Thursday, December 20, 2018

समुंदर के असली तैराक

वे अपंग हैं। देख और सुन नहीं सकते। चलने-फिरने में भी लाचार हैं। कुदरत ने यकीनन उनके साथ कहीं न कहीं अन्याय तो किया ही है। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला-शिकवा नहीं। उनकी ऊर्जा और कार्यक्षमता स्तब्ध कर देती है। दूसरों को कुछ कर गुजरने के लिए उकसाती है। उन्होंने यह भी आसानी से आत्मसात कर लिया है कि कमियों और गमों की चादर ओढने से तकलीफें और बढेंगी। अंधेरा और घना होता चला जाएगा। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में रहती है ३२ वर्षीय अंजना मलिक जो दोनों हाथों से दिव्यांग है। वह अपने पैरों से ऐसी-ऐसी मनोहारी पेंटिंग बनाती है जिसे कला के कद्रदान खुशी-खुशी हजारों रुपये में खरीद लेते हैं। पंद्रह साल पहले अंजना सडक के किनारे खडे होकर भीख मांगा करती थी। कई घंटे सर्दी, धूप और बरसात झेलने के बाद उसके भीख के कटोरे में बीस-पच्चीस रुपये ही जमा हो पाते थे। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में विदेशी पर्यटकों का भी आना-जाना लगा रहता है। सन २०१५ में घूमने आई एक अमेरिकी कलाकार स्टीफेनी की नजर अपने पैर की अंगुलियों से चार कोल का एक छोटा टुकडा थामे फर्श पर 'राम' शब्द उकेरने का प्रयास करती दिव्यांग अंजना पर पडी तो वह रूक गर्इं और काफी देर तक उसे निहारती रहीं। चित्रकार स्टीफेनी को अंजनी के भीतर छिपा कलाकार नज़र आ गया। वे अंजना के निकट जाकर बैठ गर्इं। उसके घर-परिवार के बारे में जाना। उन्होंने अंजना को स्वाभिमान से जीने के लिए अपने हुनर को विकसित करने का सुझाव दिया। इतना ही नहीं उस परोपकारी विदेशी महिला ने कुछ दिन ऋषिकेश में रूककर अंजना को चित्रकला का प्रशिक्षण भी दिया। यह अंजना की लगन ही थी कि वह देखते ही देखते देवी, देवताओं, पशु, पक्षियों और प्रकृति की सुंदरता को कागज़ पर साकार और आकार देने लगी। धीरे-धीरे उसके बनाये आकर्षक चित्रों के कद्रदान बढते चले गये और अच्छे दाम भी मिलने लगे। कभी फटे-कटे लिबास में भीख मांगने वाली अंजना आज चेहरे पर मुस्कान लिए पैरों की अंगुलियों से तूलिका थामे तरह-तरह के चित्र बनाती है तो नामी-गिरामी चित्रकार भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कभी अंजना और उसके परिवार को फुटपाथ पर रातें काटनी पडती थीं, लेकिन अब पूरा परिवार सर्व सुविधायुक्त किराये के घर में सुख-चैन के साथ रहता है। अंजना का अपने घर का सपना भी शीघ्र साकार होने जा रहा है। पेंटिंग बेचकर हजारों रुपये कमाने वाली अंजना को स्टीफेनी की बहुत याद आती है। वह उनसे मिलकर धन्यवाद... शुक्रिया अदा करना चाहती है। अगर उन्होंने उसे चित्रकला का हुनर न सिखाया होता तो वह आज भी सडक पर भीख मांग रही होती। हां, स्टीफेनी भी अंजना को नहीं भूली हैं तभी तो पिछले वर्ष उन्होंने अंजना को अमेरिका से एक पार्सल भेजा जिसमें उनके चित्रों का एक शानदार एलबम और कुछ उपहार थे।
पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं अनिल कुमार अनेजा। इनका संघर्ष आंख वालों की भी आखें खोल देता है। वे दिल्ली यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। समझौते की बजाय संघर्ष की पगडंडी में चलने की जिद का दामन तो उन्होंने तभी थाम लिया था जब उनकी स्कूल जाने की उम्र हुई थी। माता-पिता ने स्कूल भेजने से इनकार कर दिया था, लेकिन उन्होंने जिद पकड ली थी कि हर हालत में स्कूल जाएंगे और खूब पढेंगे-लिखेंगे। उनकी एक बहन भी थी जो उन्हीं की तरह दृष्टिहीन थी। उसने माता-पिता की बात मान ली थी। जब उन्होंने दो दिन तक खाना नहीं खाया और किसी से बातचीत नहीं की तो माता-पिता ने उनका स्कूल में दाखिला करा दिया। आगे का सफर तो और भी मुश्किल था, लेकिन अनिल की लगन और जिद हर संकट से टकराती रही। तब ब्लाइंड स्कूलों में म्यूजिक और हैंडिक्राफ्ट्स जैसी चीजों पर ही फोकस किया जाता था, लेकिन अनिल ने यहां भी जिद की, कि उन्हें सामान्य बच्चों की तरह दूसरे विषय पढने हैं। उन्हें