Thursday, April 19, 2018

यह कैसी पाशविकता?

बलात्कार और बलात्कारियों के खिलाफ कितना कुछ लिखा गया। सुधर जाने की चेतावनियां दी गर्इं। नपुंसक बनाने का डर दिखाया गया। चौराहे पर फांसी देने की भी मांग की गयी। हजारों बार कैंडल मार्च निकाले गये। लेकिन कोई फर्क नहीं पडा। लिखना, बोलना, चीखना, चिल्लाना जैसे सब व्यर्थ। अजय पुनिया लिखते हैं :
'बहन बेटी की इज्जत लुटते हुए
एक जमाना... हो गया है
बलात्कारी सब पकडे नहीं गये हैं
एक जमाना... हो गया है
रपट दर्ज नहीं... पुलिस को बिकते
एक जमाना... हो गया है
हवस के शहंशाह पुजते आ रहे
इक जमाना... हो गया है
हम सब पक्के हिजडे बन चुके हैं
इक जमाना... हो गया है।'
भारतीय जनता पार्टी के एक विधायक पर एक नाबालिग ने दुराचार का आरोप लगाया। सत्ता और पुलिस ने विधायक का साथ देकर हर किसी को निराश किया। लडकी के मां-बाप की किसी ने फरियाद नहीं सुनी। उलटे पिता को ही जेल में ठूंस दिया गया। जहां उन्हे इस कदर यातनाएं दी गर्इं कि उनकी मौत हो गई।
जम्मू के कठुवा में आठ साल की बच्ची के साथ कई दिनों तक हुए बलात्कार और उसकी बर्बर हत्या ने पूरी मानवता को स्तब्ध करके रख दिया। देश शर्मसार हो गया। राजधानी दिल्ली में सिरफिरे ने तमंचे के बल पर एक ११वीं कक्षा की छात्रा को अगवा किया और अपने ही घर में दस दिनों तक कैद कर उससे दुष्कर्म करता रहा। वह छात्रा के हाथ, पैर, मुंह बांधकर उसे बेरहमी से पीटता भी रहा। देश में इस तरह के दुराचारों की कतार-सी लग गई है। कोई भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब बेटियों पर बलात्कार की खबरें इंसान होने की शर्मिन्दगी का अहसास न कराती हों। बलात्कार पर बलात्कार का शिकार होतीं छोटी-छोटी मासूम बच्चियों के बिलखते मासूम चेहरे नींद उडा देते हैं। मन में यह विचार भी आता है कि जहां पर पिता ही दुराचारी बन बेटियों की अस्मत लूटते हों वहां शाब्दिक प्रहार कितने असरकारी होंगे। दूसरों की मां, बहन, बेटी को वासना के तराजू में तौलने वालों के लिए शब्दों और रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रही। एक फिल्म अभिनेत्री ने रहस्योद्घाटन किया है कि उसका अक्सर ऐसे मर्दों से सामना होता रहता है जो दिन में तो उसे बहन कहते हैं और रात में साथ सोने की मांग करते हैं। ऐसे चरित्रहीन लोगों के कारण ही कभी-कभी अच्छे और सच्चे चेहरों को शंका और अविश्वास के कटघरे में खडा कर दिया जाता है। तामिलनाडु के उम्रदराज राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित जिस हैरतअंगेज अनुभव से गुजरे हैं उसे वे जीवन भर नहीं भूल पाएंगे। हुआ यूं कि एक महिला पत्रकार के सवाल पर प्रसन्न होकर उन्होंने उसका गाल थपथपा दिया। इसके पीछे उनका उद्देश्य पत्रकार की सराहना और प्रोत्साहित करना था। वे वर्षों तक पत्रकारिता से जुडे रहे हैं। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि वात्सल्य को वासना समझ लिया जाएगा और हंगामा हो जाएगा। उन्होंने फौरन पत्रकार से यह कहते हुए माफी मांग ली कि आप तो मेरी पोती जैसी है। एक पत्रकार होने के नाते हौसला-अफजाई के लिए मैंने आपका गाल थपथपाया था।
