Thursday, January 31, 2019

असहायों के लिए जंग

यह कितनी आसानी से कह दिया जाता है कि भारतवर्ष में कानून सभी के लिए समान है। कानून की नजर में कोई छोटा है, न बडा। कानून सभी को एक निगाह से देखता है। सच तो यह है कि यह कथन उन लोगों को मजाक सरीखा लगता है, जिन्होंने न्याय की आस में अपनी उम्र बिता दी है। यह कटु सच है कि गरीब, असहाय और कमजोर वर्ग को न्याय हासिल करने के लिए अथाह तकलीफें झेलनी पडती हैं। जीवन के कई कीमती वर्ष अदालत की दहलीज पर ही एडियां रगडते-रगडते बीत जाते हैं। तारीख पर तारीख का सिलसिला चलता रहता है। लाखों लोग अदालत से न्याय पाने की आस में जवान से बूढे और फिर अंतत: परलोक सिधार जाते हैं। वर्षों से हम यही सुनते चले आ रहे हैं कि अदालतों में दो करोड से ज्यादा केस लंबित हैं। समझ में नहीं आता कि जो सरकारें वोटरों को मुफ्त में चावल, लैपटॉप आदि देकर करोडों रुपये फूंक उन्हें मुफ्तखोर बनाती हैं, उनका इस गंभीर समस्या की तरफ ध्यान क्यों नहीं जाता! क्या आम लोगों के समय की कोई कीमत नहीं है? क्या उन्हें जल्द से जल्द न्याय पाने का अधिकार नहीं है? अदालतों का विस्तार तथा जजों की और नियुक्ति कर इस गंभीर जनसमस्या का समाधान किया जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने स्वार्थ को साधने के लिए करोडों रुपये उडाने वाले शासकों को इस अति आवश्यक कार्य में खर्च होने वाला धन फिजूलखर्ची लगता है। हमारे यहां कुछ लोगों ने वकालत को भी क्रूर व्यवसाय बनाकर रख दिया है। अधिकांश वकील पैसे के पीछे ही भागते हैं। उन्हें समाज के दबे-कुचले, शोषित, पीडित वर्ग को न्याय दिलाने की कभी भी नहीं सूझती। यह भी सच है कि अपवाद हर क्षेत्र में होते हैं, जिनमें समाजसेवा की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। वकालत के पेशे में कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना किसी लालच के अपने कर्तव्य का पालन करते हैं। ऐसी ही एक मिसाल हैं एडवोकेट इंदिरा दानू जिन्होंने अपने पिता, परिवार, समाज की परवाह किए बगैर नेपाली मूल की दुष्कर्म पीडिता नाबालिग को न्याय दिलाया। साल २०१८ में उत्तराखंड में स्थित खाली गांव में पुल निर्माण का काम चल रहा था। इसके ठेकेदार थे इंदिरा दानू के पिता। पुल निर्माण के दौरान गांव के ही एक दबंग व्यक्ति ने नेपाली मूल की दस वर्षीया बालिका पर बलात्कार कर दिया। बलात्कारी का गांव में काफी वजन था इसलिए मामले को दबाने की भरसक कोशिशें की गर्इं। पुलिस ने नेपाली मूल के होने के कारण पीडिता की ओर से मुकदमा ही दर्ज नहीं किया। जब इस मामले की जानकारी निर्भया प्रकोष्ठ की अधिवक्ता इंदिरा को हुई तो उन्होंने पीडिता को न्याय और अपराधी को सजा दिलाने की ठान ली। इंदिरा के इस फैसले का सभी गांव वालों ने पुरजोर विरोध किया। पिता भी खासे नाराज हुए। उन्हें लगा कि बेटी बगावत पर उतर आई है, लेकिन इंदिरा ने अपने निर्णय पर अडिग रहकर वारदात के एक महीने बाद पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। बिक चुकी पुलिस पर ऐसा दबाव बनाया कि आखिरकार उसे आरोपी को गिरफ्तार करना ही पडा। फिर कोर्ट में उन्होंने ऐसी मजबूत पैरवी की, जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ही महीने के बाद दुष्कर्मी को १२ साल की सजा हुई। पीडिता को आर्थिक सहायता के रूप में कोर्ट ने पांच लाख रुपये भी देने का आदेश दिया। एडवोकेट इंदिरा की तरह और भी कई महिलाएं हैं जो जनसेवा को ही अपना धर्म मानती हैं। उन्हें न तो प्रचार की भूख है, न ही पुरस्कारों की। वे निस्वार्थ बेबसों की सहायता में तल्लीन हैं। उन्हीं कर्मठ, जागरूक महिलाओं में से एक हैं निर्मला ठाकुर।
