Thursday, February 8, 2018

विकलांग और विकलांगता

कहानी -१ : रविवार का दिन था। नौंवी कक्षा में पढने वाली मालविका पूरी तरह से छुट्टी मनाने के मूड में थी। वह घर से बाहर निकली। घर के पास ही सरकारी गोला-बारूद डिपो था। कुछ दिन पहले ही उस डिपो में आग लगी थी। कई विस्फोटक पदार्थ आसपास के इलाके में बिखरे पडे थे। अचानक मालविका की नजर अपनी जींस की फटी जेब पर गई। उसके मन में उसे फेविकॉल से दुरुस्त करने का विचार आया। फेविकॉल को जींस पर चिपकाने के बाद किसी भारी वस्तु की जरूरत थी। मालविका ने भारी वस्तु की तलाश में अनजाने में एक ग्रेनेड बम को उठाया और घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुई कि ग्रेनेड फट गया। मालविका कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसका शरीर लहूलुहान हो चुका था और आंखों के सामने था दमघोटू अंधेरा ही अंधेरा। उसे फौरन अस्पताल पहुंचाया गया। अस्पताल के डॉक्टर उसकी हालत देख चिन्ता में पड गए। उसके हाथ और पैर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके थे। पूरे दो साल तक अस्पताल में इलाज चलता रहा। कई बार सर्जरी करनी पडी। जान तो बच गई, लेकिन उस हादसे की वजह से उसे अपने दोनों हाथ गंवाने पडे। मालविका की तो दुनिया ही बदल गई। २००२ में जो लडकी भली-चंगी थी, २००४ में अपंग हो चुकी थी। बिना हाथों के वह कैसे जीएगी इसी सवाल ने उसे महीनों तक बेचैन रखा। कभी भी नहीं भुलाये जा सकने वाले इस दर्दनाक हादसे के बाद और कोई लडकी होती तो शायद आत्महत्या ही कर लेती, लेकिन मालविका ने बिना हाथों के ऊंची उडान उडने का फैसला कर लिया। उसने माध्यमिक स्कूल परीक्षा में बतौर प्रायवेट अभ्यर्थी हिस्सा लिया और सहायक की मदद से अच्छे नंबरों से परीक्षा पास करने के पश्चात अर्थशास्त्र में आनर्स की डिग्री ली। पढाई के दौरान ही प्रेरक साहित्य पढने और सामाजिक कार्यों में भी उसकी रूचि बढने लगी। दिल्ली स्कूल से एमएसडब्ल्यू और मद्रास स्कूल से एम.फिल की पढाई पूरी कर मालविका ने कर्मठता, हौसले और जुनून की ऐसी दास्तान लिख दी जिसे जानने और समझने के लिए लोग व्यग्र हो गये। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम तक भी मालविका के पराक्रम की गाथा पहुंची तो उन्होंने उसे राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर सतत आगे बढते चले जाने की प्रेरणा के साथ अपार शुभकामनाएं दीं। राष्ट्रपति का पीठ थपथपा कर उत्साहवर्धन करना मालविका के लिए अभूतपूर्व पुरस्कार था। मालविका को प्रारंभ के संघर्ष भरे दिनों में मां ने कहा था कि आईने के सामने खडी होकर मुस्करा कर देखो तो तुम्हें अपनी सूरत दुनिया में सबसे सुंदर दिखेगी। अधूरे शरीर के साथ जीवन को संपूर्णता रंगों से सजाने की शपथ लेने वाली मालविका जब मंच पर बोलने के लिए खडी होती तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। उसकी प्रेरित करने वाली भाषण कला का सम्मान देश में ही नहीं विदेशों में भी होने लगा। कई विदेशी संस्थाए उसे अपने यहां मोटीवेशन स्पीच (प्रेरक भाषण) देने के लिए निमंत्रित करने लगीं। मालविका कहती हैं कि नकारात्मकता से बचने से कई समस्याएं पलक झपकते ही खत्म हो जाती हैं। कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि उनके साथ बुरा हुआ है या हो रहा है। बस आप अपनी सोच बदल दो तो दुनिया ही बदल जाएगी। गलत मनोभाव ही जीवन की एकमात्र विकलांगता है।
कहानी - २ : नक्सलियों के खिलाफ अपनी जान हथेली पर रखकर लडाई लडनेवाली आदिवासी महिला दशाय बाई को भले ही सारा देश न जानता हो, लेकिन लाल आतंक से त्रस्त हो चुके बस्तर के अधिकांश लोग उन्हें बखूबी जानते-पहचानते हैं। तभी तो वे उन्हें असली शेरनी का दर्जा देते हुए ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि देश की हर नारी दशाय बाई की तरह हिम्मती बन अमन और विकास के शत्रुओं के दांत खट्टे करती नजर आए, जिससे भारतीय महिलाओं की छवि पूरी तरह से बदल जाए। २१ अप्रेल २०१५ को दशाय बाई के पति पांडुरंग की नक्सलियों ने इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वे कभी भी उनके सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हुए। नक्सली गांवों के विकास में रोढा अटकाते हैं और पांडुरंग ने गांव में प्राथमिक शाला, स्वास्थ्य केंद्र, सडक, बिजली और सुरक्षा का सपना देखा था। पांडुरंग सदैव गांववासियों को समझाते थे कि वे नक्सलियों के छल-कपट और फरेब का शिकार न हों। नक्सली उनके हितैषी नहीं, शत्रु हैं। पांडुरंग की हत्या करने के पश्चात नक्सलियों ने मान लिया था कि अब कोई उनकी राह में रोडा बनने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगा, क्योंकि उनसे टकराने का क्या अंजाम हो सकता है इसका