Thursday, July 11, 2019

चिकित्सा के क्षेत्र में डाकू और साधु

बीस साल के फुरकान को सडक दुर्घटना में बुरी तरह से जख्मी हो जाने के कारण एक प्रायवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित इस अस्पताल के डॉक्टरों ने फुरकान के परिजनों को बताया कि मामला काफी गंभीर है। परिजनों ने डॉक्टरों के कथन के पीछे के आशय को समझते हुए स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी तरह से उनके युवा बेटे को बचायें। बिल की कतई चिन्ता न करें। डॉक्टरों ने इलाज प्रारंभ कर दिया। पांच-छह दिन बाद सात लाख रुपये का बिल थमा दिया गया। परिजनों ने अपनी जमा पूंजी और यहां-वहां से जुगा‹ड कर अस्पताल का बिल चुका दिया। अब उनकी जेब में एक फूटी कौडी भी नहीं बची थी। उन्हें तो सिर्फ अपने बेटे की चिन्ता थी। डॉक्टरों ने भी उसके पूरी तरह से भला-चंगा होने का आश्वासन दिया था। दो दिन बाद फिर से फुरकान के पिता से और रकम की मांग की गयी। पिता के यह बताने पर कि अब मेरे पास और पैसे नहीं हैं तो कुछ ही घण्टों के बाद डॉक्टरों ने फुरकान को मृत घोषित कर दिया। इतना ही नहीं उसके शव को एंबुलेंस के जरिए घर भी पहुंचा दिया। घर वाले सीने पर पत्थर रखकर अपने लाडले को दफनाने की तैयारी में जुट गये। कब्र भी खोद ली गई। तभी अचानक उन्हें फुरकान के शरीर में हरकत दिखाई दी। वे लोग उसे फौरन राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले गये। वहां डॉक्टरों ने बेटे को जिन्दा बताया और तुरंत वेंटिलेटर सपोर्ट पर रख दिया। डॉक्टरों ने बताया कि मरीज की हालत गंभीर जरूर है, लेकिन वह ब्रेन डेड नहीं है। उसकी नाडी, ब्लडप्रेशर और दिमाग काम कर रहा है। ऐसे अस्पतालों और डॉक्टरों के कारण ही ईमानदार डॉक्टरों को भी शंका की निगाह से देखा जाने लगा है। चिकित्सा के पावन पेशे में भ्रष्टाचार के घर कर जाने के कारण लोगों ने अब चिकित्सकों को 'भगवान का दर्जा' देना लगभग बंद कर दिया है। धन कमाने का सभी को अधिकार है, लेकिन चिकित्सा के पेशे की कुछ मर्यादाएं हैं, जिनका पालन नहीं करने वाले डॉक्टरों के कारण ही उन्हें माफिया भी कहा जाता है। यह धूर्त लोग मरीजों को डराते हैं और उनकी जेबों पर ब‹डी आसानी से डाका डालते हैं। भ्रष्टाचार में लिप्त डॉक्टरों की दवा कंपनियों, दवाई दुकानों, पैथलैब, साथी डॉक्टरों और पता नहीं कहां-कहां से कमीशन बंधी होती है। यह लोग मरीजों के परिजनों को ब्रांडेड दवाएं खरीदने को विवश करते हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा कमीशन हासिल हो। मेडिकल कॉलेजों में लाखों रुपये के डोनेशन, रिश्वत देकर डॉक्टर बनने वाले भारत के अधिकांश युवा शहरों में बडे-बडे अस्पतालों में नौकरी बजाते हुए धन कमाने को प्राथमिकता देते हैं। उन्हें ग्रामों के प्रति कोई लगाव नहीं है। इसकी एक मात्र वजह यही है कि वहां पर उनके धनपति बनने के अरमान पूरे नहीं हो सकते। वहां पर उन्हें शहरों वाली सुख-सुविधाएं नहीं मिल पातीं। भौतिक सुविधाओं के घोर लालची डॉक्टरों की भीड में कुछ डॉक्टर ऐसे भी हैं जो अपनी जान को जोखिम में डालकर नक्सलग्रस्त इलाको में वर्षों से जनसेवा कर रहे हैं। वे भी अगर चाहते तो डॉक्टरी की डिग्री हासिल करने के बाद शहरों, महानगरों में लूटमार करते हुए मौज की जिन्दगी जी सकते थे। उन्हें किसी ने रोका नहीं था। उनकी सेवा भावना उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में ले गयी। जहां पर वे निशुल्क या नाम मात्र की फीस लेकर मरीज और डॉक्टर के सच्चे रिश्ते को और मजबूती प्रदान कर रहे हैं। डॉ. अभय बंग और उनकी धर्मपत्नी डॉ. रानी बंग दोनों कई वर्षों से गडचिरोली के नितांत पिछडे इलाकों में बच्चों के इलाज को अपने जीवन का एक लक्ष्य बना चुके हैं। बंग दम्पति ने अमेरिका के जॉन होपqकग्स यूनिवर्सिटी से जन स्वास्थ्य