Thursday, March 29, 2018

मानहानि का तमाशा

अन्ना हजारे। पूरा नाम किसन बाबूलाल हजारे। कम ही लोग होंगे जो इस नाम से वाकिफ न हों। कुछ वर्ष पूर्व इस शख्स ने रामलीला मैदान पर आमरण अनशन कर तत्कालीन कांग्रेस गठबंधन की सरकार की चूलें हिलाकर रख दी थीं। यह कहना गलत नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी और भाजपा को केन्द्र की सत्ता दिलवाने में इस सत्याग्रही ने बहुत ब‹डी भूमिका निभायी। अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय भी अन्ना को जाता है। उन्हीं के मंच ने आम आदमी पार्टी को जन्म दिया। अन्ना की प्रभावी लडाई से ऐसा प्रतीत होने लगा था कि देश और प्रदेशों में अवश्य बदलाव आयेगा। अन्ना की सभी मांगे पूरी होंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। सात साल बाद एक बार फिर से ८१ वर्षीय वृद्ध अन्ना हजारे को उसी रामलीला मैदान पर आमरण अनशन के लिए बैठना पडा। मंच पर वो रौनक नजर नहीं आयी, लेकिन मांगें वही की वही थीं। न जन लोकपाल आया ना ही लोकायुक्त की नियुक्ति की गयी। किसानों की आत्महत्याओं की संख्या बढती चली जा रही है। बूढी काया के फिर से आमरण अनशन पर बैठने के बाद पुराने चेहरों ने जिस तरह से उनकी सुध-बुध लेना जरूरी नहीं समझा उससे स्पष्ट हो गया कि स्वार्थ पूरे होते ही अन्ना उनके लिए निरर्थक हो गये। पागलों की तरह अन्ना के आगे-पीछे दौडने वाले न्यूज चैनलों ने भी एकदम किनारा कर लिया। अन्ना तो वही हैं, लेकिन वक्त बदल गया है। पिछली बार जब उन्होंने आमरण अनशन किया था तो हजारों का हुजूम होता था और ६०-६५ कैमरे लगे रहते थे, लेकिन इस बार चंद चेहरे दिखे और एकाध कैमरा टिका कर खानापूर्ति की गयी। कहावत है कि 'दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है।' अन्ना ने इस बार स्पष्ट कह दिया था कि वही लोग उनके आंदोलन का हिस्सा बनेंगे जो कभी राजनीति में नहीं जाएंगे। इस बार अन्ना को अरविंद, कुमार विश्वास, सिसोदिया आदि की बहुत याद आई होगी। यही लोग ही थे जिन्होंने उनका मंच लूट लिया था। अरविंद केजरीवाल को अगर अन्ना का साथ नहीं मिला होता तो वे राजनीति के नायक की तरह नहीं उभर पाते। अन्ना के मंच से ही उन्होंने भ्रष्टाचारियों को ललकारने का अभियान चलाया था। आम आदमी के चेहरे-मोहरे और पहनावे वाले केजरीवाल के तूफानी भाषणों का दिल्ली ही नहीं, देश की जनता पर भी काफी प्रभाव पडा था। लोगों को लगने लगा था कि यही वो निर्भीक शख्स है जो पथभ्रष्ट राजनीति को सही रास्ते पर लाने का दमखम रखता है। सत्ता पाने के बाद यह कभी बहकेगा नहीं। कोई भी लालच इसको खरीद नहीं पायेगा। जोर-शोर के साथ देश के दिग्गज नेताओं पर आरोप पर आरोप लगाने और सबूत के पुलिंदे लहराने वाले अरविंद केजरीवाल ने भी कभी कल्पना नहीं की थी कि उनकी आम आदमी पार्टी को हाथों हाथ लिया जाएगा और एक दिन ऐसा भी आयेगा जब वे दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे। उन्होंने मुख्यमंत्री बनने से पहले और बाद में विरोधी नेताओं और उनके परिवारों के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनाचार के ऐसे-ऐसे आरोप लगाये कि लोग दंग रह गए। