Thursday, July 25, 2019

ये कैसा अंधेरा है?

कहानी, उपन्यास, कविताएं, गजलें, निबंध, आत्मकथाएं, यात्रा संस्मरण, लघुकथाएं आदि-आदि। कितना कुछ लिखा जा रहा है। किताबें भी धडाधड छप रही हैं। उनके लोकार्पण के कार्यक्रम की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं। हर रचनाकार यही चाहता है कि किसी न किसी तरह से उसकी रचनाओं का संग्रह प्रकाशित हो। देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में नये-पुराने लेखकों की कविताएं, गजलें, कहानियां और व्यंग्य प्रकाशित होते रहते हैं। प्रश्न यह है कि क्या सभी लेखकों का लिखा पठनीय होता है? कहीं ऐसा तो नहीं शौकिया लिखने वालों की भीड बढती चली जा रही है? इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में भले ही न छपें, लेकिन इनकी किताबों के प्रकाशन में कोई बाधा नहीं आती। ऐसा इसलिए भी अति संभव हो पाता है क्योंकि ऐसे अधिकांश तथाकथित लेखकों की जेबें भरी रहती हैं। इनकी लिखी कहानी, कविताओं गजलों और व्यंग्य रचनाओं में भले ही कोई दम न हो, पत्र-पत्रिकाओं के संपादक बार-बार लौटा देते हों, लेकिन फिर भी यह धनवान लोग अपना रुतबा दिखाने के लिए पुस्तक छपवा कर साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। इन धनवानों में व्यापारी, उद्योगपति, चार्टर्ड अकाउंटेंट, सरकारी अधिकारी और भी पता नहीं कैसे-कैसे लोग शामिल हैं। जेल में बंद कुछ माफिया सरगनाओं की भी आत्मकथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं और प्रकाशित होने की तैयारी में हैं।
अधिकांश प्रतिभावान लेखकों को अपने प्रभावी लेखन के कारण पत्र-पत्रिकाओं में तो जगह मिल जाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं के संग्रह की पुस्तक छपवाने के लिए बेइन्तहा पापड बेलने पडते हैं। अनेक बदनसीबों को यह सौभाग्य उन्हें इस दुनिया से विदा होने के बाद मिल पाता है। अपने देश में ज्ञानवान लेखकों को उनके जीवनकाल में कितना सम्मान दिया जाता है यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन उनके फटे जूते बहुत कुछ बता देते हैं। अपने देश में तो मंचों पर आसीन होकर नौटंकियां करनेवाले चुटकलेबाज प्रतिष्ठा के साथ-साथ धन पाते हैं। मानवीय चेतना को झकझोरने वाले लेखकों को नजरअंदाज करने का दुष्चक्र चलता रहता है। हिंदी की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं के भी बडे बुरे हाल हैं। कुछ साहित्यकार इनका प्रकाशन करते हैं, जो उन लेखकों में बंट जाती हैं, जिनकी रचनाएं इनमें प्रकाशित होती हैं। यानी इन्हें लेखक ही निकालते हैं, लेखक ही पढते हैं और लेखक ही समीक्षा करते हैं।
यही हाल देशभर में थोक के भाव से प्रकाशित होने वाली किताबों का है। यह किताबें भी आम पाठकों तक कम ही पहुंचती हैं। धन के लालची प्रकाशक लेखकों से छपायी की रकम वसूलने के बाद पच्चीस-पचास प्रतियां थमा कर उन्हें अपने उपकार और अहसान तले दबाये रहते हैं। लेखक जान भी नहीं पाते कि उनकी किताबों को सरकारी ग्रंथालयों में सप्लाई कर प्रकाशक मालामाल होते रहते हैं। अधिकांश प्रकाशक नये लेखकों की कृतियों को बेचने में कतई रूचि नहीं लेते। वैसे यह भी सच है कि आज भी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिवंशराय बच्चन, अमृता प्रीतम, यशपाल, निर्मल वर्मा जैसे पुराने रचनाकारों की ही मांग बनी हुई है। नयों में वो दम ही नहीं है जो पाठकों को आकर्षित कर पाये। हां नाम मात्र के कुछ अपवाद जरूर हैं, जिनका नाम है। पाठक उनकी कृतियों को खरीदते भी हैं। ९५ प्रतिशत लेखक तो अपने दोस्तों, लेखकों, रिश्तेदारों को अपनी कृतियों को भेंट स्वरूप देकर मस्त रहते हैं। मुफ्त में मिली किताबें ना सम्मान पाती हैं और ना ही पढी जाती हैं।