में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ही दृढ निश्चय कर लिया था कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित गडचिरोली को ही अपना कार्यक्षेत्र बना कर अपनी पढाई का सदुपयोग करना है। वर्ष १९८८ में नवजातों की मृत्यु की खबरें अखबारों में अक्सर प‹ढने को मिलती थीं। देश में नवजातों की मृत्यु के मामलों में ग‹डचिरोली प्रथम क्रमांक पर था। इंसानियत की पावन भावना से ओतप्रोत बंग दम्पति ने बच्चों का जीवन बचाने के लिए निशुल्क इलाज करने का ऐसा कीर्तिमान रचा कि नवजात शिशु मृत्यु दर काफी घट गई। उनकी इसी निस्वार्थ जन सेवा के फलस्वरूप भारत सरकार द्वारा उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया। डॉ. आशीष सातव व डॉ. कविता सातव भी पिछले बीस वर्ष से गडचिरोली में गरीबों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाते चले आ रहे हैं। महज दस रुपये से तीस रुपये तक फीस लेने वाले यह सेवाभावी डॉक्टर पति-पत्नी असमर्थ मरीजों का पूरी तन्मयता के साथ नि:शुल्क इलाज भी करते है। उनकी सार्थक कोशिशों के परिणाम स्वरूप अब गडचिरोली इलाके में मृत्यु दर में ५८ फीसदी और कुपोषण में २५ फीसदी की कमी आई है। डॉक्टर रविन्द्र कोल्हे और डॉक्टर स्मिता कोल्हे दोनों पिछले ३४ वर्षों से अमरावती के ग्रामीण ऐसे इलाके में गरीबों और असहायों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवा रहे हैं, जहां पहुंचने के लिए मुख्य जिले से २५ किमी बस से और फिर ३० किमी पैदल चलकर जाना पडता है। इस गांव का उन्होंने पूरी तरह कायाकल्प कर दिया है। खेती-किसानी में अभिरुचि रखने वाली इस दम्पति को इसी वर्ष यानी २०१९ में भारत सरकार ने 'पद्मश्री' से नवाजा है। दोनों का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में भले ही कमायी नाम मात्र की होती है, लेकिन जो सम्मान, संतुष्टि और खुशी मिलती है उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना असंभव है।
राजस्थान के गुलाबी शहर जयपुर के कोटपूतली में वर्षों से बच्चों का इलाज करते चले आ रहे शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. रामेश्वर यादव यदि चाहते तो आज करोडों-अरबों रुपये कमाते हुए ऐश कर रहे होते, लेकिन डॉक्टरी उनके लिए कारोबार नहीं, जनसेवा का पवित्र माध्यम है। उनकी पत्नी भी डॉक्टर हैं। डॉ. रामेश्वर यादव बच्चों के इलाज के लिए नाम मात्र की फीस लेने के लिए दूर-दूर तक जाने जाते हैं। उनकी पत्नी भी समाजसेवा के प्रति पूर्णतया समर्पित हैं। एक दिन जब दोनों पति-पत्नी अपने गांव चूरी जा रहे थे तो उन्होंने चार लडकियों को रास्ते में बारिश में भीगते हुए देखा। उन्होंने तुरंत अपनी कार रोककर लडकियों को अपनी कार में बिठाया। ल‹डकियों से बातचीत में उन्हें पता चला कि परिवहन सेवा के अभाव में कई छात्राओं को हर रोज मीलों पैदल आना-जाना पडता है। गुंडे-बदमाश उन पर निगाहें ग‹डाये रहते हैं। मौका पाते ही अश्लील हरकते करने लगते हैं। पति-पत्नी ने स्कूली और कॉलेज की छात्राओं की रोजमर्रा की समस्या को गंभीरता से समझा और समाधान भी कर दिया। उन्होंने अपने जीवनभर की जमा रकम बैंक से निकालकर बस खरीदी। बावन सीटों वाली यह बस प्रतिदिन छात्राओं को स्कूल-कॉलेज ले जाती है, फिर घर छोडती है। डीजल और ड्राइवर का वेतन अपनी जेब से देने वाली इस दम्पति के पास बारह साल पुरानी मारुति ८०० है। नई महंगी कार लेने की कभी उनकी इच्छा भी नहीं हुई। परिवहन सुविधा उपलब्ध होने से वो माता-पिता भी अपनी बेटियों को सहर्ष कॉलेज भेजने लगे हैं, जो निजी वाहनों में होने वाली छेडछाड की घटनाओं की वजह से कतराते और घबराते थे। डॉ. रामेश्वर यादव के इस सेवा कार्य ने गरीब बेटियों का मनोबल बढाया है। पढ-लिखकर वे भी समाज सेवा करना चाहती हैं।

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