Thursday, August 23, 2018

बहुत बडी सीख दे गए अटल

"धरती को बौनों की नहीं
ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है
किंतु इतने ऊंचे भी नहीं कि
पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे
कोई कली न खिले
न बसंत हो, न पतझड हो
सिर्फ ऊंचाई का अंधड
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना"

यह उस राजनेता, पत्रकार, कुशल वक्ता, कवि की कविता है जिन्हें भारतीय राजनीति का अजातशत्रु कहलाने का गौरव हासिल हुआ। जिन्हें विरोधी भी उतना चाहते थे, जितना उनके समर्थक। क्या यह हैरान कर देने वाला सच नहीं है कि जो राजनेता पिछले एक दशक से मौन था, चलने-फिरने में लाचार था, चुप्पी जिसकी मजबूरी थी, लेकिन फिर भी उसकी लोकप्रियता जस की तस रही। ऐसा लगा ही नहीं वे अपने प्रिय देशवासियों की नजरों से दूर हैं। शारीरिक तौर पर निष्क्रिय होने के बावजूद देश की राजनीति में उनकी उपस्थिति सतत बनी रही। ऐसा इसलिए था क्योंकि वे एक ऐसे जननायक थे, जिनसे सभी दलों के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और आमजन दिल से जुडे हुए थे। अपना प्रेरणास्त्रोत मानते थे। हर किसी को उनपर भरोसा था। ९३ साल की उम्र में देश और दुनिया से विदायी लेने वाले कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी जिन्दादिली, कर्तव्यपरायणता, कर्मठता, निष्पक्षता और निर्भीकता की प्रतिमूर्ति थे। संसद हो या सडक, हर जगह सजग रहने वाले अटलजी उन नेताओं में शामिल नहीं थे, जो भीड से खौफ खाते हैं और खुद को किसी भी जोखिम में डालने से बचते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भडके सिख विरोधी दंगों के कारण संपूर्ण दिल्ली जल रही थी। दंगाई बेखौफ होकर सिखों की हत्या कर रहे थे। इंसानियत की तो जैसे मौत ही हो चुकी थी। अटलजी ने अपने बंगले के गेट के बाहर का भयावह नजारा देखा तो उन्होंने संभावित खतरे को फौरन भांप लिया। तलवारों, लाठियों और हाकियों से लैस गुंडे मवालियों की भीड ने सिखों को हत्या करने के इरादे से घेर रखा था। अटलजी तुरंत बंगले से निकल कर अकेले ही टैक्सी स्टैंड पर पहुंच गए। भीड ने अटलजी को तुरंत पहचान लिया। उन्होंने सभी को फटकारा। किसी ने भी उनके समक्ष मुंह खोलने की हिम्मत नहीं की और नजरें झुकाकर भाग खडे हुए। अगर अटलजी टैक्सी स्टैंड पहुंचने में थोडी भी देरी करते तो दंगाई अपना काम कर चुके होते। सिख ड्राइवरों और टैक्सियों को जला दिया गया होता। उसी दिन वे अपनी पार्टी के सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी के साथ तब के केंद्रीय गृहमंत्री पीवी नरसिंह राव से मिले और सारी घटना की विस्तार से जानकारी दी। जलती दिल्ली को बचाने के सुझाव पेश करते हुए सिखों को हर तरह की सुरक्षा देने का निवेदन किया। उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं को बुलाकर निर्देश दिया कि अपने कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर सिखों के कत्लेआम को हर कीमत पर रोकने में जुट जाएं।
पहले १३ दिन, फिर तेरह महीने और फिर लगभग पांच वर्ष तक हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री रहे अटलजी के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा सदस्य के उनके पहले कार्यकाल में उनका भाषण सुनकर कह दिया था कि यह कुशल वक्ता एक दिन जरूर देश की सत्ता पर काबिज होगा। अटलजी गजब के सिद्धांतवादी थे। वे अगर दांवपेंच और जोड-जुगाड के खिलाडी होते तो उन्हें मात्र तेरह दिनों में सत्ता नहीं खोनी पडती। विश्वास मत पर मतदान से पहले ही उन्होंने सदन के भीतर त्यागपत्र का ऐलान कर सबको चौंका दिया था। उन्होंने कहा था कि पार्टी तोडकर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा। भगवान राम ने कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। अगर डरता हूं तो बदनामी से डरता हूं। चालीस साल का मेरा राजनीतिक जीवन खुली किताब है। कमर के नीचे वार नहीं होना चाहिए। नीयत पर शक नहीं होना चाहिए। मैंने यह खेल नहीं किया है। मैं आगे भी नहीं करूंगा।
