Thursday, April 11, 2019

लोकतंत्र की बंद और खुली आँखें

''कुछ कहते, ‘फिर कमल खिलाना दिल्ली में।
कुछ कहते, ‘हाथी पहुंचाना दिल्ली में।
कुछ पंजा, कुछ झाडू लेकर निकले हैं
कुछ चाहें साइकिल से जाना दिल्ली में।
जाति-धर्म की रौ में फिर से भटक न जाना वोटर जी!
सोच-समझकर अब चुनाव में बटन दबाना वोटर जी।''
मतदाताओं को सचेत करती अशोक अंजुम की लिखी उपरोक्त पंक्तियां पढने के बाद मेरे मन में कई विचार आते रहे। अंतत: मैंने यही निष्कर्ष निकाला जो काम देश के पत्रकारों और संपादकों को बडी निर्भीकता के साथ करना चाहिए था उसे देश के कुछ सजग कवि, गजलकार और व्यंग्यकार बखूबी कर रहे हैं। मुझे यह लिखने में भी कोई संकोच नहीं हो रहा है कि जहां अधिकांश पत्रकार अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं वहीं साहित्यकारों की लेखनी और सोच काफी असरकारी हो रही है। २०१९ के लोकसभा चुनावों को कई कारणों से याद किया जायेगा। २०१४ का लोकसभा चुनाव परिवर्तन का चुनाव था। देश के सजग वोटरों ने अपना फर्ज निभाया, लेकिन उनके हिस्से क्या आया? जिन उम्मीदों के साथ पुरानों को दरकिनार कर नयों को सत्ता सौंपी गयी, वे लगभग धरी की धरी रह गईं। सरकार ने पुल, सडकें, मेट्रो, शौचालय निर्माण, उज्जवला योजना, बैंक खातों की आधी-अधूरी सौगातें देकर यही मान लिया कि उसने अपने सभी वादे पूरे कर दिये। बेरोजगारी, भूखमरी, दलितों, शोषितों और महिलाओं पर अत्याचार जस के तस बने रहे। नागपुर के एक चुनावी मंच पर एक युवा नेता ने डंका बजाने के अंदाज में कहा कि मुझे पता चला है कि पति बदलने वाली महिला की बिंदी भी बढती चली जाती है। उनका यह शर्मनाक प्रहार केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी पर था। भेदभाव और भ्रष्टाचार का भी खात्मा नहीं हो पाया। सच तो यह है कि जिन जनहित कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी, उनकी अनदेखी की गई। भारत के करोडों लोग रोजगार तथा रोटी, कपडा और मकान की जिस गंभीर समस्या से वर्षों से त्रस्त हैं उसका हल करने की पहल ही नहीं की गई। हां दावे और बडी-बडी बातें जरूर की गईं। ऐसे में लोग यह कहने और सोचने को मजबूर हो गये :
 "न उनसे हुआ भला, न इनसे हुआ भला
काटा है सबने आज तक कमजोर का गला
कुर्सी पर बैठा जो भी उल्लू बन गया
नेता का जिस्म एक ही सांचे में ढला
वो नागनाथ थे तो ये सांपनाथ हैं
बाँबी में हाथ डाला हमको पता चला
बहुरुपिये हुये सब बदले हैं मुखौटे
जनता को खूब आज तक हर एक ने छला
सींचा है जैसे-जैसे यह सूखता गया
जनतंत्र का यह वृक्ष अब तक नहीं फला।"
देश के वातावरण में ज़हर घोलने की राजनीति ने हर उस देशवासी को आहत किया जो यह मानता है कि आपसी सदभाव ही हिन्दुस्तान की मूल पहचान है। भाईचारे के हत्यारे नेता और सत्ताधीश पता नहीं क्यों इस भ्रम में जीते हैं कि उनके लिए चुनाव जीतना बहुत आसान है। अधिकांश वोटर उनके साथ हैं। दुनिया की कोई ताकत उन्हें पराजित नहीं कर सकती। वे सिर्फ और सिर्फ शासन करने के लिए ही जन्मे हैं। ऐसी अंधी सोच रखने वालों पर ही शायर राहत इंदौरी ने जो शाब्दिक चोट की है, दरअसल यह आक्रोश में डूबे उन भारतीयों की चेतावनी है जिन्हें सत्ता के भूखे अहंकारी शासक शूल की तरह चुभते हैं:
"जो आज साहिबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, जाती मकान थोडी है...
सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दुस्तां थोडी है..."

