Thursday, February 6, 2020

गुमनाम जनसेवकों का सम्मान

अपने देश हिन्दुस्तान में ऐसे कई लोग हैं, जो प्रचार की चकाचौंध से दूर जनहित के कार्यों में सतत तल्लीन हैं। सच्ची इंसानियत का परचम फहराने वाले इन गुमनाम नायकों को किसी सम्मान और पुरस्कार की चाहत नहीं। यह तो बस दूसरों की निस्वार्थ सेवा को ही अपना धर्म और सम्मान मानते हैं। २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस के अवसर पर जिन १४१ लोगों को पद्म पुरस्कार प्रदान किये गये, उनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका अधिकांश भारतीयों ने पहले कभी नाम ही नहीं सुना था। आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाली यही हस्तियां ही भारत का असली चेहरा हैं, जो समाजसेवा करने के इच्छुकों की प्रेरणास्त्रोत होने के साथ-साथ महान सीख की उज्ज्वल तस्वीर हैं। राजस्थान के शहर अलवर में कभी सिर पर मैला ढोने वाली उषा चौमर को पद्मश्री पुरस्कार दिये जाने पर उन्हें जानने वाले लोग स्तब्ध भी हैं और बेहद प्रसन्न भी। स्वच्छता की मुहिम के तहत किये गये उनके कार्यों के प्रशंसकों ने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि उन्हें इस शीर्ष सम्मानजनक पुरस्कार से नवाजा जाएगा। उषा चौमर तो अपने कर्तव्य और काम में लीन रहने में ही यकीन रखती हैं। उषा ने कभी भी किसी पुरस्कार की आकांक्षा नहीं की थी। माता-पिता बेहद गरीब थे। छोटी उम्र में ही उषा को मैला ढोने के काम में लगा दिया गया था। महज दस साल की उम्र में शादी कर दी गई थी। प्रतिदिन गंदगी और बदबू से जूझने वाली उषा को वो दिन भुलाये नहीं भूलते जब सफेदपोश दूरियां बनाकर रखते थे। भूले से भी किसी को छूने पर डांट और गंदी-गंदी गालियां खानी पडती थीं। जिनके घरों की सफाई करती थीं वे भी बडी नीची निगाह से देखते थे। प्यास लगने पर पानी तक पिलाने से कतराते थे। काफी अनुरोध करने पर अलग रखे कांच के गिलास में पानी भर देते थे, जिसे बडी शर्मिंदगी के साथ पीना पडता था। खुद के घर में भी पानी का कनेक्शन नहीं था। करीब दो किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पडता था। वहां भी अछूत होने के दंश से बार-बार घायल होना पडता था। कभी-कभी तो भगा भी दिया जाता था। ऐसे में नहाने और पीने के पानी तक के लाले पड जाते थे। सन २००३ में बिंदेश्वर पाठक की नई दिशा संस्था से जुडने के बाद उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। पाठक, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक हैं। उन्होंने सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करने के साथ-साथ मानव मल की सफाई में लगे अस्पृश्य कहे जाने वाले लाखों लोगों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया है। इस महान समाजसेवक ने ऐसे व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की जहां पर दलित महिलाओं को सिलाई, कढाई और ब्यूटी केयर का प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बना सिर पर मानव मल ढोने के शर्मनाक कार्य से मुक्ति दिलवाई जाती है। अन्य कई स्त्रियों की तरह उषा चौमर की भी जिन्दगी बदल गई। वह भी मैला ढोने के काम को छोडकर अचार और जूट के थैले बनाने के साथ-साथ अन्य कई कार्य करते हुए खुद तो आत्मनिर्भर बनी हीं, और भी कई महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाकर उनकी जिन्दगी संवार दी। उनकी आर्थिक स्थिति में अभूतपूर्व सुधार करने का कीर्तिमान रच कर लोगों को अचंभित कर दिया। जो सफेदपोश कल तक करीब आने से कतराते थे वे उनका गुणगान करने लगे। विभिन्न कार्यक्रमों में आमंत्रित कर मंचों पर आसीन करने लगे। स्वच्छता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाली यह जुझारू नारी अमेरिका सहित पांच देशों की यात्रा कर चुकी हैं। २००८ में उनके बनाये कपडों को पहन कर विदेशी मॉडलों