो भी उसे छह से सात दिन तक रखा जाता है। इन दो दिनों में बिल में अच्छी खासी बढोतरी हो जाती है। यह सच्चाई भी हैरान करने वाली है कि लूट के अड्डे बन चुके ऐसे अस्पतालों में डॉक्टरों को तनख्वाह या तो नहीं मिलती या फिर नाम मात्र की मिलती है। इसलिए वे कमीशन के चक्कर में अधिक से अधिक मरीजों को फांसने के चक्कर में रहते हैं। इसी कमीशन के लालच में मरीज को निचोडकर रख दिया जाता है। मरीज को एडमिट करने और डिस्चार्ज करने में इन्हीं डॉक्टरों की चलती है। अगर एक मरीज को चार दिन में छुट्टी दी जा सकती है तो उसे पांच दिन तक सिर्फ बिल बढाने के लिए रोक कर रखने की कलाकारी को अंजाम देने में यह वसूलीबाज डॉक्टर बडी आसानी से कामयाब हो जाते हैं।

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