दूसरों से कमतर न आंका जाए। शिक्षकों ने तो मान लिया था कि यह अंधा सामान्य बच्चों की तरह पढाई नहीं कर पायेगा, लेकिन अनिल ने साबित कर दिखाया कि वह किसी से कम नहीं है। जैसे दूसरे छात्र हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास, पालिटिकल साइंस और संस्कृत पढते हैं वैसे ही उसने उन्हें न सिर्फ जाना और समझा बल्कि दक्षता भी हासिल की। अपने मेहनत के बलबूते पर सीबीएसआई की मेरिट लिस्ट में आने वाले अनिल ने शिक्षकों की सोच को बदल दिया। उन्हें दिल्ली के सेंट स्टीफंस में इंगलिश ऑनर्स में एडमिशन मिल गया। पढाई के साथ-साथ उन्होंने नाटकों और भाषण प्रतियोगिताओं में भी जमकर हिस्सा लिया और नाम कमाया। दिल्ली यूनीवर्सिटी से एमफिल और पीएचडी करने के बाद वे १९७७ में रामजस कॉलेज में अंग्रेजी पढाने लगे। यह गरिमामय पद उन्हें आसानी से नहीं मिला। अधिकतर लोग यही मानते थे कि जो देख नहीं सकता वह दूसरों को पढा-लिखा भी नहीं सकता। यह तो मात्र एक पडाव था। उसके बाद उन्होंने और भी कई डिग्रियां हासिल करते हुए दृष्टिहीनों के अधिकारों की लडाई के प्रति खुद को समर्पित कर दिया। कई किताबे भी लिखीं। इस संघर्ष के महारथी को २०१४ में 'नैशनल अवार्ड' से सम्मानित किया गया। प्रोफेसर अनिल का कहना है कि यह तो अभी शुरुआत है। आगे बहुत कुछ करना बाकी है।
एस. रामकृष्णन की नौसेना में जाने की प्रबल तमन्ना थी। अपनी चाहत को पूरा करने के लिए उन्होंने खूब मेहनत की। सैन्य परिक्षण के दौरान उन्हें एक पेड से नीचे प्लेटफॉर्म पर कूदना था, लेकिन संतुलन बिगड गया। तय जगह के स्थान पर जमीन पर जा गिरे। इस दुर्घटना ने उन्हें अपंग बना दिया। शरीर के अधिकांश हिस्से निष्क्रिय हो गये। सभी सपनों की मौत हो गई। जीवन चुनौती-सा लगने लगा। जो युवक सैनिक बनकर देश की सेवा करना चाहता था उसकी दूसरों पर आश्रित रहने की नौबत आ गयी। ऐसे विकट काल में घर-परिवार और रिश्तेदारों ने पूरा साथ दिया। कुछ समय गुजरने के बाद उन्होंने दाल-रोटी के लिए अपने गांव में ही प्रिंटिंग प्रेस शुरू की, लेकिन लोगों के अविश्वास और असहयोग के कारण शीघ्र ही प्रेस पर ताला लगाना पडा। इस हकीकत ने उन्हें बेहद आहत किया कि अधिकांश लोग शारीरिक रूप से अक्षम इन्सान को पूरी तरह से नाकाबिल समझ लेते हैं। उस पर भरोसा ही नहीं करते। समाज की इसी बेरूखी ने उन्हें हिलाकर रख दिया और उनके मन-मस्तिष्क में यह विचार आया कि अपने देश में जो हजारों-लाखों दिव्यांग हैं क्यों न उनके लिए कुछ किया जाए। उनकी निराशा को आशा में बदला जाए। वे भी हंसते-खेलते हुए स्वाभिमान के साथ जीवन जी सकें। लोगों को भी बताया और समझाया जाए कि विकलांगता कोई बाधा नहीं है। यह तो हालातों का थोपा एक पडाव है जिसे दिव्यांग आसानी से पार कर सकते हैं। जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है। उन्होंने अपने विचार को सार्थक करने के लिए 'अमर सेवा संगम' नामक संस्था की स्थापना की जिसका सेवा कार्य अनवरत फैलता ही चला गया। किसी भी अच्छे काम की शुरूआत रंग लाती ही है। संगठन पूरी तरह से दिव्यांगों के प्रति समर्पित है। संगठन के लोगों के द्वारा हर उम्र और हर तरह के दिव्यागों की उनकी जरूरत के अनुसार मदद की जाती है। दिव्यांग शिशुओं की उनके जन्म से ही विशेष देखभाल करने वाली 'अमर सेवा संस्था' का काम आज आठ सौ से ज्यादा गांवों तक पहुंच चुका है। दिव्यांगों के लिए पूरी तरह से अपना जीवन समर्पित कर चुके एस. रामकृष्णन बताते हैं - हमारे पारदर्शी व्यवहार के कारण संस्था को देखते ही देखते सफलता मिलती चली गई और पता ही नहीं चला कि कैसे तीस वर्ष बीत गये। मैं मानता हूं कि अक्षमता की अवधारणा धीरे-धीरे खत्म हो रही है। पूरी तरह से अक्षम लोग भी खुलकर जीना चाहते हैं। उनकी इस भावना की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। उन्हें यह कतई नहीं लगना चाहिए कि ईश्वर ने उन्हें इस रूप में धरती पर भेज कोई बेइन्साफी की है।

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