Thursday, August 2, 2018

जानवर और जानवर

कहावत है कि डायन भी एक घर छोड देती है। कहावतें सिर्फ पढने और भूल जाने के लिए नहीं बनी हैं। इनमें हमारे बुजुर्गों का वर्षों का अनुभव और निष्कर्ष समाहित है। मेरे पाठक मित्र सोच रहे होंगे कि मुझे एकाएक यह डायन वाली कहावत क्यों याद आ गई। दरअसल हुआ यूं कि कल ही मैंने एक समाचार पढा जिसका शीर्षक है "देश की राजधानी दिल्ली में बर्तन धो रहा है कारगिल का हीरो।" इस खबर का एक-एक अक्षर पढने के बाद मुझे एक ही सच समझ में आया कि हमारे देश में ऐसे नेता हर जगह हैं जो देश प्रेम और देश भक्ति की ऊंची-ऊंची बातें तो करते हैं, लेकिन उनका लालच, स्वार्थ उनकी असली औकात दिखा ही देता है। कारगिल युद्ध के एक वीर योद्घा सतवीर सिंह, जिनके पैर में आज भी एक गोली फंसी हुई है, राजधानी दिल्ली में जूस की दुकान खोलकर खुद ही झूठे बर्तन धो रहे हैं। वे बैसाखी के सहारे बडी मुश्किल से चल-फिर पाते हैं। कारगिल युद्ध में शहीद हुए अफसरों, सैनिकों की विधवाओं, घायल हुए अफसरों और सैनिकों के लिए तत्कालीन सरकार ने पेट्रोल पम्प और खेती की जमीन मुहैया करवाने की घोषणा की थी। लांस नायक सतवीर सिंह को भी जीवनयापन के लिए पांच बीघा जमीन दी गई थी। इसके साथ ही पेट्रोल पम्प भी दिया जाने वाला था। सरहद पर पाकिस्तानी सैनिकों की गोलियां खाने वाले इस जवान ने बडी मेहनत से जमीन पर फलों का बाग लगाया। तीन साल बीतते-बीतते बाग हरा-भरा हो गया। उनके खून-पसीने की हरियाली पर किसी दबंग की नजर गडी थी। पांच बीघे का बाग उनसे छीन लिया गया। इसी तरह से एक बडी पार्टी के नेता को देश के लिए लडने वाले सैनिक का पेट्रोल पंप मालिक होना इतना चुभा कि उसने उन पर दबाव डाला कि जमीन व पेट्रोल पम्प उनके नाम कर दो। सैनिक ने इनकार कर दिया, लेकिन नेता की पहुंच और दबंगई भारी पड गयी। धमकाने-चमकाने की झडी लगा दी गयी। गुंडई जीत गई। बाग की तरह पेट्रोल पंप भी उनसे छिन गया। इस लूटकांड के बाद जांबाज सैनिक को व्यवस्था से जंग करनी पड रही है। वर्षों बीत गए। पेट्रोल पम्प और जमीन की फाइल ऐसी अटकी है कि कारगिल के इस नायक की चक्कर काटते-काटते पता नहीं कितनी चप्पलें घिस चुकी हैं और बैसाखियां टूट चुकी हैं। मेरी तो सैनिक को यही सलाह है कि उन्हें उस दुष्ट नेता का नाम उजागर कर देना चाहिए। देशवासी भी तो जानें कि जनसेवा करने का दावा करने वाले राष्ट्र भक्तों का असली सच क्या है। बदमाशों के चेहरे के नकाब हटने ही चाहिए।
अभी हाल ही में एक पत्रकार ने देश के एक सैनिक से देश भक्ति की परिभाषा पूछी तो उनका जवाब इन शब्दों में आया- "अपने काम को पूरी इमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से करना ही सच्ची देशभक्ति है। मेरा काम देश की रक्षा करना है और अगर मैं वह अच्छे से कर रहा हूं तो राष्ट्र भक्त हूं। इसी तरह से किसी भी प्रोफेशन में जो भी है, वह वहां अपना काम सूझबूझ और ईमानदारी से कर रहा है तो सच्चा देश प्रेमी है।
सच तो यह है कि देश के अधिकांश नेताओं से जब राष्ट्रप्रेम की परिभाषा पूछी जाती है तो वे आम आदमी को उलझा कर रख देते हैं। जाति, धर्म के जाल में उलझे इन कपटियों की सोच और परिभाषाएं समय और मौका देखकर तय होती हैं। यही वजह है कि देश में ऐसे राजनेता कम ही हैं जिनकी विश्वसनीयता बची हुई है। राजनेताओं और सत्ताधीशों की गलत नीतियों की वजह से अमीरों और गरीबों के बीच का फासला लगातार बढता चला जा रहा है। सरकार चलाने वाले दिन-रात ढोल पीट रहे हैं कि रोजगार मुहैया कराए जा रहे हैं।