देशवासी असली सच से अनजान रहें इसके लिए नेताओं की जमात तरह-तरह के नाटक करते नहीं थकती। बंद कमरों में यह एक हो जाते हैं। मिल बांटकर खाते-खिलाते हैं और मंचों पर जनता को खूब बेवकूफ बनाते हैं। दिखावे के लिए एक-दूसरे पर कीचड उछालने और खुद को ईमानदार घोषित करने की कला तो जैसे इन्होंने विरासत में पायी है। यह ऐसे जादूगर हैं जो होते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं। २०१९ के लोकसभा चुनाव में खूब धन बरसा और बरसाया जा रहा है। काले धन की बरामदी के लिए छापेमारी भी हो रही है। पूरे देश में अभी तक चार सौ करोड के आसपास काला धन पकड में आया है, जिसे चुनाव में फूंका जाना था। शराब के जखीरे और बेहिसाब सोना-चांदी की बरामदगी यही बताती है कि इस देश में कुछ भी नहीं बदलने वाला। जनता के साथ छल-कपट करने का सिलसिला सतत बना रहने वाला है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमल नाथ के रिश्तेदारों और करीबियों के विभिन्न ठिकानों से करोडों-करोडों रुपये की बेहिसाबी रकम, सोने-चांदी और शराब के जखीरे मिलना तो यही बताता है कि अपवादों को छोडकर बाकी सब सफेदपोश ऐसे चोर-लुटेरे हैं जो प्रदेश और देश को दीमक की तरह चाटने और खोखला करने के लिए राजनीति में घुसपैठ कर चुके हैं। यह भी सच है कि कमल नाथ का काला सच सामने आने के बाद भी लोगों को अधिक हैरानी नहीं हुई। उन्हें पता है जो पक‹डा गया वही चोर- बाकी सभी ईमानदार और साहूकार। यहां कोई राजनेता और पार्टी दूध की धुली नहीं। यहां का कोई नेता बुद्धू नहीं। चालाकी उनमें कूट-कूट कर भरी है। भावना ने सच ही तो लिखा है:
"दाने से मछलियों को लुभाता रहा,
क्या हकीकत थी, क्या दिखाता रहा,
था अजब उसके कहने का अंदाज भी,
कुछ बताता रहा, कुछ छिपाता रहा।"

सच तो यह भी है कि अधिकांश राजनीतिक दल और उनके मुखिया बेनकाब हो चुके हैं। चुनावों में हर दल धनबल की बैसाखी का सहारा लेता है। मीडिया और मतदाताओं को खरीदने में प्रतियोगिता होती है। येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए सभी हथकंडे आजमाना भी राजनीति का दस्तूर बन गया है। जाने-माने व्यंग्यकार सुभाष चंदर की यह पंक्तियां नितांत गहरी हकीकत को बयां कर रही हैं :
"चुनाव में जादू है साहब! इस जादू में कुछ मुर्दे भी ज़िन्दा हो जाते हैं। फिर वोट डालकर अंगुलियों की स्याही मिटाकर, फिर मर जाते हैं।"
हमारे देश के राजनीतिक दल हर चुनाव में नया घोषणा पत्र पेश करते हैं, जिसमें नये-नये वादों, प्रलोभनों की भरमार होती है। विख्यात व्यंग्यकार अविनाश बागडे की निम्न पंक्तियां उन दलों पर तमाचा हैं जो पुराने वादे तो पूरे नहीं करते और नया 'वादा पत्र' पेश करने में कतई नहीं लज्जाते।
"काश! सियासी दल सभी, करते इतना काम
गत चुनाव का घोषणा पत्र भी, कर देते आम।"


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