Thursday, September 13, 2018

तमाशा नहीं है ज़िन्दगी

शराब और सिगरेट की लत न जाने कितने लोगों की कुर्बानी ले चुकी है। अब यह शोध यकीनन हतप्रभ करने वाला है कि सोशल मीडिया की लत भी सेहत के लिए उतनी ही खतरनाक है जितना धूम्रपान और शराब पीना। विशेषज्ञों का यह निष्कर्ष सामने आया है कि सोशल मीडिया के अत्याधिक प्रयोग से तनाव और अवसाद बढता है। खुद की छवि के प्रति शंकाग्रस्त कर देने वाला यह नशा नींद उडा कर रख देता है। इसके लती वर्तमान में रहना छोडकर सपनों की दुनिया में विचरण करने लगते हैं। सोशल मीडिया पर लोगों की अच्छी-अच्छी तस्वीरें देखने से आत्मविश्वास में कमी आती चली जाती है। तनाव और डिप्रेशन का होना रोजमर्रा की बात हो जाती है। 'स्टेट्स ऑफ माइंड' की रिपोर्ट के मुताबिक सोशल मीडिया में इंस्टाग्राम सबसे अधिक खतरनाक है। यह युवाओं में हीन भावना को जगाता है और उन्हें मानसिक बीमार बनाता है। इसके बाद स्नैपचैट, फेसबुक का नंबर आता है। यह सोशल मीडिया ही है जिसने लोगों को स्वार्थी बना दिया है। इसके शिकार दूसरों की भावनाओं की ज्यादा कद्र नहीं करते। उन्हें अपनी तरक्की और अपने प्रचार की भूख जकडे रहती है। वे लोगों की सहायता करने की पहल करने में कतराते हैं।
दिनदहाडे भीडभाड वाली सडक पर बलात्कार होते हैं, दुर्घटनाएं होती हैं। लोग सडकों पर तडपते रहते हैं, लेकिन सहायता के हाथ नजर नहीं आते। कई संवेदनहीन लोग वीडियो बनाने में लग जाते हैं ताकि उसे सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों से अपने मित्रों तक पहुंचा कर पब्लिसिटी हासिल कर सकें। यह भी देखा जा रहा कि सोशल मीडिया के चक्कर में युवा आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्धता के जबरदस्त शिकार हो रहे हैं, जिसका खामियाजा उनके घर-परिवार के बुजुर्गों को भुगतना पड रहा है। उनका हालचाल जानने का समय ही छीन लिया है इस सोशल मीडिया ने। साठ प्रतिशत से अधिक युवक-युवतियों ने स्वीकारा है कि सोशल मीडिया में खोये रहने के कारण वे परिवार को कम समय दे पाते हैं। बुजुर्गों का सुख-दुख जानने का उन्हें समय ही नहीं मिलता। गौरतलब है कि अपने वतन में ६५ फीसदी आबादी ३५ साल से कम उम्र के युवाओं की है, जबकि १० फीसदी यानी १३ करोड सीनियर सिटीजंस हैं। इन १३ करोड बुजुर्गों में ६३ फीसदी महिलाएं हैं। सोशल मीडिया के कारण पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज्यादा अकेलापन झेलना पड रहा है। मैं अपने ऐसे कई मित्रों को जानता हूं जिनके दिन की शुरुआत फेसबुक पर अपनी सेल्फी पोस्ट करने से होती है। विभिन्न मुद्राओं में अपनी सेल्फी चिपकाने वाले असंख्य युवक-युवतियों को ढेरों लाइक्स का बेसब्री से इंतजार रहता है। सेल्फी से शोहरत पाने का यह पागलपन पता नहीं कितने लोगों को निकम्मा और स्वार्थी बना चुका है और बना रहा है। यह क्या घोर ताज्जुब भरा सच नहीं है कि जिनके पास अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के लिए समय नहीं है वे फेसबुक, ट्वीटर और वाट्सअप पर बडी बेरहमी के साथ अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं। हर तीन-चार दिन बाद सेल्फी के चक्कर में युवाओं के दुर्घटनाग्रस्त होने के समाचार सुनने और पढने में आ रहे हैं। कई उम्रदराज स्त्री-पुरुष भी सेल्फी के क्रेज के कैदी हैं। वे भी सेल्फी के लिए बडे से बडा जोखिम लेते देखे जाते हैं। एक शोध में पाया गया है कि भारत एक ऐसा देश बन चुका है जहां पर सेल्फी लेने के अंधे जोश के चलते सबसे अधिक मौतें हुई हैं। समझदार समझे जाने वाले लोग भी सेल्फी के लिए उफनती नदियों में छलांग लगा देते हैं। रेल की पटरी पर खडे हो जाते हैं और कई बार जान से हाथ धो बैठते हैं। सोशल मीडिया पर लाइव जाकर आत्महत्या करने वाले लोग समाज को यह संदेश देते प्रतीत हो रहे हैं कि जिस तरह से उन्हें दूसरों से कोई मोह नहीं है वैसे ही वे खुद के प्रति भी अमानवीय और संवेदनहीन हैं।
इस सृष्टि में इंसान की जान से बढकर और कुछ नहीं है। 'जान है तो जहान है।' नेशनल ट्रामा केयर इन्स्टीट्यूट के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि विभिन्न दुर्घटनाओं के शिकार हुए २ लाख लोगों को समय पर उपचार यानी प्रथमोचार नहीं मिल पाने के कारण इस दुनिया से सदा-सदा के लिए विदायी लेनी पडती है। इनमें वो बदनसीब भी शामिल होते हैं जिन्हें सडकों पर लहूलुहान तडपते पडा देखकर हम हिन्दुस्तानी बडी शान से वीडियो बनाते हैं और यह सोचकर कि हम किसी के पंगे में क्यों पडें, अपने रास्ते चलते बनते हैं। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को जो समय पर सहायता उपलब्ध करा दे वही उसके लिए देवदूत होता है, भगवान होता है।
ऐसे ही एक मानवता के सच्चे पुजारी हैं राजू वाघ, जिन्हें दुर्घटना के शिकार हुए लोगों की मदद करने वाले फरिश्ते के रूप में जाना जाता है। मानव की सेवा को ही अपना धर्म मानने वाले नागपुर के इस युवक ने पांच हजार से अधिक दुर्घटनाग्रस्त लोगों को सही समय पर प्रथमोचार उपलब्ध करा उनकी जान बचायी है। राजू वाघ ने शहर में ऐसे कई लोग तैयार किये हैं जो दुर्घटना के शिकार किसी भी इंसान की मदद के लिए दौड पडते हैं। इन्हें घायलों के प्रथमोचार का प्रशिक्षण दिया गया है। राजू कहते हैं कि सडक पर दुर्घटना होते ही नागरिकों की जो भीड जुटती है उसका सबसे पहले ध्यान घायल के चेहरे पर जाता है और जब उसे तसल्ली हो जाती है कि वह उनकी पहचान का नहीं है तो वह धीरे-धीरे खिसक जाती है। लहूलुहान घायल व्यक्ति तडपता रहता है और कई बार उसकी मौत भी हो जाती है। लोगों की यह बेरहमी और कू्ररता उन्हें बहुत आहत करती है। यूं ही किसी को अपने प्राणों से हाथ न धोना पडे इसी ध्येय के साथ उन्होंने दुर्घटना के शिकारों की सहायता करने की ठानी है।

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