Thursday, January 18, 2018

राष्ट्रगान पर किन्तु-परन्तु

'जन-गण-मन' हमारा राष्ट्रगान है तो 'वंदे मातरम' राष्ट्रगीत। पिछले कुछ महीनों से दोनों को लेकर जबर्दस्त विरोध का माहौल देखा जा रहा है। कुछ देशवासियों को शिकायत है कि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को जबरन सम्मान देने और गवाये जाने की कोशिश की जा रही है। वैसे अब तो देश के सम्मान के प्रतीक राष्ट्रगान को सिनेमाघरों में बजाने की अनिवार्यता ही खत्म कर दी गई है। गौरतलब है देशभक्ति की भावना को बल देने के लिए ३० नवंबर २०१६ को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले ही राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया गया था। इस नियम के खिलाफ आवाजें उठाये जाने के कारण अंतत: कोर्ट ने अपने नियम में बदलाव करते हुए इसे स्वैच्छिक कर दिया है। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान पर आपत्ति जताने वालो का कथन है कि लोग सिनेमाघरों में सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए जाते हैं। वहां पर भी मर्यादा और अनुशासन से परिपूर्ण राष्ट्रगान के गायन की अनिवार्यता मानसिक कष्ट देती है। हर दर्शक की अपनी सोच होती है। राष्ट्रगान के बजते ही सावधान की मुद्रा में खडा होना होता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमाघरों में हर उम्र के लोग पहुंचते हैं। सभी की मानसिक और शारीरिक स्थिति अलग-अलग होती है। राष्ट्रगान कोई ऐसा गीत भी नहीं है जिसे जब जहां चाहे वहां बजा दिया जाए। राष्ट्रगान को राष्ट्रभक्ति से जोडने वाले भी उन लोगों को अपना निशाना बनाने की ताक में रहते हैं जो किसी कारण वश इसके सम्मान में सावधान की मुद्रा में ख‹डे नहीं होते। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के विरोध में भले ही कितने ही कथन और तर्क दिये जाते रहे हों, लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या भारतवासी देश के राष्ट्रगान के लिए ५२ सेकेंड का भी समय नहीं दे सकते? भले ही सिनेमाघरों में सभी मनोरंजन के लिए जाते हों, लेकिन राष्ट्रगान तो देश के सम्मान में गाया जाने वाला प्रेरक गीत है जिसका सम्मान किया ही जाना चाहिए। लगभग हर सच्चे भारतवासी के मन में तिरंगे के प्रति असीम श्रद्धा भी है और अपार सम्मान भी। जितना तिरंगे का महत्व है उतना ही राष्ट्रगान का भी...। राष्ट्रगान के बगैर तिरंगा फहराया जाना ठीक उसी तरह से है जैसे आत्मा के बगैर शरीर का हिलना-डुलना। गौरतलब है कि २७ दिसंबर १९११ में सर्वप्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में जन-गण-मन गाना गाया गया था। यह राष्ट्रगान बंगाली के साथ-साथ हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है। इसके रचियता विश्व प्रसिद्ध कवि रविन्द्रनाथ टैगोर थे। २४ जनवरी १९५० की संविधान के द्वारा भी राष्ट्रगान को मान्यता दी गई। तब से इसे देशवासियों के मान-सम्मान का प्रतीक माना जाता है। जो लोग इसे बोझ समझते हैं उनके बारे में अब क्या कहें। हिन्दुस्तान में ऐसे अहसानफरामोशों का भी वास है जो 'भारत माता' के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। राष्ट्रभक्तों का रक्त खौलाकर रख देने वाली नारेबाजी करने से बाज नहीं आते। देश के प्रदेश मध्यप्रदेश के शहर रतलाम जिले के नामली कस्बे के एक कॉन्वेंट स्कूल में बीते सप्ताह बीस छात्रों को इसलिए बाहर कर दिया गया, क्योकि वे 'भारत माता की जय' के नारे लगा रहे थे। छात्र नौंवी कक्षा के हैं। स्कूल प्रबंधन ने उनके प्री बोर्ड की परीक्षा देने से भी रोक लगा दी। ऐसे हथकंडे करने वाले ही राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के विरोध में अपने सुर ऊंचे करते रहते हैं। उनकी असली सोच सहज ही समझ में आ जाती है। इन्हें बदलने की कोशिशें करना व्यर्थ हैं। यह भी सच है कि देश के कई शहरों के सिनेमाघरों में जब कुछ लोग राष्ट्रगान के दौरान खडे नहीं हुए तो उनकी पिटायी भी कर दी गई जिसका कतई समर्थन नहीं किया जा सकता। यह देखने में आया कि जो विकलांग व्यक्ति भले ही अपनी शारीरिक कमजोरी के चलते खडे होने में अक्षम थे उनको भी नहीं बख्शा गया। वृद्धों को भी खडे होने का दबाव झेलना पडा। हालांकि अदालत ने बाद में विकलांग और वृद्ध लोगों के खडे होने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी, लेकिन फिर भी कुछ लोग अपनी राष्ट्रभक्ति के जोश में डंडे और शाब्दिक बाण चलाकर खुद को राष्ट्रभक्त दर्शाते रहे। राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को जबरन गवाये जाने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। देश के जन-जन के दिल में इनके प्रति सम्मान होना चाहिए। लाठी, डंडों से राष्ट्रभक्ति अनुशासन और सम्मान की गंगा नहीं बहायी जा सकती। राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत और तिरंगे को राजनीतिक हितों के लिए भुनाने का जो दौर चल पडा है वह भी देशहित में नहीं है। किसी के बोलने से कोई जाग ही जाए यह जरूरी नहीं है। राष्ट्रगान पर किंतु-परंतु कहने वाले अपनी जगह हैं। गौरतलब है कि मैं सुबह जिस बाग में मार्निंग वॉक के लिए जाता हूं वह एक स्कूल से लगा हुआ है। यहां पर सुबह छात्र जैसे ही राष्ट्रगान का गायन प्रारंभ करते हैं तो अधिकांश लोग खुद-ब-खुद बडे सम्मान के साथ सावधान की मुद्रा में खडे हो जाते हैं। यही हमारे देश की असली शक्ति भी है और पहचान भी। देश के कई सिनेमाघरों के संचालकों का कहना है कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना भले ही अनिवार्य नहीं रह गया हो, लेकिन हम इसे बजाते रहेंगे। हालांकि राष्ट्रगान के दौरान खडे होने की जबर्दस्ती नहीं करेंगे। अगर लोग अपनी मर्जी से राष्ट्रगान के दौरान खडे होते हैं तो यह अपने देश के प्रति उनके सम्मान को दर्शाता है। दुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है। कोर्ट और सरकार भले यह कहे कि राष्ट्रगीत बजते वक्त खडे होने की जरूरत नहीं है, लेकिन अधिकांश लोग राष्ट्रगीत का सम्मान करना जानते हैं। उन्हें किसी की जबर्दस्ती और प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। लोग अपनी मर्जी से राष्ट्रगान के दौरान खडे होते हैं तो इससे यह पता चलता है कि उनके मन में देश के प्रति कितनी आस्था और सम्मान है। कुछ सिनेमावालों का यह भी कहना है कि अगर राष्ट्रगान चलाना अनिवार्य नहीं है तो हम भी नहीं चलाएंगे। सरकार की ओर से अनिवार्यता नहीं होने पर अगर सिनेमा में राष्ट्रगान के दौरान दर्शक खडे नहीं होंगे तो वह भी ठीक नहीं होगा।

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