मेरे विचार से अटलजी देश के पहले ऐसे नेता थे, जिनके भाषण को सुनने के लिए देशवासी लालायित रहते थे। बिलासपुर और रायपुर में उनके भाषण सुनने का सौभाग्य इस कलमकार को भी हासिल हुआ। मुझे अच्छी तरह से याद है कि भीड को रोके रखने के लिए उनका भाषण अंत में रखा जाता था। श्रोता भी उनका भाषण सुनने के मोह के चलते घंटों अपनी जगह से हिलते नहीं थे। अटलजी का आकर्षण फिल्मी सितारों पर भी भारी पडता था। मंच पर किसी नायक और नायिका के होने के बावजूद लोग सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही सुनना चाहते थे। उनके भाषणों में जहां हास-परिहास होता था, वहीं उनका एक-एक शब्द लोगों के मर्म को छूता था। आज भी यू-ट्यूब पर उन्हीं के भाषण सर्वाधिक सुने जाते हैं। युवा पीढी तो मंत्रमुग्ध हो जाती है। इशारों-इशारों में बडी-बडी बातें कह देने और व्यंग्य के तीर छोडने वाले अटल की शख्सियत का ही कमाल था कि विरोधी भी उनकी सशक्त वाक्शैली का लोहा मानते थे। एक बार राज्यसभा में विभिन्न पारिवारिक समस्याओं को लेकर चर्चा चल रही थी। सभी को लग रहा था कि अटलजी इस विषय पर चुप्पी साधे रहेंगे, लेकिन जब वे अपनी बात कहने के लिए खडे हुए तो कांग्रेस सांसद मार्गरेट अल्वा ने तपाक से कहा कि "अटलजी आप तो कुंआरे हैं। पारिवारिक समस्याओं की जानकारी तो शादीशुदा लोगों को ही होती है?" उन्होंने फटाक से जवाब दिया कि मैं अविवाहित जरूर हूं, लेकिन कुंआरा होने की कोई गारंटी नहीं है। उनकी इस साफगोई पर ठहाके और तालियां गूंजनें लगीं। वे एक ऐसे राजनेता थे, जो अपने विरोधियों की तारीफ करने में कोई कंजूसी नहीं करते थे। स्पष्टवादिता में भी कोई उनका सानी नहीं था। गुजरात के दंगों के समय तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई उनकी यह सीख आज के राजनेताओं के लिए बहुत बडी सीख है- "मेरा एक संदेश है कि वह राजधर्म का पालन करें। राजा के लिए, शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता। न जन्म के आधार पर और न ही संप्रदाय के आधार पर।" अटलजी अपने दिल की बात कहने में कभी कोई संकोच नहीं करते थे। भले ही सामने वाले को कितना ही बुरा लगे। एक बार राजधानी से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार के मालिक अपने संपादक के साथ अपने बेटे की शादी का निमंत्रण देने के लिए उनके निवास पर पहुंचे। उन्होंने दोनों का खूब आदर-सत्कार करते हुए उनके अखबार की भी तारीफ की। चाय-नाश्ते के बाद उन्होंने अपने अंदाज में कहा कि आप लोग तो अंतर्यामी हैं। पिछले दिनों आपके अखबार से ही मुझे पता चला कि मैंने अपने भांजे से दूरियां बना ली हैं और अपने घर में उनके प्रवेश पर भी बंदिश लगा दी है। अटल जी की यह शिकायत सुनते ही मालिक और संपादक दोनों पानी-पानी हो गए। कार्यालय पहुंचकर मालिक ने जब इस खबर के बारे में पता लगवाया तो पता चला कि मात्र अफवाह को संवाददाता ने कार्यालय में पहुंचाया था और संपादक ने बिना पुख्ता छानबीन किए उसे सुर्खियों के साथ अपने बहुप्रसारित दैनिक में प्रकाशित कर दिया था। मालिक ने उस लापरवाह संपादक को खूब डांटा-फटकारा और भविष्य में ऐसी खबरें न छापने की सख्त हिदायत दी। इस कलमकार के देखने में आया है कि अधिकांश कवि, लेखक जो लिखते हैं उनका आचरण उसके अनुकूल नहीं होता, लेकिन कवि अटल शब्द और कर्म को एकाकार करने में पूरी तरह से समर्थ थे। उन्होंने अपने गीतों के भाव को जी भरकर जिआ- "मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिन्दगी सिलसिला, आजकल की नहीं... मैं जी भर जिआ, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा कूच से क्यों डरूं?"

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