Thursday, April 4, 2019

वादों का चुनाव

लीडर के मुंह पे वादों का तूफान-सा क्यूं है?
जनता के लिए फिर भी ये अनजान-सा क्यूं है?
दे वोट किसे, किसको चुने, ये ही सोचकर-इस
शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है?
चिंतनशील कवि गजलकार अशोक अंजुम की उपरोक्त पंक्तियां आज के चुनावी मौसम का सच बयां कर रही हैं। देश की आम जनता जिसे राजनेता, सत्ताधीश महज वोटर मानते हैं, आज वह असमंजस के जाल में जकडी है। लोकसभा का चुनाव लड रहे प्रत्याशी उसके जाने-पहचाने होने के बावजूद भी अनजाने से हैं। उनका संदिग्ध चाल-चलन उसे परेशान किये है। देश को आजाद हुए सत्तर से ज्यादा साल बीत गये, लेकिन आम देशवासियों को मूलभूत सुख-सुविधाएं तक हासिल नहीं हो पायीं। हर पांच साल बाद विधानसभा और लोकसभा के चुनाव होते हैं। लगभग वही खिलाडी अपनी-अपनी पार्टी का झंडा थामकर वोट मांगने के लिए उनके द्वार आ खडे होते हैं। अब तो वोटर थक गये हैं। धोखाधडी और छल-कपट की इंतहा हो चुकी है। नेताओं ने भले ही वादे पर वादे करने के बाद भी गरीबी का खात्मा न किया हो, बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध न कराये हों, लेकिन वोटरों ने उन्हें विधायक और सांसद बनाकर उनके हुलिये को बदल दिया है। खाकपति करोडपति हो गये हैं। उन्हें स्थायी रोजगार मिल गया है। सच कहें तो भारत वर्ष में नेताओं के लिए राजनीति ऐसा रोजगार है जिससे उनकी कई पीढ़ियां तर जाती हैं। जैसे ही चुनावी शंखनाद होता है इस देश के अधिकांश नेता अपने चेहरे पर कोई नया नकाब लगा लेते हैं। इनकी टीम नये-नये नारे गढने में लग जाती है। १९७१ में इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' के नारे को उछालकर चुनाव जीता था। आज उनका पोता राहुल गांधी देश के पांच करोड परिवारों को सालाना ७२००० रुपये देने के वादे के साथ लोकसभा के चुनावी मैदान में छाती तानकर खडा है। बडे-बडे अर्थशास्त्री राहुल के इस ऐलान से हैरान-परेशान हैं, लेकिन राहुल कहते हैं कि उन्होंने विश्व के बडे-बडे धुरंधरों के साथ सलाह-मशविरे के बाद ही यह घोषणा की है। राहुल यह तो बताने और समझाने से रहे कि अभी तक वे कहां सोये थे। नरेंद्र मोदी की भाजपा के केंद्र की सत्ता पर आने से पहले पूरे दस साल तक उनकी सरकार थी। दरअसल सत्ता खोने के बाद ही उनके दिमागी घोडे कुछ ज्यादा ही दौडने लगे हैं। अब उनका पूरा ध्यान फिर से केंद्र की सत्ता पाने में लगा है। उनका बस यही सपना है चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री न बन पाएं। नरेंद्र मोदी एंड कंपनी भी ठाने है कि वह राहुल गांधी के ख्वाब को किसी भी हालत में साकार नहीं होने देगी। दरअसल, यह कुर्सी की लडाई है, जिसमें इस देश की आम जनता पिस रही है। पिसती आई है। देश की ही एक अन्य राजनीतिक पार्टी सीपीआईएम ने मतदाताओं को अपने जाल में फंसाने के लिए यह ऐलान किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो न्यूनतम वेतन १८,००० रुपये प्रतिमाह कर दिया जायेगा। राजनीतिक पार्टियों के द्वारा मतदाताओं को प्रलोभित करने का यह अंदाज यही बताता है कि राजनीति उनके लिए कोई भव्य मॉल है, मंडी है और मतदाता उसके ग्राहक हैं, जिन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए वे उन्हें तरह-तरह के ऑफर दे रहे हैं। सच तो यह है कि यह व्यापारिक सोच छल-कपट और भ्रष्टाचार वो चेहरा है जिसने देशवासियों को सतत छला और लूटा है। कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार भारत वर्ष के विकास के मार्ग की सबसे ब‹डी बाधा है। इस बाधा को दूर करने के लिए वर्षों