Thursday, July 19, 2018

अखबार, पत्रकार और व्यापार

अब लोग यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि आज के अधिकांश पत्रकार, संपादक बिकाऊ हो गये हैं। उनका जनपक्षधर पत्रकारिता से कोई वास्ता नहीं रहा। उन्हें भ्रष्ट नेताओं, उद्योगपतियों, राष्ट्रद्रोही तत्वों, सत्ता के दलालों और खतरनाक माफियाओं की आरती गाने में कोई लज्जा नहीं आती। देश में कुछ ही ऐसे समाचार पत्र हैं जो सच का दामन थामे हुए हैं, लेकिन अधिकांश तो एक पक्षीय, आधी-अधूरी और भ्रामक खबरें प्रकाशित कर पत्रकारिता को कलंकित करने में लगे हैं। इन अखबारों को हाथ में लेते ही तुरंत यह समझ में आ जाता है कि इनके मालिक कौन हैं। उनकी सोच क्या है। वे किस राजनीतिक दल के प्रति हद से ज्यादा वफादार हैं। कहने और लिखने को तो यह निष्पक्षता और निर्भीकता का भरपूर दावा करते हैं, लेकिन इनका खबरें प्रकाशित करने का अंदाज बता देता है कि यह किसके साथ हैं और किसके दबाव में हैं। इन अखबारों में सिर्फ और सिर्फ मालिकों की चलती है। संपादक तो नाम भर के लिए होता है जिसके लिखे पर दूसरों का नाम जाता है। मैं ऐसे कुछ अखबार मालिकों को बहुत करीब से जानता हूं जो पढने-लिखने में शून्य हैं, लेकिन उनके नाम और फोटो के साथ ऐसी-ऐसी संपादकीय और लेख छपते हैं जो तुरंत यह विश्वास दिला देते हैं कि इन्हें तो किसी विषय के जानकार विद्वान ने ही लिखा है। कार्पोरेट घरानों के अखबारों में काम किसी का और नाम किसी का नयी बात नहीं है। सच तो यही है, अब वह दौर नहीं रहा जब अन्यायी सत्ताधीशों, जुल्मी ताकतों, भ्रष्टाचारियों, अनाचारियों से लोहा लेने, सबक सिखाने और उनका पर्दाफाश करने के लिए अखबार निकाले जाते थे और बडी शान और गर्व के साथ यह कहा और माना जाता था -
"खींचों न कमानों को न तलवार निकालो... जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।" अब तो न पहले-सी सोच रही है और न ही वैसे बुलंद इरादे। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से अखबारों की डोर ऐसे हाथों में जा चुकी है, जिनकी नज़र में पत्रकारिता सरकारी ठेके हथियाने, राजनीति और सत्ताधीशों तक अपनी पहुंच बनाने और माल कमाने का जरिया है। जो लोग सच्ची और जनहितकारी पत्रकारिता करना चाहते हैं उनकी जेबें खाली हैं। वे तो अखबार निकालने की सोच ही नहीं सकते। जिस चौबीस पृष्ठीय दैनिक समाचार पत्र को चार-पांच रुपये में बेचा जाता है उसका लागत मूल्य ही पंद्रह से बीस रुपये तक होता है। घाटे का सौदा होने के बावजूद भी हिन्दुस्तान में अखबारों की संख्या निरंतर बढती चली जा रही है। अखबारी पेशे में धनवानों का ही बोलबाला है। यह धनवान अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही अखबार निकालते हैं। उनके लिए यह पेशा बहुत उपजाऊ है। अखबार भले ही घाटे में बेचने पडते हों, लेकिन इसकी आड में तमाम काले-पीले कामों को बडी आसानी से अंजाम दिया जा सकता है। उद्योगपतियों, बिल्डरों, खनिज माफियाओं, चिटफंड कंपनियों और नेताओं के द्वारा चलाये जाने वाले अधिकांश अखबारों में ऐसे-ऐसे संपादक रखे जाते हैं जो जुगाड तंत्र में माहिर हों। उनका, उन सबके बीच उठना-बैठना हो जिनके जरिए अपने मंसूबों और व्यवसाय के साम्राज्य को रातों-रात आकाश तक पहुंचाया जा सके और अपना काला चेहरा भी छुपाये जा सके।
ऐसे अखबार मालिकों पर जब कोई संकट आता है तो वे रातों-रात कार्यालय में ताला लगाकर गायब हो जाते हैं। उनकी टीम के लोगों के मन में उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती। उनके यहां काम करने वाले संपादक, पत्रकार दूसरे अखबारों में नौकरी पाने के लिए फौरन दौड-धूप शुरू कर देते हैं। अखबार हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। पिछले दिनों श्रीनगर में आतंकियों ने 'राइजिंग कश्मीर' के मुख्य संपादक शुजात बुखारी की हत्या कर यह मान लिया था कि अब यह बुलंद अखबार कभी प्रकाशित नहीं हो पायेगा, लेकिन अखबार में काम करने वाले पत्रकारों और कर्मचारियों की टीम ने अखबार को प्रकाशित कर आतंकियों के मुंह पर ऐसा तमाचा मारा कि वे देखते रह गए। यही तो है सच्ची पत्रकारिता। सच्चे मालिक, संपादक की पत्रकारिता को समर्पित टीम का अनंत हौसला। जिसकी बदौलत इंसानियत के दुश्मनों को पस्त किया जा सकता है।
देश के अधिकांश न्यूज चैनलों की भी तस्वीर ज्यादा अच्छी नहीं है। पता नहीं कैसे-कैसे कार्पोरेट के काले धंधों में पारंगत धनकुबेरों ने न्यूज चैनल शुरू कर दिए हैं। इन न्यूज चैनलों में निष्पक्षता का नितांत अभाव स्पष्ट दिखायी देता है। ऐसा लगता है कि इन न्यूज चैनल मालिकों ने चाटूकारिता, दलाली और अपने मनपसंद नेताओं के इर्द-गिर्द घूमने को ही पत्रकारिता मान लिया है। आम आदमी की समस्याओं की अनदेखी कर ज्यादातर राजनीति और अपराध की खबरें दिखाने वाले इन न्यूज चैनलों के प्रति सजग देशवासियों में काफी गुस्सा है। यह न्यूज चैनल कुछ ब‹डबोले नेताओं को हद से ज्यादा अहमियत देते हैं और उनके अनर्गल बयानों पर धडाधड बहसें शुरू करवा देते हैं। ईमानदार पत्रकारों को कार्पोरेट घरानों के न्यूज चैनलों में कई तरह के समझौते करने पडते हैं। जो नहीं कर पाते उन्हें दूध की मक्खी की तरह बाहर निकालकर फेंक दिया जाता है। इन न्यूज चैनलों में भी धन्नासेठों के अखबारों की तरह पत्रकारों, संपादकों का भरपूर शोषण होता है। पत्रकारों की आत्महत्या की भी खबरें आती रहती हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी हाल में एक बडे अखबार के समूह संपादक ने खुदकुशी कर ली और मालिकों को कोई फर्क नहीं पडा। वे तो यही मानते हैं कि एक गया तो दूसरा आ जाएगा। कुर्बानी देने वाले पत्रकारों, संपादकों की अपने देश में कोई कमी नहीं है।

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