Wednesday, October 17, 2018

एकता और भाईचारे के हत्यारे

हम भारतवासी क्या चाहते हैं? ऐसे-वैसे यह जो मंजर हमारे सामने हैं क्या इन्हीं की चाहत थी हमें? रोना तो इस बात का है कि देशवासियो के मन की बात न तो नेता जानना चाहते हैं और न ही शासक। उन्हीं की मनमानी चल रही है। अपनी ही बात थोपने में उन्हें तसल्ली होती है। सुकून मिलता है। क्या सत्ताधीशों की निगाह से इस तरह की शर्मनाक भयावह खबरें नहीं गुजरती हैं, "गुजरात में उत्तर भारतीयों के खिलाफ भडके विरोध ने हिंसक रूप ले लिया है। कंपनी से घर लौट रहे बिहार के एक युवक की कुछ लोगों ने पीटकर हत्या कर दी। वारदात के बाद से उत्तर भारतीयों में जबर्दस्त दहशत का माहौल है। ज्ञातव्य है कि बिहार के गया जिले का रहने वाला अमरजीत रोजाना की तरह पंडेश्वरा इलाके में स्थित मिल की शिफ्ट खत्म कर घर लौट रहा था। इसी दौरान भीड ने उसे घेर कर लाठी-रॉड, लात-घूसों से हिंसक जानवरों की तरह तब तक मारा-पीटा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। मृतक बीते पंद्रह वर्षों से अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। ध्यान रहे कि मृतक के पिता एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं। यह कैसी विडंबना है कि भारतवर्ष में ही भारतवासी पिटते रहते हैं उनकी निर्मम हत्याएं होती रहती हैं और सत्ताधीश मौन रहते हैं। स्वार्थी नेता जनता की भावनाओं को भडकाते रहते हैं। देश का संविधान कहता है देश का नागरिक कहीं भी जाने और कमाने-खाने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी कभी मुंबई तो कभी आसाम तो कभी और कहीं भारतवासी पिटते और मिटते चले आ रहे हैं? पीटने और हत्याएं करने वाले उनका दोष तो बताएं? ऐसा लगता है कि कुछ नेता और अराजकतत्व खून-खराबा करने के अवसरों की राह ताकते रहते हैं। ३१ अक्टूबर १९८४ के दिन भारतवर्ष की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो निजी सिक्ख सुरक्षा गार्डों ने बडे ही वहशियाना तरीके से गोलियां बरसाकर हत्या कर दी। सभी भारतवासी उदासी के सागर में डूब गए, लेकिन शाम होते-होते देश की राजधानी में हजारों सिक्ख परिवारों पर बेकाबू भीड का तांडव टूट पडा। कई सिक्खों को जिन्दा जला दिया गया। कितनों के घर और उनकी तमाम सम्पत्ति फूंक दी गयी। यह आग देखते ही देखते पूरे देश में फैल गई थी। यह सब हुआ था कुछ स्वार्थी नेताओं के भडकाने और सुरक्षा व्यवस्था के बेहद कमजोर होने के कारण। कुछ कांग्रेसी नेताओं की सिक्ख दंगों में स्पष्ट भागीदारी दिखायी दी थी। अपने शीर्ष नेताओं और पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने के इस तरीके की बाद में तो जैसे परंपरा ही चल पडी।
एक १४ महीने की बच्ची से रेप के मामले में बिहार के एक युवक को पकडा गया तो सारे के सारे बिहारियों को बलात्कार का दोषी मानकर उन पर जुल्म ढाने का सिलसिला चला दिया गया! गुजरात में करीब १ करोड औद्योगिक श्रमिक हैं और इनमें से ७० प्रतिशत गैर गुजराती हैं। इन गैर गुजरातियों में ज्यादातर हिन्दी भाषी राज्य बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ही रहने वाले हैं। यह श्रमिक वर्षों से गुजरात में कार्यरत रहकर प्रदेश के विकास में अपना योगदान देते चले आ रहे हैं। गुजरात का सूरत कपडे और हीरे के लिए जाना जाता है। अहमदाबाद में भी कपडे