Thursday, February 15, 2018

मातम मनाती उम्मीदें

देश की राह में बहुत बडा अवरोध बने भ्रष्टाचार के जड से खात्मे के वादे के साथ जब नरेंद्र मोदी देश की सत्ता पर काबिज हुए थे... तब तमाम देशवासी कितने आशान्वित और उत्साहित थे। उन्हें लगने लगा था कि अब तो घूसखोरों, टैक्स चोरों, बेइमानो और धोखेबाजों को कोई नहीं बचा पायेगा। पुराने भ्रष्टाचारी अपना चेहरा छुपाकर यहां-वहां दुबक जाएंगे। नये तो पैदा ही नहीं हो पायेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चेतावनी और ललकार की वजह से कुछ दिन तो सन्नाटा-सा छाया रहा। लगा कि देश की तस्वीर बदलेगी ही, लेकिन धीरे-धीरे जो मंजर सामने आए उन्होंने चीख-चीख कर बताना आरंभ कर दिया कि जैसा चाहा और सोचा गया था वैसा होना असंभव है। भ्रष्टाचारियों को पटकनी देना न तब के शासकों के लिए आसान था और ना ही उन मोदी जी के लिए सहज और सरल है जिन्होंने सत्ता संभालते ही यह हुंकार भरी थी कि, 'न मैं खुद खाऊंगा और ना ही किसी और को खाने दूंगा।'  प्रधानमंत्री के इन चेतावनी भरे शब्दों का जन्मजात भ्रष्टाचारियों पर कोई खास असर नहीं पडा। उन्होंने इसे महज गीदड भभकी माना। कुछ दिन राह देखने के बाद वे अपनी पुरानी लीक पर दौडने लगे। हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोरी की पुरानी परंपरा खुलकर निभायी जाने लगी।
यह कितने ताज्जुब की बात है कि जिस जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) को लेकर दावा किया गया था कि 'एक देश एक टैक्स' की इस प्रणाली में न केवल टैक्स चोरी पर लगाम लगेगी, बल्कि विभागीय रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। उसी जीएसटी ने जहां व्यापारियों को परेशान किया वही अधिकारियों के लिए भ्रष्टाचार के नये रास्ते खोल दिये हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कानपुर में जीएसटी कमिश्नर संसारचंद और उसका भ्रष्ट गिरोह बेखौफ होकर काली कमायी और हवाला कारोबार करने की हिम्मत नहीं दिखाता। यकीनन प्रधान सेवक की चेतावनी ऐसे धूर्तों के लिए कोई अहमियत नहीं रखती। १९८६ बैच के भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी संसारचंद ने जिस योजनाबद्ध तरीके से जीएसटी में चोर रास्ते निकाल कर रिश्वतखोरी को अंजाम दिया उससे यह तो तय हो गया है कि शातिर भ्रष्टाचारी यह मान चुके हैं कि उस और इस सरकार में कोई फर्क नहीं है। उनके राज में भी वे अपनी 'कला' के जरिए करोडों कमाते थे और इस सरकार के रहते भी उनका कोई बाल बांका नहीं होने वाला। हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोर सीना तानकर अपनी जेबें भर रहे हैं। आम आदमी की बदलाव की उम्मीदें मातम मना रही हैं। यह भी सिद्ध हो गया है कि सत्ताधीशों को बदल भर देने से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं हो सकता। बीते हफ्ते इन पंक्तियों का लेखक गोंदिया से नागपुर आ रहा था। थर्ड एसी में बैठे कई यात्री ऐसे थे जिनके पास साधारण टिकट था। टीटीई को उन्होंने दो-दो सौ रुपये थमाए और गोंदिया से नागपुर की अपनी यात्रा वातानुकूलित डिब्बे में मजे से पूरी की। रेलवे में चलने वाली लूटमार से वे लोग बखूबी वाकिफ हैं जो अक्सर यात्राएं करते रहते हैं। उन्हें पता होता है कि टीटीई को कितनी दक्षिणा देकर खुश किया जा सकता है। मुसीबत तो नये यात्रियों के हिस्से में आती है। जो अक्सर तकलीफों और मनमानी वसूली का शिकार होते रहते हैं। बहुत ही कम ऐसे टीटीई हैं जो नियम के अनुसार अपना काम कर यात्रियों को कानून का पालन करने की सीख देते हैं। कानून का पालन करने वाले यात्री जब 'रसीद' की मांग करते हैं तो टीटीआई आनाकानी करते हैं क्योंकि उन्हें यह घाटे का सौदा लगता है। देश को भले ही चोट लगती रहे, लेकिन सरकारी विभागों के अधिकांश कर्मचारी अधिकारी घूसखोरी से बाज नहीं आ रहे हैं।