से राजनेता और सत्ताधीश ढोल बजाते चले आ रहे हैं, लेकिन सच क्या है उसे जनता अच्छी तरह से जानती है। फिर ऐसे में सवाल उठता है कि वह कौन-सी मजबूरी है कि वह बार-बार चोर-उचक्कों, लुटेरों, ठगों और बेईमानों को अपना वोट दे देती है? इस बार के लोकसभा के चुनाव में गरीबी, भुखमरी, किसान आत्महत्या, बेरोजगारी, दलितों पर बढते अत्याचार पर कोई दल बात नहीं कर रहा है। हैरतअंगेज उत्तेजना का वातावरण बना दिया गया है। प्रत्याशी तो उत्तेजित हैं ही, मतदाताओं की उत्तेजना भी देखने बन रही है। चुनावी मैदान में धनपतियों का धनपतियों से मुकाबला है। जो गरीब लोकसभा का चुनाव ल‹ड रहे हैं उनकी किसी को खबर ही नहीं है। बस मालदारों का ही डंका बज रहा है। मेरे पाठक मित्रों, आपको यह जानकर घोर अचंभा हो सकता है कि राजनीति की बदौलत करोडों-अरबों की दौलत जुटाने वाले विधायकों, सांसदों की भीड में कुछ ऐसे अजब-गजब जनप्रतिनिधि भी हैं जिन्होंने सच और ईमानदारी का दामन कभी भी नहीं छोडा। भ्रष्टाचार क्या होता है इसका भी उन्हें पता नहीं है। अपने इरादों पर अटल रहने वाले एक नेक नेता हैं उत्तर प्रदेश के आलम बदी। ८२ वर्षीय आलम बदी समाजवादी पार्टी की टिकट पर निजामबाद से चुनाव लड कर विधायक बने हैं। पहले भी तीन बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके आलम सुबह से शाम तक जनता के बीच रहते हैं। किसी भी चुनाव में उन्होंने दो लाख रुपये से ज्यादा खर्च नहीं किए। उनकी सहजता और सादगी ही उनकी पूंजी है। हाथ में १२०० रुपये का मोबाइल, बीस रुपये मीटर के टांडे के कपडे का कुर्ता पायजामा, मामूली-सी चप्पल, छरहरा बदन और चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास उनकी ईमानदारी की गवाही देता प्रतीत होता है। वे विधायक निधि के एक-एक पैसे का हिसाब रखते हैं। जहां उन्हें लगता है कि ठेकेदार ने काम में कोई गडबडी की है तो उसका भुगतान रुकवा देते हैं। सही मायने में यही वो राजनेता हैं जो न खाते हैं, न खाने देते हैं। २००७ में प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने उन्हे मंत्री बनाना चाहा था, लेकिन उन्होंने यह कहकर स्पष्ट इनकार कर दिया था कि मैं जिस साधारण से कमरे में रहता हूं उसका त्याग नहीं कर सकता। मुझे लालबत्ती की गाडी और बंगले का शौक नहीं है। मैं तो उसी जनता के बीच रहकर उसकी सेवा करना चाहता हूं जो चुनाव में मेरे कार्यकर्ता बन मुझे हर बार विजयश्री दिलवाते हैं। आज के इस ठाठ-बाट के दौर में कोई यदि पार्षद भी बन जाता है तो एक अजीब तरह का गरूर उसके चेहरे से झलकने लगता है। वह उन लोगों को भी अपने से कमतर मानने लगता है, जो उसे वोट देकर यह सम्मान दिलाते हैं। विधायक-सांसद बनने के बाद तो नेताजी के वारे-न्यारे हो जाते हैं। बंगलों, फार्म हाऊसों, स्कूल-कॉलेजों और कारों की कतार-सी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे इन्हीं को पाने के लिए ही बंदे ने राजनीति का दामन थामा है। बलरामपुर से माले के विधायक हैं महबूब आलम। हकीकत में यह भी नेता हैं, लेकिन आम नेताओं जैसे यह बिलकुल नहीं हैं। यह विधायक महोदय जैसे पहले थे वैसे ही आज हैं। रिक्शे पर चलते हैं। सरकार हर विधायक को दो बॉडीगार्ड देती है। रिक्शे पर उनके साथ एक बॉडीगार्ड बैठ पाता है इसलिए उन्होंने दूसरे बॉडीगार्ड को सरकार के पास वापस भेज दिया है। इनका कहना है कि वह आम जनता के विधायक हैं, इसलिए ताउम्र उसी की तरह रहना और जीना चाहते हैं। अगर उन्हें धन कमाना होता तो कोई धंधा करते, राजनीति में नहीं आते। 

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