Thursday, January 25, 2018

जीने की आज़ादी

जीना तो सभी चाहते हैं, लेकिन जान के दुश्मनों की भी कमी नहीं है। अपने भी कातिल बनने में देरी नहीं लगाते। पिछले दिनों एक बेटे ने अपनी उम्रदराज बेबस मां को घर की तीसरी मंजिल की छत पर ले-जाकर नीचे गिरा दिया। मां समझ भी नहीं पायी कि उसके साथ क्या हो गया। मां चलने-फिरने में लाचार थी और उसकी सोचने-समझने की क्षमता भी क्षीण हो चुकी थी। बेटा अपनी पत्नी के साथ खुशहाल जिन्दगी जीना चाहता था। बीमार मां की सेवा करने में दोनों को तकलीफ होती थी। उनके पास मां की स्वाभाविक मौत का इंतजार करने का समय नहीं था। इसलिए दोनों ने सलाह-मशविरा कर बूढी मां को मौत की सोगात देकर यह मान लिया कि उन्हें अब हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई है। अब वे चैन की जिन्दगी जी सकेंगे। लेकिन वे कानून के फंदे से बच नहीं पाए। कितनी ही ऐसी औलादें होती हैं जो ऐसे पाप करते नहीं थकतीं। कुछ बेनकाब हो जाती हैं, अधिकांश का पर्दाफाश नहीं हो पाता। लेकिन क्या ऐसी निष्ठुर हत्यारी संतानों को चैन की नींद आ पाती होगी? यह सवाल लगातार चिन्तनशील लोगों को बेचैन किये रहता है। ऐसी दिल दहलाने वाली खबरों की भी‹ड में चंद खबरें ऐसी भी सुनने और पढने को मिल जाती हैं जो यह संदेश देती हैं कि रिश्तों की कद्र और मानवता के पवित्र विचार अभी जिन्दा हैं। खून के सारे रिश्ते अभी निर्ममता और स्वार्थ की भेंट नहीं चढे हैं। यह भी सच है कि रिश्तों के कातिलों की खबरें डराती तो हैं, लेकिन यह संदेश भी देती हैं कि बेगानों और अपनों से सावधान रहने की जरूरत है। उम्र के उस पडाव में जब अपने भी मुंह मोडने लगते हैं तो चौंकाने वाले निर्णय लेने में कोई हर्ज नहीं है। हमारे समाज में यह धारणा बन गई है कि बुजुर्गों को खुलकर जीने का अधिकार नहीं है। उन्हें जितने सुख भोगने थे उतने वे भोग चुके। अब तो बस उन्हें अपनी औलादों की ही चिन्ता करनी चाहिये। उन्हीं के जीवन को संवारने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देनी चाहिए। जब हाथ पैर ढीले पड जाएं तो मूकदर्शक की भूमिका अपना लेनी चाहिए। ऐसे बेटे-बेटियों की भी कमी नहीं है जो अपने माता-पिता को लेकर चिन्तित रहते हैं और उनकी खुशी के लिए परंपराओं को तोडने का साहस दिखाते हैं।
जयपुर की संहिता अग्रवाल ने अपनी ५३ वर्षीय विधवा मां की शादी करवाकर अनुकरणीय मिसाल पेश की है। संहिता के पिता का ५२ साल की उम्र में अचानक साइलेंट अटैक से निधन हो गया था। उसकी मां के लिए यह एक बहुत बडा सदमा था। अच्छे-भले स्वस्थ पति को खोने के कारण दिन-रात वह मौन, गुमसुम और घबरायी-सी रहतीं। बडी बहन की शादी हो चुकी थी। घर में मां और संहिता ही बचे थे। पिता के न रहने पर तमाम खुशियां धुवां बनकर गायब हो गई थीं। घर को भयावह सूनेपन ने जकड लिया था। संहिता जब ऑफिस से लौटती तो गमगीन मां को सीढियों पर बैठा पाती, जैसे पति के लौटने का इंतजार कर रही हो। मां तब कितना खिलखिलाया करती थी जब पिता जिन्दा थे। अब तो मां अपने ही मन की अंधेरी दुनिया में ही सिमट कर रह गई थी। मां की उदासी और अकेलापन ने संहिता की भी नींदें उडा दी थीं। गमजदा मां की कभी-कभार जब चुप्पी टूटती तो वे चिल्लाकर सवाल