मूलत: काठमांडू की निवासी निर्मला १९९६ में अपने पति के साथ मुंबई आ गर्इं थीं। बचपन से उन्हें अखबार पढने का शौक था। इसे उनकी लत भी कह सकते हैं। ऐसे ही एक रोज अखबार में छपी एक खबर ने उनके जीने का अंदाज ही बदल दिया। वह खबर नेपाल से लाई गई कुछ बच्चियों के बारे में थी, जिन्हें मायानगरी मुंबई में जबर्दस्ती वेश्यावृत्ति में धकेल दिया गया था। बच्चियों से जबरन देह का धंधा करवाने के लिए उन्हें कैसी-कैसी यातनाएं दी जाती हैं इसका विवरण पढकर उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड गई। काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने तय कर लिया कि वे किसी भी हालत में उन बच्चियों को यातना के पिंजडे से आजाद करवा और अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजकर ही दम लेंगी।
बीस वर्षों से बच्चियों को देह के धंधे के दलदल और तस्करों के चंगुल से बचाने में लगीं निर्मला ठाकुर को शुरू-शुरू में कई मुश्किलों का सामना करना पडा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। निर्मला को अपने पति के विरोध का भी सामना करना पडा। ऐसा भी होता था कि निर्मला को रात को जिस्म के सौदागरों के चंगुल में फंसी लडकी की खबर मिलती थी तो वे अपनी नवजात बच्ची को घर में छोडकर निकल पडती थीं। पति के गुस्से का पारा आसमान पर चढ जाता था। फिर भी बदनाम बाजार को बंद करवाने की निर्मला की जिद बरकरार रही। जब उन्होंने शुरुआत की थी तब वे अकेली थीं, लेकिन आज उनके कारवां में कई महिलाएं और पुरुष शामिल हो चुके हैं। उन्हें जैसे ही खबर मिलती है कि महानगर के किसी बदनाम बाजार में नेपाल, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल या अन्य किसी जगह की लडकियों को लाकर बेचा गया है तो वे अपने दल-बल के साथ वहां पहुंच जाती हैं। इस काम में पुलिस की भी सहायता लेती हैं। निर्मला ठाकुर को तब बडा गुस्सा आता है जब वे कुछ खाकी वर्दीधारियों को चंद सिक्कों में बिकते देखती हैं। अनेक बच्चियों को तस्करों के चंगुल से बचा और व्यस्क सेक्स वर्करों का पुनर्वास कर चुकीं निर्मला ठाकुर बताती हैं कि कई बार तो उन्हें अपने सहयोगी को ग्राहक बनाकर दलाल के पास भेजना पडता है, जो उससे लडकी का सौदा तय करता है। कमरे में जाने के बाद वह लडकी से उसी की भाषा में बात करता है और उसे योजना की जानकारी देता है। अधिकांश लडकियां कैद से मुक्ति चाहती हैं इसलिए वहां चल रहे देह धंधे की खुफिया जानकारी दे देती हैं। पुख्ता जानकारी मिलने के बाद पुलिस को खबर दी जाती है। अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित निर्मला ठाकुर को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा जा चुका है।

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