खरगोन के डीआइजी ए.के. पाण्डेय जैसे तमाम लोग आज बेहद गुस्से में है, उनका क्रोध इन शब्दों में सामने आया है : "बलात्कार विरोध प्रदर्शन, कैंडल मार्च से नहीं बल्कि बलात्कारियों को कठोरतम सजा दिलाने से ही खत्म होंगे। यह कितनी शर्म की बात है कि जब बलात्कारियों को सजा देने की बात आती है तो इसी देश के कुछ सफेदपोश कहते हैं कि लडकों से तो गलती हो ही जाती है। इन नासमझों, बेचारों को फांसी देने की सोचना ही उनके साथ अन्याय करना है। एक सवाल यह भी है जब कोई बलात्कारी हमारा करीबी होता है तो हम उसका साथ देने के लिए खडे हो जाते हैं। ऐसा कम ही देखने में आया है जब बलात्कारी का उसके परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों और समाज ने बहिष्कार किया हो। यदि वास्तव में बलात्कार का विरोध करना है तो उन लोगों का भी बहिष्कार करना होगा जो बलात्कारी को बचाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाते हुए दुराचारियों के पक्ष में खडे हो जाते हैं। एक जाने-माने नेताजी की दलील है कि पिछले कई वर्षों से बलात्कार होते चले आ रहे हैं। यह कोई नयी बात नहीं है।" दरअसल, नेता भूल जाते हैं कि ऐसे बयान दुराचारियों के पक्ष में जाते हैं और उनका मनोबल बढाते हैं। बलात्कारी हिन्दू है या मुसलमान यह कहकर जनता को गुमराह किया जा रहा है। भारतवासी चाहते हैं कि देश में भरपूर 'फास्ट ट्रैक कोर्ट' हो जहां बलात्कारी को छह महीने में ही फांसी की सजा हो जानी चाहिए। देखने में तो यह आ रहा है कि जो बेटियां बलात्कार की शिकार हो रही है उन्हीं के परिजनों को कई तकलीफें झेलनी पडती है। बलात्कारी आराम से रहते-खाते रहते हैं और पीडितों को ऐसे लडाई लडनी पडती है जैसे उन्हीं ने कोई अपराध किया है। देश में लोग सुलग रहे हैं। प्रसिद्ध व्यवसायी आनंद महिन्द्रा का रोष-आक्रोष इन शब्दों में सामने आया है : जल्लाद का काम कोई ऐसा नहीं होता कि कोई खुशी-खुशी करना चाहे। लेकिन बच्चियों के साथ रेप और हत्या करने वालों को सजा देने के लिए मैं बिना हिचक जल्लाद बनने को तैयार हूं।
देश की सजग महिलाओं ने फेसबुक और वाट्सएप में जितना खुलकर इन दिनों लिखा उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। मुंबई की कवयित्री डॉ. प्रमिला शर्मा के अंगारों जैसे तपाने और सचेत करने वाले यह अक्षर समाज, सत्ता और व्यवस्था के निकम्मेपन और तमाशेबाजी पर भी जबर्दस्त प्रहार हैं:
ओह बिटिया,
तुम थी सिर्फ़ आठ साल की,
तुम्हें नहीं पहचान थी मनुष्य के रूप में भेडियों की खाल की।
तुम किस धर्म और जाति की हो?
यह सवाल कोसों दूर था,
सिर्फ़ तुम्हारा लडकी होना ही सबसे बडा क़ुसूर था।
अगर उन राक्षसों को होती सिर्फ़ जातीय दुश्मनी,
तो उनकी करनी नहीं होती इतनी घिनौनी। अगर तुम लडकी नहीं, लडके के रूप में इस संसार में आई होती,
क्या तब भी उन नर पिशाचों ने ऐसी ही पाशविकता अपनाई होती?
तुम्हारे साथ हुआ है दुनिया का क़्रूरतम अत्याचार,
समाज में छटपटाहट तो है,
लेकिन तुम्हें न्याय दिलाने में है लाचार।
यही लाचारी गीदडों को निडर बनाती है
और हर दूसरे दिन एक निर्भया समाचार पत्रों के मुख पृष्ठ पर आती है।
अब यह प्रवृत्ति छोडनी होगी,
अपनी चुप्पी तोडनी होगी।
जब तक अपनी चरम पर नहीं पहुँचेगा आक्रोश,
तब तक सिस्टम यूँ ही पडा रहेगा बेहोश।
नारियों में अब निर्भया को निर्भय समाज दिलाने का जगाना होगा जुनून,
तभी गुनहगारों को फ़ौरन फाँसी पर लटकाने का बन पाएगा क़ानून।

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