उन्होंने पुख्ता संदेश दे दिया है। खूंखार हत्यारे नक्सलियों के इस भ्रम को तोडा दशाय बाई ने और पति के संकल्प को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कमर कस ली। ग्रामीणों को नक्सलियों के झांसे से बचाने के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी देने को तैयार दशायबाई पढी-लिखी तो नहीं हैं, लेकिन बस्तर के दर्द और नक्सलियों के असली सच से पूरी तरह से वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि कौन सच्चा है और कौन झूठा। उन्होंने यह भी जान लिया है कि आदिवासियों में जागृति कैसे आयेगी और उनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान कैसे हो सकता है। वे ग्रामीणों को शासन की विभिन्न योजनाओं से अवगत कराते हुए उनसे जोडने का प्रयास करती हैं। यदि कोई समस्या आती है तो समाधान के लिए ब्लाक मुख्यालय से लेकर जनपद मुख्यालय पहुंचती हैं। ग्रामीणों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजागरण अभियान और संगोष्ठियों का आयोजन करती हैं। नक्सली आये दिन धमकी देते रहते हैं कि वह चुपचाप घर में बैठ जाए नहीं तो उसका भी उसके पति जैसा हश्र होगा। लेकिन वह उनकी धमकियों की किंचित भी परवाह न करते हुए पति के अधूरे काम को पूरा करने में तल्लीन हैं। सडक, बिजली, पानी और चिकित्सा सुविधाओं के लिए उनकी मेहनत धीरे-धीरे रंग भी लाने लगी है। जिस तरह से ग्रामवासी उसकी सुनते हैं और उसकी ढाल बने नजर आते हैं उससे नक्सलियों को भी लगने लगा है कि अब इस शेरनी का रास्ता रोक पाना आसान नहीं है। नक्सलियों के आतंक की वजह से वर्षों तक पूरी तरह विकास की धारा से वंचित रहे बस्तर की अब धीरे-धीरे तस्वीर बदल रही है। कई महिलाएं आदिवासी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का साहस जुटाने लगी हैं। कभी नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित रहे दंतेवाडा में आदिवासी महिलाएं ई-रिक्शा दौडा कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। नक्सलियों की दरिंदगी की हत्यारी दास्तानें किसी से छिपी नहीं हैं। दलितों, शोषितों, किसानों, आदिवासियो को उनके हक दिलाने और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाने के नाम पर वर्षों पहले शुरू किया गया आंदोलन आज शोषकों और लुटेरों का संगठित गिरोह बनकर रह गया है। व्यापारियों, उद्योगपतियों, नेताओं और नौकरशाहों से वसूली करने वाले कई नक्सली लाखों-करोडों में खेलते हैं। उनके पास कारें हैं, जेवर हैं, बंगले हैं और उनके बच्चे नामी-गिरामी स्कूलों और कॉलेजों में पढते हैं। कई नक्सली कमांडर करोडपति-अरबपति बन चुके हैं। अभी हाल ही में बिहार और झारखंड के नक्सली कमांडर संदीप यादव की लाखों की चल और अचल संपत्ति ईडी ने जब्त की है। संदीप यादव के साथ उसकी पत्नी, बेटा और दामाद की वो सम्पत्ति भी जब्त की गयी जिसे-दरिंदे ने उनके नाम से खरीदा था। ८८ नक्सली वारदातों को अंजाम देने वाले इस धूर्त पर पांच लाख का इनाम रखा गया। उसने सुरक्षा बलों पर कई हमले किये जिसमें लगभग डेढ दर्जन सुरक्षाबल के जवान शहीद हो चुके हैं।
कहानी -३ : छत्तीसगढ के ही बस्तर जिले के एक स्कूल में शिक्षिका हैं... मैडम फुलेश्वरी देवी। यह मैडम नशे की लत की शिकार हैं। शराब के नशे में टुन्न होकर बच्चों को पढाती हैं। होश में वह कम ही नजर आती हैं। यह रहस्य तब खुला जब पिछले दिनों स्कूल का इंस्पेक्शन करने के लिए एक टीम वहां पहुंची। टीम यह देखकर स्तब्ध रह गई कि शिक्षिका नशे में धुत्त थीं और जैसे-तैसे बच्चों को पढा रही थीं। टीम को लोगों ने बताया कि यह महिला टीचर तो प्रतिदिन शराब पीकर ही स्कूल पढाने आती हैं। टीम के समक्ष टीचर ने स्वयं स्वीकार किया कि शराब पीना उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। बिना पिये बच्चों को पढाना उसके लिए संभव नहीं है। वैसे भी शराब पीना उनकी संस्कृति का हिस्सा है। मैडम के शराब के प्रति लगाव के पीछे का कारण सुनकर इंस्पेक्शन टीम के सदस्य भी बगलें झांकने लगे। नशे की गुलाम हो चुकी फुलेश्वरी देवी को यह भी याद नहीं रहा कि वे एक शिक्षिका हैं। उनके रहन-सहन और क्रियाकलापों का बच्चों पर प्रभाव न पडे ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लेकिन उन्हें इससे क्या लेना-देना। अपनी कमजोरी और बुराई को छुपाने के लिए अच्छा-खासा बहाना भी उन्हें मिल गया है। दरअसल, यह नशेडी शिक्षिका ही असली विकलांग है जिसे अपने वास्तविक कर्तव्य का ही ज्ञान नहीं है। शिक्षिका ने अगर अच्छे और सार्थक मनोभावों के साथ अपने दायित्व को निभाने की सोची होती तो ऐसी शर्मसार करने वाली विकलांगता के मोहपाश में फंस कर नहीं रह जातीं।

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