दिल्ली सरकार का तो यह दावा है कि सरकार घर-घर तक राशन पहुंचा रही है। सवाल उठने लगा है कि आखिर गरीबों के हिस्से का भोजन कहां जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं यह योजना महज कागजी है। यथार्थ कुछ और है। केंद्र और राज्य सरकारें यह कहते भी नहीं थकतीं कि किसानों के अच्छे दिन आ गए हैं। उनका कर्ज माफ हो रहा है, लेकिन जो सच सामने है, वह दिल को दहला देने वाला है। महाराष्ट्र के ग्राम सावखे‹डतेजन में बीते रविवार को एक युवा किसान अपनी चिता सजाकर उस पर जिंदा जल गया। सत्तर हजार रुपये के कर्ज के तले दबे इस किसान ने चिता पर लेटने के बाद जहर पिया। यानी वह किसी भी हालत में जीना नहीं चाहता था। अगर कहीं आग से बच जाता तो जहर उसके प्राण ले ही लेता। पुख्ता मौत के लिए जिंदा जल मरने की यह इकलौती घटना नहीं है। ऐसी हृदय विदारक घटनाओं के बारे में जब पढने और सुनने मात्र से कंपकपी छूटने लगती है तो सोचें कि आत्महत्या करने वाले किसानों की कैसी मानसिक स्थिति रहती होगी? खुद की चिता के लिए खुद ही लड़कियां यां और केरोसीन का इंतजाम करना कोई बच्चों का खेल तो नहीं। आधुनिकता के इस युग में अंधविश्वास, घृणा, उदासीनता और अविश्वास की कोई सीमा नहीं रही। पडोसी किस हाल में है इसकी भी चिंता करने की जरूरत नहीं समझी जाती। देश की राजधानी में तीन बच्चियों की भूख से दुखद मौत हो गई। बच्चियों का पिता रिक्शा चलाता था और मां की मानसिक हालत दुरुस्त नहीं थी। बच्चों के साथ-साथ वह भी कई दिन तक भूखी रहती थी। पिता जिस रिक्शा को चलाता था उसे बदमाशों ने छीन लिया। इसके बाद उसने कभी होटल पर बर्तन मांजे तो कभी मजदूरी की, लेकिन इससे होने वाली कमाई शराब की भेंट चढ जाती थी। यह शख्स कुछ वर्ष पूर्व चाय और पराठे का ढाबा चलाता था। उसे जानने वाले बताते हैं कि उसकी दुकान अच्छी चलती थी। अनेकों रिक्शा-ठेलेवाले उसके स्थायी ग्राहक थे। कई बार जब उनकी जेब खाली होती थी तो वह उन्हें मुफ्त में खाना खिला दिया करता था। कोई गरीब बेसहारा उसके यहां पहुंच जाता तो वह उसे खुशी-खुशी खाना खिलाता। जो खाना बच जाता उसे भिखारियों में बांट देता था। ऐसे परोपकारी इंसान की तीन बच्चियों की भोजन न मिलने के कारण हुई मौत हमारे समाज को भी कटघरे में खडा करते हुए प्रश्न कर रही है क्या इंसान की संवेदनाएं लुप्त होती चली जा रही हैं? कुछ लोग कहते हैं कि इंसान जानवर बनता चला जा रहा है। क्या वाकई यह सच है? एक जुलाई २०१८ की रात दिल्ली के बुराडी में एक ही परिवार के ११ सदस्यों ने अंधविश्वास के चक्कर में आत्महत्या कर ली थी। इस घटना से उस परिवार के रिश्तेदारों और पास-पडोसियों से ज्यादा उनके कुत्ते टामी को आघात पहुंचा था। घटना के बाद टामी की हालत बहुत नाजुक हो गई थी। उसने खाना-पीना छोड दिया था। गुमसुम रहने लगा था। वह अपने परिवार को इधर-उधर तलाशते हुए रात भर रोता तो अचानक गुस्सा हो जाता। उसका स्वभाव पूरी तरह से बदल गया था। अपनों को खोने का सदमा बर्दाश्त न कर पाने वाले टामी की भी कुछ दिनों के बाद दिल का दौरा पडने से जान चली गई। हरियाणा के मेवात इलाके में गर्भवती बकरी तडप-तडप कर मर गई यह मौत स्वाभाविक मौत नहीं थी। उसके साथ आठ इंसानों ने सामूहिक बलात्कार किया था।

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