दागतीं कि, 'तेरे पापा कहां हैं, अभी तक आये क्यों नहीं?' संहिता के पास कोई जवाब नहीं होता था। मां के सूने माथे को देखकर वह अपनी उधेड-बुन में लग जाती। संहिता ने अपने जीवन की किताब में ऐसे निष्ठुर पन्नों की कल्पना नहीं की थी। हर पन्ना उसे सहमा जाता। चिन्ता तब पहाड से भी भारी हो गई जब संहिता की गुडगांव में नौकरी लग गई। मां घर में अकेली रह गयी। अब तो सूनेपन ने मां को और अधिक डराना शुरू कर दिया था। वह रात के वक्त टीवी चलाकर सोने लगीं ताकि घर में किसी के होने का अहसास हो। मां की हालत बेटी से देखी नहीं जा रही थी। इसलिए उसने एक मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर जाकर मां को बिना बताये उनकी प्रोफाइल बना दी। कुछ ही दिनों में रिश्ते आने लगे। पचपन वर्षीय गोपाल गुप्ता तो फौरन शादी के लिए तैयार हो गए। संहिता ने गोपाल गुप्ता के बारे में पूरी जानकारी जुटायी। बांसवाडा में राजस्व अधिकारी के पद पर पदस्थ गुप्ता की पत्नी की सात साल पूर्व कैंसर से मौत हो चुकी थी। उसके बाद से वे अकेले रह रहे थे। संहिता ने जब अपनी मां को इस बारे में अवगत कराया तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस बीच उन्हें एक गंभीर बीमारी ने जकड लिया। ऑपरेशन की तैयारी चल रही थी। गुप्ता को इसकी खबर लग गयी। वे फौरन दौडे चले आए। रिश्ते से इनकार के बावजूद उन्होंने मां की निस्वार्थ भाव से देखभाल की, जिससे वे प्रभावित हो गर्इं और दोनों ने विवाह बंधन में बंधने का खुशी-खुशी फैसला ले लिया। परिजनों और रिश्तेदारों के विरोध की परवाह न करते हुए बेटी ने आर्य समाज मंदिर में दोनों की शादी करवाकर दो जिन्दगियों की तस्वीर ही बदल दी।
ऐसी शादियों का मकसद वैसा नहीं होता जैसा इसके विरोध में खडे होने वाले लोग सोचते हैं। कहने वाले तो बडी आसानी से यह कह देते हैं कि वृद्धावस्था का समय तो अपने बेटे-बहू और पोते-पोतियों आदि के साथ बिताने के लिए ही होता है। ऐसे चिन्तनशील लोगों को वृद्धों की समस्याओं का कोई भान नहीं होता। उन्हें एकाकीपन और स्वास्थ्य से जुडी समस्याएं किस तरह से तोडती चली जाती हैं इसकी भी उन्हें खबर नहीं होती या फिर इस तरफ ध्यान देना जरूरी ही नहीं समझते। छह साल पहले जब सत्तर वर्षीय सूर्यनारायण ने साठ वर्षीय बानुमति से चेन्नई के एक मंदिर में विवाह किया तो दोनों परिवारों का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। परिवार के सभी सदस्यों की यही सोच थी कि इस उम्र में शादी करना तमाशे और हंसी का पात्र बनना है। लगभग दस वर्ष पूर्व टेलीकाम सेक्टर की नौकरी से रिटायर हुए सूर्यनारायण की पत्नी का भी कुछ वर्ष पूर्व निधन हो गया था। एकाकीपन की वजह से सूर्य नारायण बहुत असहज महसूस करते थे। उन्हें एक हमउम्र साथी की जरूरत थी। अपने आप में मगन उनके बेटे-बेटियों के पास इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे उन्हें समय दे पाते। उधर, साठ वर्ष की होने ने बावजूद बानुमति का किसी वजह से विवाह नहीं हो पाया था। एक मित्र ने सूर्यनारायण के समक्ष बानुमति से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो वे सहर्ष राजी हो गए।

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