Thursday, September 20, 2018

सबक की लकीरें

भारत में इंसानी जिन्दगी जितनी सस्ती है उतनी और कहीं नहीं है। प्रशासन और सरकार के अंधेपन की सज़ा आम आदमी को भुगतनी पडती है। मेहनती, ईमानदार भारतवासी कल भी त्रस्त थे और आज भी बेहद निराश हैं। राजनेता और बुद्धिजीवी अपनी मस्ती में हैं। उन्हें भाषणों और उपदेशों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। वतन में स्वच्छता अभियान जोरों पर है। हाथ में झाडू थामे साफ सुथरे कपडों में सजे बडे और छोटे नेताओं की तस्वीरें प्रतिदिन अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर जगह पाती हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि पहले कचरे का ढेर लगाया जाता है फिर झाडू घुमाने का नाटक कर फोटुएं खिंचवायी जाती हैं। यह नाटक पिछले-दो-तीन वर्षों से तो धडल्ले से चल रहा है और चमचे तालियां पीट रहे हैं। अपने यहां दिखावे की कद्र होती है और खून-पसीने बहाने वालों को कीडा-मकोडा समझा जाता है। इस खबर की तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया होगा कि बीते हफ्ते देश की राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए पांच सफाई कर्मी मारे गए। ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं। न प्रशासन सबक लेता है और ना ही सरकार जागती है। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दे दिए जाते हैं। इस तरह के हादसों को रोकने के लिए नियम-कानून भी बनाये गए हैं। अदालतें भी कह चुकी हैं कि सफाई कर्मियों की जान के साथ खिलवाड नहीं होना चाहिए। उन्हें समुचित सुरक्षा उपकरणों के साथ ही टैंकों की सफाई के काम में लगाया जाना चाहिए। राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए जो सफाई कर्मी मौत के शिकार हुए उनके पास किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरण नहीं थे। गरीब मजदूर आवाज भी नहीं उठा पाते। ठेकेदार का हुक्म बजाने के सिवाय उनके पास और कोई रास्ता नहीं होता। यह भी गौर करने वाली बात है कि जब राजधानी की यह तस्वीर है तो देश के छोटे-मझोले शहरों-कस्बों में श्रमिकों की क्या हालत होगी। देश को स्वच्छ बनाने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वालों की कुर्बानियां लेने के इस खेल के पीछे अधिकाधिक धन कमाने की लालसा और भ्रष्टाचार का भी बहुत बडा हाथ है। लालची ठेकेदारों के लिए मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं होती। इसलिए वे उनकी सुरक्षा के प्रति कतई चिन्तित नहीं रहते। सुरक्षा के उपकरणों पर खर्च करना उन्हें अपने पैसे की बर्बादी लगता है। उन्हें पता होता है कि इन असहायों की मौत पर कोई आवाज उठाने और आंसू बहाने के लिए ख‹डा नहीं होता।
शहरवासियों की सुख-सुविधाओं के लिए खुद की जान की बाजी लगा देने वाले सफाई कर्मियों, श्रमिकों के परिवार वाले इंसाफ के लिए तरसते रह जाते हैं। यहां भी धनबल जीत जाता है। कौन नहीं जानता कि अदालतों में चलने वाली कानूनी लडाई सिर्फ और सिर्फ पैसे और समय का खेल है। देश की अदालतों में मुकदमों के मामले इतने लंबे चलते हैं कि फैसले के इंतजार में लोगों की मौत तक हो जाती है। अदालतों में काम करने वालों की लापरवाहियां और गडबडियां भी न्याय की राह में अवरोध खडे करती हैं। फिर भी अदालतों में भीड बढती चली आ रही है। जेलों में भेड-बकरियों की तरह कैदी भरे पडे हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कोई अपराध ही नहीं किया। वकीलों को मोटी फीस देने का उनमें दम नहीं है इसलिए जेल में सडना उनकी नियति है।
