Thursday, October 4, 2018

पितरों का सत्कार...जिन्दों को दुत्कार

कुछ हकीकतें..., खबरें भ्रम तोड देती हैं। आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। इन्हें पढने और समझने के बाद दिल और दिमाग में यह इच्छा बलवति हो जाती है कि यह सच उन लोगों तक भी पहुंचना चाहिए जिन्होंने अंतिम रूप से यह मान लिया है कि भारत का अब भगवान ही मालिक है। फरिश्ते भी अगर धरती पर उतर आएं तो भी इसकी दिशा और दशा नहीं बदल सकते। यहां पर तो जहां-तहां लालची और मतलबी भरे पडे हैं जो सिर्फ अपने भले की ही सोचते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि अपने ही देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के इस तरह की सोच और धारणाओं को बदलने में लगे हैं। उन्हीं में शामिल हैं नागपुर निवासी जगदीश खरे जो पिछले पच्चीस वर्षों से ऐसा काम करते चले आ रहे हैं जिसे करने में अधिकांश लोग कतराते हैं। नाक पर हाथ रखकर भाग खडे होते हैं। लगातार फैलते शहर में आत्महत्याओं के होने का सिलसिला बडा पुराना है। विभिन्न समस्याओं से परेशान और अपने जीवन से निराश हो चुके लोगों को खुदकुशी किसी मुक्ति के मार्ग से कम नहीं लगती। ऐसे लोग रेल की पटरियों, तालाबों और कुंओं आदि को आत्महत्या का सबसे उपयुक्त माध्यम मानते हैं। नागपुर में गांधी सागर, अंबाझरी, फुटाला समेत कई अन्य तालाब, नदियां और नाले हैं जहां पर हजारों लोग खुदकुशी कर चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि यह सिलसिला कभी रूकने वाला नहीं है। जब भी कोई पानी में कूदकर आत्महत्या करता है तो अक्सर उसकी लाश खराब हो जाती है। ज्यादा दिन तक पानी में रहने के कारण बदबू मारने लगती है। ऐसे में लोग उसके नजदीक जाने में कतराते है, लेकिन जगदीश खरे ऐसे खरे समाजसेवी हैं जिनके जीवन का एक मात्र मकसद ही पानी से मृतदेहों को बाहर निकालना है। वे इसकी बिलकुल चिन्ता नहीं करते कि शव कितना सड चुका है। उससे कैसी दमघोटू दुर्गंध आ रही है। वे यह काम धन कमाने के लिए नहीं, मानवता का धर्म निभाने के लिए करते हैं। बिना किसी भेदभाव के पानी से मृत देहों को बाहर निकालने वाले जगदीश खरे को उनकी पत्नी का भरपूर सहयोग और साथ मिलता है। उन्होंने शहर और आसपास के विभिन्न तालाबों, नदियों, नालों और खदानों से २२०० मृतदेहों को बाहर निकालने की जो समाजसेवा की है उसके लिए 'लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड  रिकार्डस' में भी उनका नाम दर्ज हो चुका हैं। अनेक संस्थाओं के द्वारा सम्मानित किये जा चुके जगदीश खरे बताते हैं कि २३ मई १९९४ में उनके दोस्त के भाई ने गांधी सागर तालाब में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। कई घंटों तक पानी में पडे रहने के कारण शव काफी खराब हो चुका था। शव को निकालना तो दूर बदबू के कारण कोई भी नजदीक जाने को तैयार नहीं था। यहां तक कि महानगर पालिका के अग्निशामक दल के लोगों ने भी हाथ झटक लिए थे। इस चक्कर में समय बीतता चला जा रहा था। सडांध बढती चली जा रही थी। यह देख वे बिना डगमगाए पानी में कूद गए और शव को बाहर निकाला। इसके बाद तो जब भी कोई कहीं पानी में डूबता या आत्महत्या करता तो पुलिस, अग्निशामक दल और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं उन्हें फौरन जानकारी देतीं और वे भी तुरंत हाजिर हो जाते। वे कहते हैं कि यह वे जब तक जिन्दा हैं तब तक यह सिलसिला बरकरार रहेगा। एक हजार से अधिक लोगों को पानी में डूबने से बचाने वाले इस देवदूत को २०१६ में दिल्ली में एक मीडिया हाऊस द्वारा पुरस्कार स्वरूप जो पांच लाख रुपये दिए गये उनसे भी एक एंबुलेंस खरीदकर थाने के सुपुर्द कर दी ताकि जनसेवा का रथ सतत चलता रहे।
अनजान लोगों के लिए समय निकालना हर किसी के बस की बात नहीं। यहां तो हालात यह हैं कि अपनों को भी अनदेखा किया जा रहा है। समय की कमी की मजबूरी का राग छेडा जा रहा है। बुजुर्ग मां-बाप और अन्य-बुजुर्गों के लिए तो अधिकांश संतानों और निकट जनों के पास समय ही नहीं है। कितने लोग तो ऐसे हैं जो बिस्तर से आने वाली बदबू के कारण अपने माता-पिता, दादा-दादी आदि के कमरे में जाने से कतराते हैं। यही वो लोग हैं जो पितृपक्ष में अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए रिश्तेदारों, मित्रों को लजीज खाना खिलाते हैं और दान-पुण्य करते हैं। दुनिया छो‹ड चुके अपनों के लिए समय निकाल लेते हैं और अपने जीवित असहाय बुजुर्गों की कोई कद्र नहीं करते। अपनों को याद करने और उनकी सेवा करने के लिए उनके पितर बन जाने की प्रतीक्षा करने वालों की भीड में कुछ अपवाद भी हैं जिनके पास अपने वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी आदि के लिए समय की कोई कमी नहीं रहती। ऐसे ही मेरे एक मित्र हैं शरद सक्सेना जो बिलासपुर में रहते है। कुछ दिन पूर्व ही उनकी माताश्री ९२ साल की उम्र में परलोक सिधार गर्इं। शरद उद्योगपति भी हैं और समाजसेवी भी। उन्हें कभी भी अपनी बिस्तर पर पडी माताश्री के लिए समय निकालने में कोई दिक्कत नहीं हुई। शरद के पास भी परमसत्ता के द्वारा निर्धारित उतना ही समय रहता था जितना कि बेबस माता-पिता की देखभाल के लिए समय न मिलने का रोना रोनेवालों के पास होता है। उनके पास नियमित बैठना, बातचीत करना और साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना उनकी दिनचर्या का अंग था। उनकी सेवा और पूरी तरह से देखभाल करना ही इस बेटे के जीने का मकसद बन चुका था। ऐसे बेटे ही उम्मीद का दीया जलाए रखते हैं। वे मांएं भी परमात्मा को धन्यवाद देते हुए खुद को बेहद खुशकिस्मत मानती हैं जिन्हें ऐसी संतानें नसीब होती हैं।
इस सच को भी जान लें कि अपनी ही संतानों और परिजनों के द्वारा की जाने वाली अवहेलना के कारण उम्रदराज पुरुषों और महिलाओं की आत्महत्याओ की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त इजाफा हुआ है। यह हकीकत भी बेहद स्तब्धकारी है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है। १९९० से २०१६ के बीच आत्महत्या के आंकडों में चालीस प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। भारत में २०१६ में अनुमानित तौर पर २,३०,३१४ लोगों ने आत्महत्या की। अपनी जान देना आसान नहीं होता। फिर भी खुदकुशी करने वालों की संख्या का बढना चिन्ता का विषय तो है ही। एक जानी-मानी महिला, जिन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की, का कहना है आत्महत्या करना कतई आसान नहीं है। एक समय था जब मुझे लगता था कि मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है। जीने के सभी रास्ते बंद नजर आने लगे थे। मेरी बस यही इच्छा होती थी कि जल्द से जल्द खुद का खात्मा कर दूं। मैंने पहली बार अठाहरवीं मंजिल से कूदकर मर जाना चाहा, लेकिन डर ने मेरे कदम रोक दिए। दूसरी बार मैंने कई नींद की गोलियां निगल लीं। मेरी हालत बिगड गई। पूरे तीन साल तक अस्पताल में इलाज चलता रहा तब कहीं जाकर मैं मौत के मुंह से लौट पायी। तभी से मेरी आंखें खुल गर्इं। यह सच भी मेरी समझ में आया कि जीवन में अपनों के प्रबल साथ का होना बहुत जरूरी है। अपनों का मतलब है बुरे वक्त में साथ खडे होने वाले वे सभी शुभचिन्तक जिनकी प्रेरणा और सलाह मनोबल बढाती है।
महिला पुलिस अधिकारी शालिनी शर्मा आत्महत्या करने की ठान चुके लोगों को अपने तरीके से समझाकर उनके इरादे को बदलने में कामयाब रही हैं। वे कहती हैं कि हालात किसी भी व्यक्ति को जान देने को विवश कर सकते हैं। जब बर्दाश्त करने की क्षमता जवाब दे जाती है तो अच्छा भला इंसान भी खुद का हत्यारा बन जाता है। कई बार क्षणिक आवेग भी बेकाबू कर देता है। फिर भी अगर आत्महत्या करने के लिये उतारू लोगों के विचारों को किसी तरह से मोडा जाए तो उन्हें बचाया जा सकता है। शालिनी को वो दिन बार-बार याद हो आता है, जब उन्होंने तकरीबन तीस साल की एक महिला को अठारहवीं मंजिल से कूदने से किसी तरह से बचाया था। शालिनी का ध्यान जब उसकी तरफ गया तो वे तेजी से दौडती हुई छत पर जा पहुंची जहां से वह महिला बस छलांग लगाने जा ही रही थी। शालिनी ने महिला को फौरन दबोचने की बजाय उसके दिमाग पर हावी जिद और आवेश के पलों को शांत करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने उससे सवाल किया कि तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी इस गलती से तुम्हारे माता-पिता पर क्या गुजरेगी! वे तो जीते जी मर जाएंगे। महिला का जवाब था कि मेरी जिन्दगी पूरी तरह से तबाह हो चुकी है। कुछ भी नहीं बचा है। शालिनी ने उसे सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि सबकुछ बचा है अभी। इस अनमोल जिन्दगी को ऐसे ही खत्म करना अपराध है। यह भी जान लो कि अगर तुम कूदी तो मैं भी कूदकर अपनी जान दे दूंगी। मेरी आंखों के सामने तुम्हारा मरना मेरी बहुत बडी असफलता और नाकामी होगी। जब वह महिला उनकी बातों में उलझी थी तो उनकी टीम ने महिला के करीब जाकर उसका हाथ पकड लिया। महिला के विचार बदल चुके थे। यह महिला वकील है। आज उसने वकालत के क्षेत्र में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है। समाज सेवा में भी सक्रिय है।

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