Thursday, September 12, 2019

आप खुद समझदार हैं

अपने यहां सौ में से नब्बे लोग यही कहते और मानते हैं कि भ्रष्टाचार का कभी भी खात्मा नहीं हो सकता। यह धारणा निराधार भी नहीं है। जो तस्वीर लगभग हर जगह टंगी नजर आती हो, जो सच पूरी तरह से नंगा हो चुका हो उसे भला कैसे नकारा जा सकता है? रिश्वतखोरी को जड से मिटाने के लिए राजनेता और सत्ताधीश वर्षों से आश्वासन देते चले आ रहे हैं, लेकिन यह रोग तो बढता ही चला जा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब अखबारों और न्यूज चैनलों पर भ्रष्टाचारी, रिश्वतबाजों की खबरें पढने और सुनने को न मिलती हों। देश के हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोर, जेबकतरों का साम्राज्य चल रहा है। इन बेईमानों ने हिन्दुस्तान के आम आदमी के मन-मस्तिष्क में यह बात बिठा दी है कि जेब ढीली करोगे तो हर काम आसान हो जाएगा। नहीं तो उम्र भर चप्पलें घिसते रह जाओगे। रिश्वतखोरी में अपने देश ने दुनिया के लगभग सभी देशों को मात दे दी है। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के जेब गरम करना कल भी जरूरी था और आज भी इसके बिना पत्ता नहीं हिलता। मूलभूत सुविधाओं को पाने के लिए भी जेब ढीली करनी पडती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र भी भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंस चुके हैं। रेलवे में तो घूसखोरी परम्परा बन गई है, जिसका पालन अमीरों के साथ-साथ गरीब भी बेहिचक करते हैं। पुलिस विभाग का तो कहना ही क्या...। गरीब पुलिस थानों में जाने से घबराते हैं। अमीरों को खाकी को अपनी अंगुलियों पर अच्छी तरह से नचाना आता है। यह कलमकार सतत लिखता चला आ रहा है कि रिश्वतखोरी पर तभी लगाम लग पायेगी जब हम स्वयं को बदलेंगे। जब तक हम अपना काम निकलवाने के लिए इस दस्तूर को निभाते रहेंगे तब तक यह बीमारी बनी रहेगी। शासन और प्रशासन को कोसने से कुछ नहीं होगा।
लापरवाही, अनुशासनहीनता, मतलबपरस्ती हम अधिकांश भारतीयों की आदत में शुमार है। इन्हीं कमजोरियों ने हमारे देश को सर्वाधिक दुर्घटनाओं वाले देश की कुख्याति दिलायी है। दुनिया के किसी और देश में सडक दुर्घटनाओं में इतनी जन-धन की हानि नहीं होती जितनी भारत में। साल भर में अपने देश में पांच लाख सडक हादसे होते हैं। इनमें डेढ लाख लोगों की मौत हो जाती है। ढाई से तीन लाख लोग हाथ-पैर टूटने के कारण दिव्यांग हो जाते हैं। यह सच भी बेहद पीडादायक है कि सडक दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले अधिकतर १८ से ३५ आयु वर्ग के युवा रहते हैं। सडक दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को इलाज का भारी भरकम खर्च उठाना पडता है। भारत के कई मध्यम वर्गीय और गरीब परिवार इस खर्च की वजह से आर्थिक बदहाली का शिकार होने के साथ-साथ जिस नारकीय पीडा को निरंतर सहने को विवश होते हैं उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकांश सडक दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण शराब पीकर वाहन चलाना, हेलमेट न पहनना, वाहन को तेजगति से चलाना, वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करना, टूटी-फूटी गढ़ों वाली सडकों तथा सडकों पर आवारा पशुओं का होना है। जानबूझ कर ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने वालों की भी अपने देश में भरमार है। यह अति होशियार किस्म के लोग लाल बत्ती देखकर भी नहीं रुकते। सभी ट्रैफिक संकेतों का पालन करना तो बहुत दूर की बात है। बेखौफ होकर कानून की धज्जियां उडाने वालों के कारण भी भ्रष्टाचार की रफ्तार में निरंतर इजाफा हुआ है।
स‹डकों पर होने वाली दुर्घटनाओं में कमी लाने के उद्देश्य से संशोधित मोटर वाहन कानून लागू किया गया है। नए मोटर वाहन कानून में दस गुना तक जुर्माना राशि में बढोतरी हो गई है। बिना ड्राइविंग लाइसेंस के गाडी चलाने पर ५०० रुपये के बजाय पांच हजार का जुर्माना, छोटे वाहनों को तेज रफ्तार से चलाने पर एक से दो हजार, बडे वाहनों पर चार हजार रुपये का जुर्माना, शराब पीकर वाहन चलाने संबंधी पहले अपराध के लिए छह माह की जेल या दस हजार रुपये के जुर्माने की सजा, दूसरी बार अपराध करने पर दो साल की जेल और १५ हजार के जुर्माने की सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें दो मत नहीं कि यह अंधाधुंध बढोतरी है। इसके विरोध में स्वर भी उठने लगे हैं। राज्य सरकारें भी ढीली पडती नजर आ रही हैं। केंद्र सरकार को भी पता था कि बेतहाशा जुर्माना वसूलने के निर्णय का विरोध होगा, लेकिन लोगों की लापरवाही, नियमों की अनदेखी के कारण जिस तरह से सडक दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है, उससे इस कदम को उठाना जरूरी हो गया था। इंसान की जान के सामने जुर्माने की रकम कोई मायने नहीं रखती। जान है तो जहान है। सरकार तो यही चाहती है कि हर भारतवासी अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क रहे। वाहन चलाते समय ऐसी कोई भूल न करे, जिससे उसकी और दूसरों की जान संकट में पड जाए। यह भी कहा जा रहा है कि भ्रष्ट पुलिस वालों की और अधिक कमाई का बंदोबस्त कर दिया गया है। लोग दस हजार रुपये जुर्माना देने की जगह हजार-दो हजार की रिश्वत देकर छुटकारा पा लेंगे। हमारे यहां जहां गरीब यातायात नियमों को तोडने से घबराते हैं, वहीं खुद को हर मामले में समर्थ मानने वाले कई आत्ममुग्ध अहंकारी लोग आश्वस्त रहते हैं कि उनके धन, रसूख और पद के समक्ष ट्रैफिक पुलिस और नियम-कानून की कोई औकात नहीं है। अक्सर देखने में आता है कि तथाकथित वीआईपी, समाज सेवक, नेता, सफेदपोश माफिया, न्यूज चैनलों और अखबारों के मालिक, लेखक, पत्रकार, संपादक तथा दलाल नियमों की ऐसी-तैसी करते रहते हैं। उनकी जान-पहचान, रुतबे और पहचान-पत्र के सामने ट्रैफिक पुलिसवाला खुद को बौना पाता है। उसे फौरन ध्यान आता है कि इन धुरंधरों के विभिन्न कार्यक्रमों के मंचों पर तो मंत्री-संतरी, कलेक्टर, एसपी और डीएसपी विराजमान होकर हार, गुलदस्ते और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित और गौरवान्वित होते हैं और लड्डू का भोग लगाते हैं। यह जानते हुए भी 'हस्ती' नशे में टुन्न है, उसका रास्ता नहीं रोका जाता। बडा-सा सलाम कर बडे आदर के साथ उन्हें विदा कर दिया जाता हैं। तो फिर ऐसे दूरदर्शी 'वर्दीधारी सेवकों' का कानूनी डंडा किस पर बरसता है? लिखने और बताने की कोई जरूरत ही नहीं। आप खुद समझदार हैं।

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