Thursday, July 18, 2019

क़ातिलों की भीड में...

कुछ खबरों को पढ-सुनकर कंपन-सी होने लगती है। दिमाग के सोचने के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। मुझे नहीं मालूम कितने लोगों के साथ ऐसा होता है? मेरे साथ तो अक्सर यही होता है कि कुछ हैरतअंगेज दिल को दहलाने वाली खबरों को भुला पाना मुश्किल हो जाता है। उन्हीं के ताने-बाने में उलझ कर रह जाता हूं। अनंत सवाल और चिन्ताएं घेर लेती हैं। उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले में एक मां ने अपने ही मासूम बच्चे की हत्या कर दी। मां ऐसा कैसे कर सकती है? लेकिन यह अपराध हुआ...! तीन बच्चों की मां रुखसार का आठ माह का पुत्र तीन दिन से भूखा था। लाख कोशिशों के बाद भी वह अपने लाडले बेटे के लिए दूध की व्यवस्था नहीं कर पाई थी। कई घण्टों से बच्चा भूख से चीख रहा था। तडप रहा था। उसने कई बार नादान बच्चे को पानी पिलाकर सुलाने की कोशिश की। तीन दिन से भूखे बच्चे को नींद कैसे आती? उसका खाली पेट विद्रोह करता रहा। रोना असहनीय चीखों में तब्दील होता चला गया। उस मासूम के दोनों भाई-बहन मां की विवशता को समझते थे। इसलिए भूखे होने के बावजूद चुप थे। मां ने दूध खरीदने के लिए घर का सामान भी बेच डाला था। अब तो कुछ भी बाकी नहीं बचा था, जिसे बेचकर खाद्य पदार्थों एवं दूध का इंतजाम कर पाती। उसका पति मुंबई में नौकरी करता है। उसने भी कई महीनों से पैसे नहीं भेजे थे। वह अपने आठ माह के बच्चे को घर में छोडकर काम पर भी नहीं जा सकती थी। मां के लिए अंतत: बच्चे की तडपन को बर्दाश्त कर पाना असहनीय हो गया। उसने उसका गला घोंटकर हमेशा-हमेशा के लिए उसे मौत की नींद सुला दिया। एक बेगुनाह मासूम बच्चा इस दुनिया से विदा हो गया। कटघरे में 'मां' है, जो अपनी औलाद को बडे लाड-प्यार से पालती है, कभी सपने में भी उनका बुरा नहीं सोच सकती। मां की हत्यारिन बनने की खबर सूखे जंगल की आग की तरह फैल गयी। जिस घर की तरफ कोई ताकता भी नहीं था वहां समाज सेवकों और नेताओं की भीड लग गई। तरह-तरह की बातें की जाने लगीं। मोहल्ले वाले हैरान-परेशान थे कि यह अनहोनी कैसे हो गई! इतनी अधिक परेशानी थी तो हमें खबर कर दी होती। हम मिल-जुलकर थोडी-बहुत सहायता तो जरूर कर देते। नेता और समाज सेवक भी शासन और प्रशासन को कोसने में लग गए। पुलिस ने हत्यारी मां रुखसार को हिरासत में ले लिया। उसकी मां ने कोतवाली में जाकर जबरदस्त हंगामा मचाया। चीख-चीख कर कहा कि उसकी बेटी ने मजबूरी में यह अकल्पनीय अपराध किया है...।
सच कहें तो असली अपराधी तो गरीबी है, जो गरीबों के लिए मौत का फंदा बनी हुई है। किसी अमीर परिवार के बच्चों की भूख से तडप-तडप कर मरने की खबर कभी भी पढने-सुनने में नहीं आई। कभी भी सुनने में नहीं आया कि किसी अमीर का बच्चा सर्दी और लू लगने के कारण मर गया हो, बाढ ने उसके प्राण ले लिए हों, कोई गटर, गह्ना, नदी, नाला उसकी जान का दुश्मन बन गया हो। तमाम प्राकृतिक आपदाएं और रहस्यमय बीमारियां भी गरीबों के बच्चों पर ही भारी पडती हैं। यहां तक कि अस्पतालों में भी दवाइयों और आक्सीजन के अभाव में गरीबों के सैकडों बच्चे हर वर्ष मौत के मुंह में समा जाते हैं। डॉक्टरों की घोर लापरवाही भी इन्हीं पर जुल्म ढाती है।
हमारी इस धरती पर कई लोग ऐसे हैं जो अपने दु:ख कभी उजागर नहीं करते। अपनी कमियों और कमजोरियों को अपना मुकद्दर मानकर योद्धा की तरह लडते रहते हैं। खुद का भोगा हुआ यथार्थ उन्हें अच्छी तरह से यह पाठ पढा देता है कि अगर अपने स्वाभिमान को बरकरार रखना है तो चुपचाप संकटों से सतत जूझते रहना होगा? दूसरों को अपना दुखडा सुनाने पर मज़ाक के पात्र बन जाएंगे। उन्नीस वर्षीय अविंशु पटेल, जिसने बीते सप्ताह समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर ली, वह अपनी जिन्दगी अपने तौर-तरीकों के साथ जीना चाहता था। उसे बेवजह की दखलअंदाजी और तानेबाजी शूल की तरह चुभती थी। अविंशु समलैंगिक था। शरीर से भले ही लडका था, लेकिन उसका मन था लडकी का। हमारा समाज सिर्फ दो जेंडर्स (लिंग) को ही सम्मान के साथ जीने के लायक मानता है। तीसरे जेंडर को बेइज्जत करने में उसे खुशी मिलती है। अथाह आनंद की अनुभूति होती है। उन्हें हिजडा, नपुंसक कहने के साथ-साथ गंदी-गंदी गालियां देकर खुद की मर्दानगी पर गर्व किया जाता है। भावुक अविंशु ने पढाई करने के बाद चेन्नई की एक कंपनी में नौकरी हासिल कर ली थी, लेकिन फिर भी चौबीस घण्टे उसे यह पीडा सताती रहती थी कि लोग उसका मजाक उडाते हैं। उसे प्रताडित करने के बहाने ढूंढे जाते हैं। उसके माता-पिता ने उसके साथ कभी कोई भेदभाव नहीं किया। अच्छी तरह से पाला-पोसा और पढाया-लिखाया। सरकार ने भी समलैंगिकों को कानूनी मान्यता दे दी है, लेकिन लोग हैं कि बदलने को तैयार नहीं हैं। मैं मरने के बाद भगवान से पूछूंगा कि आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया। शरीर तो मुझे लडके का दिया, मगर सोच और भावनाएं लडकियों सी दे दीं?

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