शहर मिर्जापुर की गंगादेवी को इंसाफ पाने के लिए एक ऐसी लंबी लडाई लडनी पडी जो देश की अदालतों की भयावह सच्चाई पेश करती है। १९७५ में यह केस शुरू हुआ था और इसका फैसला २०१८ में आया है, जबकि गंगादेवी की २००५ में ही मौत हो चुकी है। हुआ यूं कि जमीन विवाद के एक मामले में १९७५ में मिर्जापुर जिला जज ने गंगादेवी के खिलाफ प्रापर्टी अटैचमेंट का नोटिस जारी किया था। इस पर गंगादेवी ने सिविल जज के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी थी। तब वह महज ३७ वर्ष की थी। दो साल बाद १९७७ में कोर्ट ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन उसकी मुसीबत यहीं पर खत्म नहीं हुई। जिला अदालत ने उसे कोर्ट में केस के ट्रायल के दौरान फीस के रूप में ३१२ रुपये जमा करने को कहा। इस रकम की तब बहुत बडी कीमत थी। गंगादेवी ने इधर-उधर से जुगाड कर राशि जमा कर रसीद भी ले ली, लेकिन जब वह अपने फैसले की कॉपी लेने के लिए कोर्ट पहुंची तो पाया गया कि उसने दस्तावेजों में ३१२ रुपये की फीस जमा करने की रसीद नहीं लगाई है। दरअसल वह रसीद कहीं गुम गई थी। कोर्ट ने गंगादेवी को फिर से ३१२ रुपये की फीस भरने को कहा, लेकिन गंगादेवी ने इसका विरोध किया। इसके बाद कोर्ट में इसी फीस को लेकर ४१ साल तक सुनवाई चली। इस केस की फाइल ११ जजों के पास गई, लेकिन गंगादेवी की याचिका अटकी रही। अंतत: जब २०१८ के अगस्त माह में मिर्जापुर के सिविल जज ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया तो उस समय गंगादेवी ही इस दुनिया में मौजूद नहीं थी, जज ने यह भी माना कि फाइल में गडबडी के कारण यह केस वर्षों तक चलता रहा। गंगादेवी को बेवजह कोर्ट के चक्कर काटने पडे और तकलीफें झेलनी पडीं। यकीनन इस गडबडी के लिए कोई बाबू ही दोषी था। ऐसे बाबूओं का ही अदालतों में राज चलता है। रिश्वत लिए बिना तो यह कोई काम ही नहीं करते। बाबू अगर चाहता तो रास्ता निकल सकता था और गंगादेवी को इतने वर्षों तक कोर्ट की यातनाएं नहीं झेलनी पडतीं।
मैंने अपने इस जीवन की यात्रा के दौरान यही देखा और समझा है कि अमीरों से ज्यादा गरीब स्वाभिमानी और त्यागी होते हैं। अमीर किसी पर उपकार करने के बाद जबरदस्त ढोल पीटते हैं, लेकिन गरीब बडी शांति से वो प्रेरक काम कर देते हैं जिनसे यदि चाहें तो वतन के नेता और समाजसेवक भी सबक ले सकते हैं। ग्रेटर नोएडा के अंतर्गत आने वाले गांव दादुपुर की ५६ वर्षीय राजेशदेवी गांव की ऊबड-खाबड सडक पर गिरने से बुरी तरह से जख्मी हो गई। सिर पर गंभीर चोट लगी। बेहोश होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने २५ टांके लगाए। होश में आते ही उसने संकल्प लिया कि मैं इस सडक को दुरुस्त करा कर ही दम लूंगी। अब किसी को ऐसे घायल नहीं होने दूंगी। सडक को ठीक करवाने के लिए उसने जनप्रतिनिधियों और अफसरों के दरबार में अपनी गुहार लगायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। ग्राम प्रधान और विधायक बखूबी जानते थे कि राजेशदेवी के घर के सामने से जाने वाला रास्ता १० साल से टूटा हुआ है। यहां हमेशा नाली के पानी और कीचड से होकर गुजरना पडता है। हर चुनाव के मौके पर यह वादा भी किया जाता था कि चुनाव जीतने के बाद इस सडक का कायाकल्प कर दिया जाएगा। वे चुनाव तो जीतते रहे, लेकिन वादा पूरा नहीं हुआ। राजेशदेवी नेता नहीं है। आम भारतीय है। उसने टूटी सडक को ठीक करवाने के लिए अपने मकान का आधा हिस्सा डेढ लाख में बेचा और सडक ठीक करवाने के काम में लगा दिया। इस परोपकारी महिला का पति और बेटा मजदूरी करते हैं।

No comments:

Post a Comment