Thursday, December 19, 2019

ऊपर वाले के भरोसे

देश की राजधानी दिल्ली में रिहायशी क्षेत्र की तंग गली में चलने वाली एक बैग फैक्टरी में हुए भीषण अग्निकांड में पांच नाबालिग सहित ४३ श्रमिकों की जलने, झुलसने और दम घुटने से मौत हो गई। लगभग पच्चीस लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। मरने और घायल होने वालों में से अधिकांश श्रमिक उत्तरप्रदेश, बिहार से कमाने-खाने आये थे, लेकिन उन्हें खाली हाथ कफन में अपने-अपने गांव-घर लौटना पडा। दिल्ली ने उनका सबकुछ छीन लिया। इस हादसे ने एक बार फिर से उस कुंभकर्णी और रिश्वतखोर प्रशासन की पोल खोल दी, जो चंद सिक्कों में बिक कर अपनी आंखें मूंद लेता है, जिससे अवैध धंधेबाजों की बन आती है। वे लाखों-करोडों में खेलते हैं और खून-पसीना बहाने वाले मजदूरों के हिस्से में सिर्फ मौत आती है। जिस फैक्टरी में आग लगी वह चार मंजिला इमारत में अवैध रूप से चलायी जा रही थी। सैकडों मजदूरों के लिए एक ही सीढी थी। इस इमारत में आग बुझाने के उपकरण नदारद थे। फैक्टरी को अग्निशामक विभाग की तरफ से एनओसी जारी नहीं थी। अन्य किसी विभाग से भी कोई लाइसेंस नहीं लिया गया था। इसके बावजूद धडल्ले से फैक्टरी चल रही थी। रात में सोते समय श्रमिक नीचे और छत का दरवाजा बंद कर लेते थे। इसलिए जब आग लगी तो धुआं बाहर नहीं निकल पा रहा था और अधिकांश मजदूर दम घुटने से चल बसे। फायर कर्मियों को भी आग बुझाने में भारी दिक्कतों का सामना करना प‹डा। आवासीय इलाके में जहां हजारों लोग रहते हैं, वहां पर इस फैक्टरी का चलना और बिजली विभाग से कनेक्शन का मिलना यही दर्शाता है कि इसे बेईमानी और भ्रष्टाचार की नींव पर खडा किया गया था। २५ वर्षीय मुस्तफा उन चंद खुशकिस्मत लोगों में हैं, जो काफी जद्दोजहद के बाद मौत की फैक्टरी से बच निकले। उस भयावह आग और दमघोटू धुएं के मंजर को वह कभी नहीं भूल पाएंगे, जिसने उन्हें कंपकंपा कर रख दिया था। सुबह चार बजकर दस मिनट पर बेतहाशा शोर सुनकर वे हडबडा कर उठे। हर तरफ धुआं ही धुआं था। लोग शोर मचा रहे थे कि आग लग गई है। इस बीच कुछ लोग बेहोश होकर गिरने लगे। मुस्तफा अपनी जान बचाने के लिए भागे। एक तो घना अंधेरा और फिर नीचे जाने के लिए एक ही सीढी...। हडबडी में उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोई रास्ता सूझता इससे पहले ही वे बेहोश हो गये। जब होश आया, तो खुद को अस्पताल में पाया।
फैक्टरी में आग का तांडव चरम पर पहुंचने के बाद वहां का कैसा मंजर था, आग में फंसे मजदूरों की कैसी हालत थी, वे किस तरह से छटपटा रहे थे, जब मौत उन्हें दबोचने को खडी थी तब वे अपने घर-परिवार को लेकर कितने चिन्तित थे, इन सवालों का जवाब जानने के लिए भीषण आग की लपटों से घिरे मुशर्रफ नामक युवक का तडके करीब पांच बजे अपने दोस्त मोनू को किया गया कॉल काबिलेगौर है : हैलो मोनू, भैया आज सबकुछ खत्म होने वाला है। आग लग गई है। आ जाइयो करोलबाग। टाइम कम है और भागने का कोई रास्ता नहीं है। खत्म हुआ भैया मैं तो, मेरे घर का ध्यान रखना। अब तो सांस भी नहीं ली जा रही है।
मोनू - आग कैसे लग गई?
मुशर्रफ - पता नहीं कैसे, सारे लोग दहाड रहे हैं। अब कुछ नहीं हो सकता। मेरे घर का ध्यान रखना भाई।
मोनू - फायर ब्रिगेड को तो फोन करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो रहा अब तो।
मोनू - पानी वाले को तो कॉल करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो सकता है, लेकिन मेरे घर का ध्यान रखना। किसी को एकदम से नहीं बताना। पहले बडों को बताना, मेरे परिवार को लेने पहुंच जाना। तुझे छोडकर और किसी पर भरोसा नहीं...।