ने मिशन सेनिटेशन के तहत यूएन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में कैट वॉक किया था। कई संघर्षों से दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुकीं उषा अपनी बेटी को उच्च शिक्षा दिलवाने में जुटी हैं। उनका कहना है कि महात्मा गांधी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे ऐसे बडे नेता हैं, जिन्होंने स्वच्छता का अभियान चलाकर देशवासियों को जगाया है। वह उन्हें राखी भी बांध चुकी हैं। गंदगी, बदबू और लानतभरी जिन्दगी को काफी करीब से देखने और भोगने वाली उषा चौमर आज दूसरों का जीवन संवारते हुए खुद भी सम्मान और शान से जी रही हैं। एक वो भी समय था जब वह जीना ही नहीं चाहती थीं तब तो वह मंदिर भी नहीं जा पाती थीं, जाने ही नहीं दिया जाता था, लेकिन अब प्रति दिन पूजा-अर्चना करती हैं।
मुन्ना मास्टर उर्फ रमजान खान और उनका परिवार कृष्ण भक्त है। उनके घर में जगह-जगह भगवान कृष्ण और राधा की तस्वीरें लगी हैं। रमजान खान को जब पद्मश्री दिए जाने की सूचना मिली तो वे गोशाला के मंदिर में प्रति दिन की तरह भजन कर रहे थे। रमजान खान को गोमाता की सेवा करने और श्याम के भजन गाने में बेहद आनंद मिलता है। भगवान कृष्ण और गाय पर उनके लिखे भजनों को लाखों लोग गाते हैं। उनके पिता मास्टर गफूर खान प्रख्यात संगीतज्ञ थे। वे प्राचीन जुगल दरबार मंदिर में राधाकृष्ण और सीताराम के भजन गाते थे। रमजान अपने पिता के साथ मंदिर जाते थे और वहां पर पिता के साथ भजन गायकी का रियाज करते थे। आगे चलकर वह खुद लोकप्रिय भजन गायक के साथ सर्वधर्म समभाव के संदेश वाहक बन गए। उन्होंने अपने चारों बेटों को संस्कृत में शिक्षा दिलायी। अपनी दो बेटियों का नाम लक्ष्मी और अनीता रखा। रमजान खान के एक बेटे फिरोज खान संस्कृत के प्रकांड विद्वान हैं, लेकिन यह सच बेहद चिंतनीय है कि विश्वविद्यालय के छात्रों को संस्कृत पढाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी गई। विरोध और विवाद के कारण उन्हें नौकरी छोडनी पडी। ताज्जुब है कि सरकार ने भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया!
चंडीगढ के निवासी जगदीश लाल आहूजा प्रतिदिन डेढ हजार से दो हजार लोगों को खाना खिलाते हैं। लंगर बाबा के नाम से प्रख्यात इस शख्स ने गरीबों, भूखों को भरपेट खिलाने के लिए अपनी करोडों की सम्पत्ति तक बेच डाली है। चालीस साल से मानवता का धर्म निभाते चले आ रहे इस महान इन्सान को जब पद्मश्री सम्मान, पुरस्कार दिए जाने की खबर मिली तो उन्हें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। फिर बाद में काफी देर तक उनकी आंखों से आंसू बहते रहे। उनकी यही तमन्ना है कि लंगर सेवा करते हुए ही उनका दम निकले।
मोहम्मद शरीफ हजारों लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं। वे लोगों में 'शरीफ चाचा' के नाम से मशहूर हैं। अयोध्या के निवासी शरीफ चाचा के बेटे की २७ साल पहले हत्या कर दी गई थी। उसका शव लावारिस मानकर कहीं फेंक दिया गया था। अपने बेटे की मौत की खबर उन्हें एक महीने बाद मिली। उन्होंने बहुत खोजबीन की पर बेटे की लाश नहीं मिली। दिल को दहला देने वाली इस घटना के बाद उन्होंने लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने की जो प्रतिज्ञा की, उसे अभी तक निभा रहे हैं। खास बात यह भी है कि शव के धर्म की पहचान कर उसका अंतिम संस्कार उसी के रीति-रिवाज के अनुसार किया जाता है। उनका कहना है कि जब तक मैं जिन्दा हूं, तब तक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करता रहूंगा। वहीं उनके बडे बेटे ने कहा कि पिता के द्वारा शुरू किया यह मानवीय कार्य उनके बाद भी सतत जारी रहेगा। हमारा पूरा परिवार पिता को सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किये जाने पर बेहद खुश है।

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