Thursday, December 5, 2019

जंग लडता बचपन

बचपन गुम हो रहा है। बच्चे चिन्तित हैं। उन पर शोषण की तलवारें लटक रही हैं। वे समय से पहले बडे हो रहे हैं। अपने अधिकारों को जानने लगे हैं। अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए खुद सामने आने लगे हैं। इस जद्दोजहद में कहीं अच्छा तो कहीं बुरा हो रहा है। भिवंडी में एक १५ वर्षीय लडकी ने पिता की डांट से बचने के लिए जो रास्ता अपनाया उससे लोग स्तब्ध रह गये। पुलिस की नींद उड गई। नाक में दम हो गया। १५ नवंबर २०१९ की सुबह इस लडकी के हाथ से दूध गिर गया था। उसके पिता अत्यंत गुस्सैल हैं। उसे डर था कि स्कूल से वापस आने पर उसे डांट प‹डेगी। छोटी-मोटी भूल या कोई नुकसान होने पर उसके पिता का पारा चढ जाता है और आसमान सिर पर उठा लेते हैं। मां बीच-बचाव के लिए आती है तो उसकी भी धुनाई हो जाती है। इसीलिए वह स्कूल जाने के बजाय ट्रेन पकडकर आसनगांव चली गई। जब वह निर्धारित समय पर घर नहीं लौटी तो माता-पिता घबरा गये। उन्हें किसी अनहोनी का भय सताने लगा। लडकी एक दिन बाद घर लौट आई, लेकिन उसने जो आपबीती बतायी उसे सुन अभिभावक तुरंत पुलिस स्टेशन पहुंच गये। लडकी ने अपनी शिकायत में कहा कि वह स्कूल जाने के लिए सवा छह बजे घर से निकली थी। रास्ते में चार युवकों ने उसे जबरन कार में बिठाया और आंख में पट्टी बांधकर किसी पुरानी बंद पडी फैक्टरी जैसी जगह पर ले गए। वहां पर उसके ही जैसी कई और लडकियां थीं। बदमाशों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। बदमाश जब दुष्कर्म कर चले गये तो वह दूसरी लडकियों के साथ वहां से भाग निकली। पुलिस के लिए वाकई यह बहुत गंभीर मामला था, लेकिन उसने जब गहराई से छानबीन की तो ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला, जो लडकी की दुष्कर्म की शिकायत को साबित करता। इस बीच सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया ने लडकी के अपहरण और बलात्कार को लेकर हंगामा बरपा कर दिया। पुलिस पर आरोप लगाये जाने लगे कि वह नाबालिग की यौन उत्पीडन की शिकायत पर लीपापोती कर रही है। इतने गंभीर मामले के सच को सामने लाने की बजाय सुस्ती का दामन थामे है। इसके बाद पुलिस ने महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिभावकों के सामने फिर से लडकी से पूछताछ की तो उसने कबूल किया कि न तो उसका अपहरण हुआ था और ना ही बलात्कार। उसने तो बस पिता के गुस्से से बचने और उनका ध्यान भटकाने के लिए यह कहानी गढी और सुना दी...।
पिता के गुस्सैल स्वभाव के कारण घर में होने वाली रोज-रोज की कलह से परेशान एक १६ साल की लडकी सीधे कोर्ट पहुंच गई। भोपाल की इस बेटी ने स्कूल से सीधे जिला विधिक प्राधिकरण में पहुंचकर यहां के जज आशुतोष मिश्रा से शिकायत कर अपना कष्ट और दर्द बयां करते हुए कहा, 'सर मैं अपने घर के झगडे के कारण बेहद डिप्रेशन में जी रही हूं। कई बार मन करता है कि आत्महत्या कर लूं। कृपया आप मेरी मदद करें।' जज के लिए यह बडा अनोखा मामला था। बेटियां ऐसा कदम उठाने से पहले सौ बार सोचती हैं। यकीनन यह एक गंभीर मामला था। जज महोदय ने कुछ देर तक विचार करने के पश्चात केस के सकारात्मक निपटारे का निर्णय लिया। सबसे पहले घबराई बच्ची की काउंसलिंग की गई। उसकी चिंता और समस्या को गहराई से जाना गया। उसके पश्चात बेटी को माता-पिता के समक्ष बिठाकर जज महोदय ने कहा कि अब तुम ही बेखौफ होकर अपना फैसला सुनाओ। बेटी ने जो फैसला सुनाया उसे सुनकर कोर्ट में मौजूद माता-पिता के साथ-साथ दूसरों की भी आंखें छलक आई। बेटी ने आदेश में कहा कि माता-पिता आपस में कभी विवाद नहीं करेंगे। पिता को नियमित रूप से स्कूल की फीस भरनी होगी। वे रोज-रोज खाने की थाली नहीं फेकेंगे। उन्हें अपने गुस्से पर पूरी तरह से नियंत्रण करना होगा। राशन समय पर घर पर लाकर देंगे। बच्चों की हर जरूरत को पूरा करते हुए मां के खर्च के लिए कुछ रुपये देंगे। पिता ने भी स्वीकार किया कि वे क्रोधी स्वभाव के हैं। अक्सर तनाव में रहते हैं, जिसकी वजह से परिवार में अशांति बनी रहती है, लेकिन अब वे ऐसी कोई गलती नहीं करेंगे, जिसकी वजह से उनकी पत्नी और बच्चों को तकलीफ हो। इस जागरूक बेटी ने विभिन्न समाचार पत्रों में जिला विधिक प्राधिकरण के बारे में काफी पढा था, इसलिए वह अपनी शिकायत दर्ज करवाने यहां दौडी चली आई और जज ने अनोखी पहल करते हुए उसके फैसले को आदेश के रूप में जारी कर दिया।
देश के आदिवासी इलाकों के बच्चों में भी परिवर्तन आ रहा है। वे अपने अधिकार के प्रति सचेत हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ में आदिवासी बच्चों ने विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए हाथ-पैर मारने शुरू कर दिये हैं। अपनी और गांव की समस्याओं के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारी से लेकर सरपंच तक जाने में नहीं हिचकते। वे इस दाग को धोना चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ के अनपढ रहना चाहते हैं। उनमें जागृति नहीं आ सकती। वे अपने बुजुर्गों की तरह दारू में मस्त और निठल्ले नहीं बने रहना चाहते। यह बच्चे उन शैतानों पर आक्रमण करने से भी नहीं घबराते जो उनकी मां-बहनों पर बुरी नज़र रखते हैं। आदिवासी इलाकों में बहन-बेटियां भी सतर्कता की राह पर चलने लगी हैं। वे उन वहशियों को पहचानने में किंचित भी देरी नहीं लगातीं जिनके लिए आदिवासी महिलाएं भोग की वस्तु हैं। यह सच भी सर्वज्ञात है कि आदिवासियों में परिवार चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। वे इस परिपाटी को बदलकर सभी के जीवन को खुशहाल बनाना चाहते हैं। उनमें संवेदनशीलता भी कूट-कूट कर भरी है। धीरे-धीरे कई गांव में स्पष्ट बदलाव नज़र आ रहा है। इन गांव में कुओं के नहीं होने के कारण पानी की बहुत समस्या थी। अब गांव में कुएं बन गये हैं और पानी की समस्या से छुटकारा मिल रहा है। गांव-गांव में मांदल टोली बनायी गई है, जिसमें किशोरों को शामिल किया गया है। वे आपस में बैठकें करते हैं और लाइब्रेरी, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी जरूरतों के साथ-साथ बाल विवाह जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं। उनकी कोशिशें रंग ला रही हैं।

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