Thursday, March 15, 2018

वो का जाने पीर पराई...

पिता की दिली तमन्ना थी कि उनके बेटा-बेटी बडा होकर इंजीनियर बनें। कुदरत के खेल बडे निराले हैं। आदमी कुछ चाह रहा होता है और वह एकाएक अकल्पनीय दृश्य उपस्थित करते हुए यह संदेश दे देती है कि तुम्हारी चाहतें और इच्छाएं अपनी जगह हैं। मेरे फैसले तो अटल हैं। तुम मात्र मूकदर्शक ही हो। दिल की बीमारी के कारण पिता का अचानक निधन हो गया। शव आंगन में पडा था और बेटा-बेटी को ४५ किलोमीटर दूर परीक्षा केंद्र में दसवीं की परीक्षा देने जाना था। दोनों की आंखों से झर-झर कर आंसू बह रहे थे। बच्चों को पिता के सपने और परीक्षा की भी चिन्ता थी। तीनों लिपटकर रोते रहे। मां ने बच्चों को परीक्षा की याद दिलायी। दोनों पिता के शव के पास गए। चरणस्पर्श किया और आंखों में आंसू लिए परीक्षा देने के लिए चल दिए। उनके आने तक घर वालों ने इंतजार किया और शाम को अंतिम संस्कार किया गया। परीक्षा देकर लौटे बेटे ने मुखाग्नि दी। रिश्तेदारों, मित्रों और आसपास के लोगों की आंखों से अश्रुधारा बहती रही। रात को बेटा-बेटी अगले दिन की परीक्षा की तैयारी में जुट गए। अचानक अपने पति को खोने वाली मां बच्चों की मनोभावना को अच्छी तरह से समझ रही थी।
मां-बाप की इच्छाओं को पूरा करने का तीव्र ज़ज्बा रखने वाली संतानों की जितनी तारीफ की जाए, कम है। यह भी देखने में आता है कि बच्चों को गलत राह पकडने में देरी नहीं लगती। भटकाने वालों की मायावी चालें युवाओं के जीवन से खिलवाड करने को आतुर रहती हैं। देश के असंख्य किशोर और युवा नक्सलियों और आतंकियों का अनुसरण कर अपनी जिन्दगी तबाह कर रहे हैं। उनके बूढे असहाय मां-बाप पर क्या बीतती होगी इसकी उन्हें पता नहीं चिन्ता क्यों नहीं सताती! छत्तीसगढ, महाराष्ट्र, उडीसा, झारखंड आदि के कई वृद्ध माता-पिता वर्षों से अपने उन बच्चों के इंतजार में दिन काट रहे हैं जो वर्षों से नक्सलवादियों के बनाये प्रलोभन के घने जंगल गुम हो गये हैं। आज से लगभग सत्रह वर्ष पूर्व नक्सलियों के फैलाये जाल का शिकार होकर बंदूक थामने वाले बस्तर के रहने वाले युवक नीरू के उम्रदराज माता-पिता ने छत्तीसगढ की सीमा पर गढचिरोली (महाराष्ट्र) व आसपास के इलाकों में जगह-जगह पर पोस्टर चिपकाये हैं। जिनमें बेटे से लौट आने की फरियाद की गई है :
"बूढी हुई मां,
झुकी कमर,
अब तो लौट आ।
करना न तू देर
सांसें चंद बाकी
अब तो लौट आ।
पथरा गई है आंखें
इक नजर देखने को
अब तो लौट आ।"
गंभीर रूप से बीमार बिस्तर पर पडी मां को यकीन हैं कि उसकी आवाज उसके बेटे तक जरूर पहुंचेगी। तभी तो उसके कांपते ओंठों से बस यही शब्द निकलते हैं- मेरा नीरू जरूर आएगा। छडी के सहारे बडी मुश्किल से चल पानेवाली मां ने बेटे के नाम आंसुओं से भीगा एक खत भी लिखा हैं :
मेरे नीरू,