देश के जैसे हालात हैं उससे लगता नहीं कि भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाए। जिनकी फितरत ही भ्रष्टाचार करना है वे लूट-खसौट के मौके तलाशते रहते हैं। शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो जहां भ्रष्टाचारी विराजमान न हों। आजादी के बाद का इतिहास बताता है कि सत्ताधीशों, नेताओं और नौकरशाहों ने विभिन्न तरीकों से बेईमानी और भ्रष्टाचारों को अंजाम देकर खुद की समृद्धि और देश को चोट पहुंचाने का काम किया है। यह भी देखने में आता रहा है कि हिंदुस्तान में सच्चाई और ईमानदारी के ढोल तो बहुत पीटे जाते हैं, लेकिन सच्चे कर्तव्यनिष्ठों, ईमानदारों की राह में कांटे बिछाकर उनका जीना दूभर कर दिया जाता है। गलत रास्ते अपना कर मालामाल होने वालों के लिए धनबल की बदौलत मुश्किलों से राहत पाना बहुत आसान होता है। भ्रष्टाचार के माहौल को जड से खत्म करने की कसमें खाने वाले भी अपने यहां अंतत: शांत होकर बैठ जाते हैं। देशवासी अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल जैसों के नाम शायद ही भूल पाएं जो कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार और अनाचार के खिलाफ लडाई लडते नजर आए थे। अन्ना हजारे की टीम के तेवरों देखकर तो ऐसा लगा था कि यह योद्धा देश में बदलाव लाकर ही दम लेंगे। सभी भ्रष्टाचारी जेल की सीखचों के पीछे नज़र आएंगे। देशवासियों को भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति मिल कर रहेगी। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रभावी तस्वीर तो सामने नहीं आयी। हां यह जरूर हुआ कि कुछ चेहरों को सत्ता पाने का सुख हासिल जरूर हो गया। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने आम आदमी पार्टी बनायी और आज वे दिल्ली की सत्ता का मज़ा लूट रहे हैं। अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वैसा चमत्कार नहीं दिखा सके जैसे कि उनके दावे थे। किरण बेदी ने पहले तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के खिलाफ भाजपा की टिकट से विधान सभा चुनाव लडा। पराजित होने के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुरस्कृत करते हुए पांडिचेरी की उपराज्यपाल बना दिया। बाबा रामदेव पर भी मोदी सरकार का भरपूर आशीर्वाद बरसा। उन्हें देश के विभिन्न प्रदेशों में अरबों की जमीनें कौडियों के दाम सौंप दी गयीं। बाबा ने लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के पक्ष में जो धुआंधार चुनाव प्रचार किया और माहौल बनाया उसकी कीमत वसूल कर बता दिया कि वे कितने पहुंचे हुए 'सौदागर' हैं। आंदोलन से सबने कुछ न कुछ हासिल किया, लेकिन अन्ना हजारे के हिस्से में साख खोने और ठगे जाने की पी‹डा ही आयी। अब तो हालात यह हैं कि यदि अन्ना फिर से किसी आंदोलन का बिगुल बजाते हैं तो देशवासी लगभग उसे अनसुना कर देंगे। अवसर का फायदा उठाने वाले चेहरों ने एक ईमानदार देशप्रेमी की साख पर भी बट्टा लगा दिया है।

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