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को तो उन्होंने उम्र भर के लिए जेल में सडाने की कसम खाई थी। वे अपने भाषणों में यह बताने से नहीं चूकते थे कि वे कभी तथ्यहीन आरोप नहीं लगाते। पूरे सबूत जुटाने के बाद ही अपनी जुबान खोलते हैं। यही वजह थी कि लोगों को लगने लगा था कि  देश को सच्चा राजनेता मिलने के साथ-साथ एक ऐसा योद्धा मिल गया है जिसकी वर्षों से तलाश थी। दिग्गज राजनेताओं और बडे-बडे उद्योगपतियों को भ्रष्टाचारी, ठग और लुटेरा बताने वाले केजरीवाल को देश के मीडिया ने भी रातोंरात हीरो बना दिया था। हर न्यूज चैनल पर जैसे उनका कब्जा हो गया था। केजरीवाल ने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, अरूण जेटली, पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल उनके पुत्र अमित सिब्बल, पंजाब के अकाली दल के नेता विक्रम मजीठिया से लेकर न जाने कितने नेताओं को तेजाबी आरोपों की बौछारों से नहलाया। गडकरी को तो केजरीवाल के संगीन आरोपों के बाद भाजपा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र तक देना पडा था। अरूण जेटली की भी काफी बदनामी हुई थी। तभी तो उन्होंने केजरीवाल और उनके साथियों पर कई करोड की मानहानि का मुकदमा दर्ज कर रखा है। नतीजतन वे तकरीबन ४० मुकदमो की गिरफ्त में आ गए। हालत इतने गंभीर हो गए कि उनके सामने यह समस्या खडी हो गई कि मुख्यमंत्री के दायित्व को निभायें या फिर मुकदमों से निपटने के लिए अपना कीमती समय जाया करें। ऐसे में उन्होंने अपना दिमाग लडाया तो उन्हें मानहानि के मुकदमों से मुक्ति पाने के लिए माफी मांग लेना ही सबसे आसान रास्ता लगा। इससे वे न्यायालयों के चक्कर काटने से तो बच जाएंगे। पंजाब के अकाली दल के नेता विक्रम मजीठिया, जिन्हें उन्होंने नशे का सौदागर घोषित कर जेल में पहुंचाने की हुंकार लगायी थी, से माफी मांग ली है। इसके साथ ही नितिन गडकरी, कपिल सिब्बल के पुत्र से भी लिखित माफी मांग कर यह संकेत दे दिए हैं कि वे उन सभी नेताओं, उद्योगपतियों से माफी मांगने से संकोच नहीं करने वाले, जिनकी कभी उन्होंने डंके की चोट पर बदनामी की थी। कभी आरोपों के कीचड उछालकर नायक बनने वाले केजरीवाल के झुकने के पीछे का असली सच यही है कि उन्होंने बिना गहराई से अध्ययन किए सुनी-सुनायी बातों के आधार पर आरोप तो लगा दिए, लेकिन जब सबूत पेश करने की बारी आयी तो उन्हें नानी याद आ गई। अगर उनके पास पुख्ता सबूत होते तो वे माफी मांगने की सोचते भी नहीं। वे जानते थे कि जनता का दिल कैसे जीता जा सकता है। उन्होंने सत्ता पाने के लिए तब वही किया जो इस देश के धूर्त नेता करते आए हैं। माफी मांगकर वे यह दिखाना चाहते हैं कि आज की तारीख में देश की राजनीति में उन सा साहसी और कोई नेता नहीं है। वे इस भ्रम के साथ अपना सीना ताने हैं कि माफी के खेल से उनके कद में बढोत्तरी हुई है। सवाल यह है कि क्या वे अब जब किसी पर आरोप लगायेंगे तो क्या लोग उन पर यकीन कर लेंगे? यही साख ही तो किसी भी राजनेता की असली पूंजी होती है जो उन्होंने खो दी है। देश के अन्य बडबोले बेसब्रे नेताओं को अरविंद के माफीनामों की झडी से सीख ले लेनी चाहिए कि वे बिना पुख्ता सबूतों के अपने विरोधियों पर कीचड उछालने से बचें। भले ही राजनीति में यह कार्य आम माना जाता हो, लेकिन अदालत में तो साक्ष्य पेश करने ही पडते हैं अन्यथा जेल और जुर्माने की चोट खानी ही पड सकती है। एक सच यह भी है कि अपने यहां के सभी नेता दूध के धुले नहीं हैं। अरविंद ने जिन्हें निशाना बनाया उनमें कुछ तो बेहद कुख्यात रहे हैं। कुख्यात भ्रष्टाचारी भी जानते है कि आरोपों को कोर्ट में सिद्ध करना बेहद मुश्किल होता है इसलिए वे खुद को पाक साफ दिखाने के लिए करोडो रुपये की मानहानि का मुकदमा करने में देरी नहीं लगाते।

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