की बहुत बडी मंडी है। ऐन दशहरा, दीपावली से पहले गुजरात बनाम बाहरी के इस जलजले से जहां उत्पादन घटा वहीं उत्तर भारतीयों पर हुए हमलों के कारण गुजरात की छवि पर भी आघात पहुंचा है। अरबों-खरबों का जो नुकसान है उससे भी व्यापारी और उद्योगपतियों के चेहरे उतर गए हैं। हजारों श्रमिकों को भुखमरी और पलायन की पीडा झेलनी पडी। इस सारे खेल के पीछे नेताओं का हाथ देखा गया। यह वो नेता हैं जिन्हें इंसानी जिंदगियों से ज्यादा सत्ता प्यारी है। आग लगाकर हाथ सेंकने वाले ऐसे नेताओं का चेहरा हर दंगे के पीछे छिपा होता है। २७ फरवरी २००२ को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती ट्रेन के एस-६ कोच में अराजक भीड के द्वारा आग लगाए जाने से ५९ कार सेवकों की मौत हो गई थी। इसके परिणामस्वरूप पूरे गुजरात में जो साम्प्रदायिक दंगे हुए उन्हें तो कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इन दंगों के सोलह साल बाद भी पीडितों के जख्म भर नहीं पाये हैं। गुजरात में बीते वर्ष पटेलों को आरक्षण देने की मांग को लेकर जो आंदोलन हुआ उसमें करोडों की सरकारी संपत्ति को आग के हवाले कर दिया गया। कुछ लोगों को अपने प्राण भी गंवाने पडे। इस हिंसक आंदोलन ने हार्दिक पटेल को राजनीति में स्थापित कर दिया। २०१६ में हरियाणा में हुए जाट आरक्षण को लेकर हुई हिंसा भी संपूर्ण देशवासियों को हिला गयी। हफ्तों तक प्रदेश के कई जिलों में तनाव बना रहा। जाटों ने गैर जाटों के वर्षों की मेहनत से खडे किये व्यापार, दुकानों, मॉल्स, घरों को बडी बेदर्दी से जला डाला। इस आग ने आपसी संबंधों और भाईचारे को भी राख में तब्दील कर दिया। हरियाणा के विभिन्न शहरों में बेखौफ हुई लूट, तोडफोड और आगजनी कहने को तो भीड ने की, लेकिन इसके असली खलनायक नेता ही थे जिनसे प्रदेश की सत्ता छिन गई थी।
कोई भी अनशन, मांग और आंदोलन शांतिपूर्वक होना चाहिए, लेकिन अपने देश में ऐसा कम ही होता है। नेताओं की बिरादरी भीड को उकसाती है और बेकसूरों पर हमले शुरू हो जाते हैं। लूटमारी करने के लिए अराजक तत्व भी उस भीड में शामिल हो जाते हैं और स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि आंदोलन का नेतृत्व नेताओं के हाथ से निकलकर गुंडे-बदमाशों, लुटेरों के हाथ में चला जाता है। हर हिंसक आंदोलन किसी न किसी नये नेता को भी जन्म देता है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि महाराष्ट्र के मुंबई में भी दूसरे प्रदेशों, खासकर उत्तर भारतीयों के खदेडने और मारने-पीटने की हरकतें होती रही हैं और कई लाठीबाज नेताओं को सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है। यह नेता उस भीड के दम पर अपने सपने साकार करते हैं जिसे भडकाना और आक्रामक बनाना बहुत आसान होता है। दंगे और लूट-फसाद कर जिन बेकसूरों की जिन्दगी भर की कमायी स्वाहा कर दी जाती है, जिनके निर्दोष परिजनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, उनके दिल पर क्या बीतती है इसे बेरहम नेता तो समझने से रहे। दरअसल, सोचना तो उन्हें चाहिए, जिनके पास अपना दिमाग है फिर भी नेताओं का नकाब ओढे 'दुष्टों' के इशारे पर भीड बन लूटमार और खून-खराबे पर उतर जाते हैं। वर्षों पुराने रिश्तों और भाईचारे का कत्ल करने में किंचित भी देरी नहीं लगाते...।

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