Thursday, March 1, 2018

कोई साजिश तो हो ही रही है

पिछले साल होली से कुछ हफ्ते पहले की बात है। एक छोटा-सा मंच बना था। उस पर खडा वह युवक बोले ही चला जा रहा था। उसकी उत्तेजना देखते बनती थी। उसके इतिहास के ज्ञान ने छोटे से मोहल्ले के श्रोताओं को अचंभित कर दिया था : "मेरे दोस्तो, सच तो यह है कि भारत के इतिहास की कुछ डरावनी तारीखें ऐसी हैं जिन्हें कभी भुलाया ही नहीं जा सकता। ३० जनवरी १९४८ को सर्वधर्म समभाव के पथ के सच्चे राही महात्मा गांधी की जिस नत्थुराम गोडसे ने निर्मम हत्या की वह भारत का ही रहने वाला था। गोडसे ने महात्मा पर गोलियां बरसाते समय सोचा होगा कि उनका नाम हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा। वह यह भूल गया था अच्छाई और अच्छे लोगों की कभी मौत नहीं होती। वे लोगों के दिलों पर राज करते हैं। लेकिन यह देखकर अफसोस भी होता है कि अपने देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गोडसे के प्रति सम्मान और सहानुभूति रखते हैं। इनका बस चले तो देशभर में बापू के हत्यारे की प्रतिमाएं लगवा दें और मंदिर बनवा दें। यह कितनी शर्म की बात है कि भारतवर्ष में हत्यारों के नाम को जिन्दा रखने वाले भक्त छाती तानकर चलते हैं।
६ दिसंबर १९९२ में हुए बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने भी आपसी भाईचारे की चूलें हिलाते हुए हिन्दू-मुस्लिम के बीच की मधुरता का हरण कर अविश्वास की दीवारें खडी कर दीं। ऐसी ही कई घटनाएं हैं जिन्होंने देश के माहौल को जहरीला बना दिया। इंदिरा जी की हत्या के बाद देश की राजधानी दिल्ली के साथ-साथ देश भर में निर्दोष सिखों के खिलाफ हुए सुनियोजित दंगों की याद करने से ही दिल दहल जाता है। गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों ने भी मानवता का सिर झुकाकर रख दिया। हर बडे दंगे ने राजनीतिक दलों और नेताओं की किस्मत चमकायी। कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा ने देश और प्रदेशों की सत्ता पायी। सच कहें तो राजनेताओं ने दंगों को खूब भुनाया। कई बार नेताओं ने ही देशवासियों को आपस में लडवाया है और दंगे करवा कर अपना मतलब साधा है। सत्ता के भूखे नेताओं की फितरत से वाकिफ कवि गोरख पाण्डे ने इस शर्मनाक सच्चाई को इन पंक्तियों में बखूबी पेश किया है:
"इस बार दंगा बहुत बडा था,
खूब हुई खून की बारिश,
अगले साल अच्छी होगी,
फसल मतदान की।"
जब भी चुनाव करीब आते हैं तो सत्तालोलुपों को गरीब, गरीबी, दलित, बेरोजगार, गाय और मंदिर की याद आ जाती है। नेताओं से कम-अज़-कम यह तो पूछा जाना चाहिए कि उनकी निगाह में किसकी कीमत ज्यादा है? गाय की या इंसानों की। मंदिर की या मानवों की। वर्षों तक सत्ता का सुख भोगने के बाद यह देश की गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा तो दूर नहीं कर पाए, लेकिन हिन्दूओं और मुसलमानों को आपस में लडाने में लगे हुए हैं। लडने वाले भी अभी तक यह नहीं समझ पाए कि उन्हें गरीबी और बदहाली से लडना है या आपसी भाईचारे की हत्या का गुनाह करते रहना है। कौन से धर्मग्रंथ में आतंकी राह पर चलने और एक-दूसरे का खून बहाने का संदेश दिया गया है? किसके बहकावे में आकर लडना-मरना कहां की अक्लमंदी है? यहां फिर मुझे किसी ज्ञानी की यह पंक्तियां याद आ रही हैं :
"मैंने गीता और कुरान को
कभी लडते नहीं देखा
जो लडते हैं उन्हें
कभी पढते नहीं देखा।"
शासक कहते हैं कि देश बदल रहा है। बदलाव हमें भी दिखायी दे रहा है :
]"काले पैसे की नुमाइश हो रही है,
सब्र की खूब आजमाइश हो रही है,
छूट दे रखी है चमन को लूटने की,
ये बाज़ाहिर कोई साजिश हो रही है।"
अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं। आपसी टकराव बढता चला जा रहा है। सहनशीलता खत्म होती चली जा रही है। भीडतंत्र भेडतंत्र में तब्दील हो चुका है। कानून के रखवाले अपराधियों के समक्ष बौने दिखने लगे हैं। देश के वर्तमान हालात पर गजलकार उदयनारायण सिंह की ही यह पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं :
"यह रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिन्दुस्तां कहां है अब हिन्दोस्तान में
इन बादलों की आंख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में।"
आप ही बताएं कि वो हिन्दुस्तान कहां है जिसकी आजादी के लिए शहीदों ने कुर्बानियां दी थीं। सपना तो यह देखा गया था कि सभी धर्मों को मानने वाले एक साथ एकजुट होकर रहेंगे, लेकिन यहां तो :
"कोई हिन्दू है कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। सबने इंसान न बनने की कसम खाई हैं।"
लोगों को होशो-हवास में लाने के लिए दिन-रात गर्जना करने वाले उस युवक की पिछले साल ही ऐन होली के दिन हत्या कर दी गई। अखबारों में छपी खबरों से पता चला कि गली-कूचों और शहर के चौराहों पर खडे होकर देश के वर्तमान हालात पर अपना गुस्सा और चिन्ता व्यक्त करने वाले इस युवक की शब्दावली निरंतर पैनी होती चली जा रही थी। वह साम्प्रदायिकता को जिन्दा रखने के अभिलाषी राजनेताओं को बेखौफ बेनकाब करने लगा था। उसने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ भी खुली जंग छेड दी थी। वह कई लोगों की आंखों में चुभने लगा था। इसलिए उसका खात्मा कर दिया गया।

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