सजग पाठकों तक कभी न पहुंचने वाली किताबों को जब कोई सरकारी पुरस्कार मिल जाता है तो सजग पाठक स्तब्ध हो सोचते रह जाते हैं कि जिस किताब का उन्होंने नाम ही नहीं सुना, कहीं देखा भी नहीं उसे नामी-गिरामी पुरस्कार कैसे मिल गया? यह भी सच है कि नये दौर के अधिकांश लेखक सजग पाठकों का सामना ही नहीं कर पाते। उन्हें वास्तविक आईना दिखाने वाली समीक्षा और आलोचना से भय लगता है। इसलिए अपने ही गिरोह के रचनाकारों में खुश और संतुष्ट रहते हैं। अपनी पुस्तक के लोकार्पण पर भी यह आत्ममुग्ध लेखक ऐसे साहित्य के डॉक्टरों को सादर निमंत्रित कर मंच पर शोभायमान करते हैं, जिन्हें सिर्फ तारीफों के पुल बांधने में महारत होती है। ये अजूबे डॉक्टर कभी भूले से भी मरीज को उसकी कमियों और कमजोरियों से अवगत नहीं कराते। यह महारथी, जो समीक्षक कहलाते हैं, किताब को पढे बिना ही उस पर घण्टों बोलने का हौसला रखते हैं। अगर किसी कहानी संग्रह का विमोचन हो तो उसके लेखक को मुंशी प्रेमचंद्र, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश जैसे विद्वान कहानीकारों के समकक्ष और कविता और गजल संग्रह के रचनाकार को वर्तमान का हरिवंशराय बच्चन, दिनकर, दुष्यंत कुमार, बालकवि वैरागी और नीरज घोषित करने में जरा भी नहीं सकुचाते।
कई लेखक हैं, जो यह मान चुके हैं कि लोगों का पुस्तकों के प्रति पहले जैसा लगाव नहीं रहा। किसी के पास किताबें पढने का समय ही नहीं है। क्या वाकई यह सच है? नगरों, महानगरों के पढे-लिखे लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि घने जंगलों में रहने वाले आदिवासी भी गजब के पुस्तक प्रेमी हो सकते हैं। देश के प्रदेश केरल के इडुक्की जिले में स्थित एक छोटे से गांव में रहते हैं पी.वी. चिन्नातम्बी। वे अपनी आजीविका के लिए चाय की दुकान चलाते हैं। उन्हें बचपन से ही नयी-नयी ज्ञानवर्धक किताबें पढने-पढाने का शौक रहा है। वे प्रतिदिन अपनी चाय की दुकान के सामने ही दरी बिछाकर किताबें फैला देते हैं। यह किताबें रोमांचक, बेस्टसेलर या मनोरंजक चटपटी सामग्री से परिपूर्ण कतई नहीं हैं। बल्कि इनमें तमिल महाकाव्य सिलापट्टीकरम का मलयालय अनुवाद और महात्मा गांधी, वाईकोम मुहम्मद बशीर, एम.टी. वासुदेवन नायर, कमलादास, एम.मुकुंदन, ललिताम्बिका, अनंतराजनम आदि की ऐसी-ऐसी प्रेरक,ज्ञानवर्धक पुस्तकें शामिल हैं, जिन्हें आदिवासी बडे चाव से पढने के लिए ले जाते हैं। नये लेखकों को भी बडे चाव से पढा जाता है। सच्चे साहित्य अनुरागी चिन्नातम्बी के कारण स्वयं भी आदिवासी समुदाय के यह पाठक उन लोगों को पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करते हैं, जो अभी तक आधुनिक दुनिया से दूर हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं से वंचित हैं। शिक्षा के क्षेत्र में पिछडे हुए हैं। पुस्तक लेने के लिए लोग पहाडों के बीच दुर्गम रास्ते पार कर चिन्नातम्बी की चाय की दुकान पर नियमित आते हैं। वे पुस्तक लेने के लिए आने वाले आदिवासियों के नाम एक रजिस्टर में लिखते हैं। किताब कब ले गए, कब लाए इसका पूरा विवरण दर्ज रहता है। उनके इस पुस्तकालय में सिर्फ एक बार २५ रुपये शुल्क जमा करना होता है। उसके बाद कोई शुल्क नहीं लिया जाता। उलटे पुस्तक प्रेमियों को मुफ्त में चाय जरूर पिलायी जाती है। क्या शहरों के पाठक आदिवासियों से भी गये-बीते हैं, जो विभिन्न किताबों को पढकर अपना ज्ञानवर्धन नहीं करना चाहते?

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