दूर से ही सही, मेरा और अपनी मां का आशीर्वाद लेना। भगवान जगन्नाथ की कृपा से तू जहां भी हो, अच्छे से हो, यही हमारी आशा है। पिछले १७ साल से हम तुम्हारे वापस आने की राह देख रहे हैं। अब भी हमे आशा है कि तू हमारे पास सुरक्षित वापस आएगा। सभी माता-पिता की इच्छा होती है कि वृद्धावस्था में उसका बेटा साथ में हो। यही इच्छा हम दोनों पति-पत्नी की भी है। मुझे वह दिन कल जैसा ही लग रहा है, जब तुमने अपनी मां का अस्पताल में इलाज कराया था। तुम्हारे जाने के बाद से हमारी स्थिति बहुत खराब हो गई है। तुम्हें याद कर रो-रोकर हमारा बुरा हाल है। इसी वजह से तुम्हारी मां ने बिस्तर पकड लिया है। हमारा पूरा घर टूट गया है। पैसे खत्म हो गए हैं। झोपडी में रहने को मजबूर हैं। यदि तू झोपडी को देखेगा तो आंखों में आंसू आ जाएंगे। हमें आशा है कि तू वह रास्ता छोडकर हमारे पास वापस आ जाएगा। हम तुम्हारे आने की राह देख रहे हैं। तू ही अपनी मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ पाएगा। हमारा टूटा घर भी बना पाएगा। हमारी आशा को निराश मत करना।
तुम्हारे हताश और दुखी माता-पिता
नरहरि राउत व सरस्वती राउत।
किसी भी माता-पिता के मन में अपनी औलाद के प्रति असीम स्नेह होता है। नरहरि और सरस्वती का बेटा नीरू उनसे सत्रह वर्षों से दूर है। वे उनसे मिलने के लिए तडप रहे हैं। ऐसे और भी कई मां-बाप हैं जिन्हें नक्सलियों की आतंकी दुनिया में भटकते अपने बेटे-बेटियों का इंतजार है। सोचिए, जब किसी का बच्चा सुबह स्कूल जाता है और शाम को तय समय पर नहीं लौटता तो वे कितने व्याकुल और बेचैन हो जाते हैं। जब किसी के बच्चे का अपहरण हो जाता है तो वह उसे छुडाने के लिए कुछ भी देने और करने को तैयार हो जाता है। धनवान तो मुंहमांगी फिरौती देने में भी देरी नहीं लगाते। जिनके बच्चे वर्षों से नक्सली षडयंत्र के शिकार बन उनसे दूर हो गए हैं उन पर क्या बीतती होगी। नक्सलियों के द्वारा गरीब आदिवासियों के बच्चों का अपहरण कर लेने पर कहीं से भी कोई आवाज नहीं उठती। उनकी व्याकुलता और पीडा को कभी समझा ही नहीं जाता। यह कितनी हैरत की बात है कि हम काल्पनिक कहानियों पर तो यकीन कर लेते हैं और विचलित हो जाते हैं, लेकिन इस सुलगती हकीकत पर नाममात्र की चिन्ता भी नहीं जताते। किसी ने सच ही कहा हैं :
"जाके पांव न फटी बिंवाई,
वो का जाने पीर पराई..."
नक्सलवाद का जन्म पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलवाडी में गरीब किसानों को बडे खेतिहर किसानों के शोषण जाल से मुक्त कराने और उनके जीवन में सुधार लाने के उद्देश्य से हुआ था। प.बंगाल से शुरू हुए नक्सलवाद ने धीरे-धीरे उडीसा, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक तक अपनी पैठ जमा ली। सरकार की ढुलमुल नीतियों ने भी इसके फलने-फूलने में खासी भूमिका निभायी। नक्सलवादी समर्थक भी कहते नहीं थकते कि सत्ताधीशों की मक्कारी के चलते प्रजातंत्र के विफल हो जाने के कारण ही नक्सली आंदोलन जन्मा। लेकिन इस आंदोलन का हश्र आज हमारे सामने है। नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष पुलिस दल के जवानों पर घात लगाकर जितने हमले किए और खून खराबा किया उससे हर राष्ट्रप्रेमी का खून बार-बार खौल जाता है। अपने परोपकारी लक्ष्य को पूरी तरह से विस्मृत कर हत्यारे बन चुके नक्सलियों ने उन गरीब आदिवासियों का जीना हराम कर दिया है जिनके जीवन में बदलाव लाने के दावों के साथ नक्सलवाद की नींव रखी गई थी। खून की होली खेलते चले आ रहे हिंसक नक्सलियों ने न जाने कितनी लडकियों को भी अपने साथ जबरन जोडकर उनका यौन शोषण किया और उनके जीवन को नर्क से भी बदतर बनाकर रख दिया है।

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