सोचें तो दिल बैठने लगता है कि एक ही परिवार के आठ लोग अग्नि की भेंट चढ गए। उनके परिजनों के समक्ष यह परेशानी खडी हो गई कि आखिर वह इतने शव लेकर अपने गांव कैसे जाएं। उनके पास एम्बूलेंस की व्यवस्था के लिए पैसे ही नहीं थे।
हादसे में मारे गये १४ साल के रशीद आलम की मौत की खबर सुनकर उसकी बुआ को हार्ट अटैक आया और उसकी भी मौत हो गई। एक बहन अपने भाई का शव लेने के लिए अपनी मां के साथ सहरसा बिहार से दिल्ली पहुंची थी। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था। अथाह गम में डूबी मां का लाडला बेटा रविवार को घर आने वाला था, लेकिन उससे पहले उसकी मौत की खबर आ गई। उसकी बहन का तीन महीने बाद निकाह होने वाला था। इसलिए वह एक माह से निकाह की तैयारियों में जुटा था। रात-दिन खून-पसीना बहाकर उसने जो रुपये इकट्ठे किये थे, उन्हें लेकर वह रविवार को दिल्ली से सहरसा के लिए रवाना होने वाला था। सहरसा का ही रहने वाला मोहम्मद हुसैन भी उन ४३ बदनसीबों में शामिल था, जिन्होंने आग में जलकर तडप-तडप कर अपनी जान गंवाई। दो माह पहले ही उसकी मां एक सडक हादसे में चल बसी थी। इसके बाद रोजगार की तलाश में वह दिल्ली आया। काफी दिन तक बहन के घर में रहकर काम की तलाश में भटकता रहा। इस हादसे से मात्र तीन दिन पहले ही उसे इस मौत की फैक्टरी में नौकरी मिली थी। अपने इकलौते बेटे का शव लेने पहुंचे गमगीन पिता का कहना था कि मैं अब कैसे जीऊंगा। मेरा तो बुढापे का सहारा ही छिन गया। दिल्ली में पहले भी इस तरह के कई अग्निकाण्ड हो चुके हैं। हर मौत काण्ड के बाद एक-दूसरे पर दोष मढने की राजनीति के सिवाय कुछ नहीं किया गया।
मेरे पाठक मित्रों को कुछ माह पूर्व सूरत में एक कोचिंग सेंटर में लगी भीषण आग की तो याद होगी, जिसमें बीस छात्र-छात्राओं की दर्दनाक मौत हो गई थी। कई बच्चों को अपनी जान बचाने के लिए तीसरी-चौथी मंजिल से कूदना पडा था। घायल बच्चों को इलाज के लिए कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पडा था। सूरत के कोचिंग सेंटर में हुआ यह हादसा कोई नया नहीं था। इससे पहले भी स्कूलों और कोचिंग सेंटर में कई दुर्घटनाएं हो चुकी थीं। कई मासूम छात्र-छात्राओं की मौत के बाद चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया था कि लापरवाही और सुरक्षा के साधनों के अभाव के कारण यह मौतें हुईं। होना तो यह चाहिए था हादसे से ही सबक लेकर तुरंत सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी जाती, लेकिन हम तो हमेशा यही मानकर चलते हैं कि हमारे साथ कभी कोई हादसा नहीं होगा, जिनके साथ हुआ वे बदनसीब थे। हम तो बहुत नसीब वाले हैं। ऊपरवाला हमेशा हम पर मेहरबान रहेगा। यह पंक्तियां लिखते-लिखते एकाएक मुझे उस हजारों लोगों की भीड की याद हो आयी है, जो अमृतसर में रेल पटरी पर खडे होकर रावण दहन देखने में मग्न थी। सभी को पता था कि यह व्यस्त रेलपथ है, जहां से अनवरत गाडियों का आना-जाना लगा रहता है। नेताओं के भाषण और रावण दहन के उत्साह और शोर-शराबे के चलते उन्हें कुछ भी याद नहीं रहा और इसी दौरान अपने तय समय पर ११० किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से दौडती ट्रेन भीड को जब रौंदती हुई निकल गई, तो हाहाकार मच गया। घोर लापरवाही, मनमानी और अनुशासनहीनता के कारण ६१ हंसती-खेलती इन्सानी जिन्दगियां मौत की भेंट चढ गईं, लेकिन उनकी दर्दनाक मौत की जिम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं था।

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