Thursday, February 20, 2020

सुनो, हिन्दू-मुसलमान

जिन्हें नहीं मानना, वे भले ही न मानें, लेकिन दिल्ली की जनता ने बता दिया है कि देश और देशवासी क्या चाहते हैं। अगर उन्हें देश के गद्दारों को गोली मारो... जैसे नारे पसंद होते तो आम आदमी पार्टी को फिर से विधानसभा चुनावों में भारी-भरकम जीत नहीं मिलती। यह चुनाव भारत और पाकिस्तान के बीच की लडाई भी नहीं था। भावावेश में की गई तमाम बयानबाजियां औंधे मुंह जा गिरीं। ऐसे में यह नहीं होता तो क्या होता? इतिहास गवाह है, नफरत हमेशा हारती रही है। हैवानियत को मुंह की खानी पडी है। इंसानियत की हमेशा जीत हुई है। यह तो राजनीति और राजनेताओं की नासमझी है, बौनापन है, जिन्हें सच समझ में नहीं आता। वे हकीकत को जानना-परखना नहीं चाहते।
ऐसी ही भूल और अक्खडता की गिरफ्त में हैं वो कट्टर चेहरे जो इस भ्रम में हैं कि वे अपने-अपने धर्म के लोगों के संरक्षक हैं। उन्हीं की ताकत की बदौलत ही हिन्दू और मुसलमान सुरक्षित हैं। अगर वे न हों तो पता नहीं क्या हो जाए। एक तरफ खुद को हिन्दुओं के सच्चे साथी तो दूसरी तरफ मुसलमानों के अधिकारों के एकमात्र रक्षक होने का दावा करने वाले भाषणवीर हैं, जिन्होंने देश की फिज़ा में विष घोलने की कसम खा रखी है। उन्हें हिन्दू और मुसलमानों का मिलजुलकर ईद, दिवाली, होली और अन्य उत्सव मनाना रास नहीं आता। अफसोस की बात तो यह भी है कि सर्वधर्म समभाव और अमन चैन के इन दुश्मनों के झूठ और अफवाहों के जाल में अच्छे-भले लोग भी फंस जाते हैं और तब जो मंजर सामने आते हैं उनसे पूरे विश्व में हिन्दुस्तान की छवि धूमिल होने में देरी नहीं लगती। अपने देश को विदेशों में बदनाम करने में कट्टरपंथियों और नेताओं के साथ-साथ हम लोगों का भी कम योगदान नहीं है। यह हम ही हैं, जो किसी के बहकावे में आने में देरी नहीं लगाते। सही और गलत का निर्णय दूसरों पर छोड इस हकीकत को भुला देते हैं कि किसी भी समस्या का हल संवाद से संभव है, जिद्द और विवाद से नहीं। देश को आजाद हुए ७२ वर्ष हो गये, लेकिन अभी तक हम राजनीति और सत्ता की चालाकियों को नहीं समझ पाये। अपने उन नेताओं को पहचानने का हुनर भी हममें नहीं आया, जिन्हें हम अपना कीमती वोट देकर अपना वर्तमान और भविष्य सौंप देते हैं। लोकतंत्र में चुने हुए सांसद और विधायक न सिर्फ हमारे प्रतिनिधि होते हैं, बल्कि क्षेत्र के अभिभावक भी होते हैं। उनके चरित्र, आचरण, बोलने के तौर-तरीकों से भी उनका आकलन होता है। उनके शब्द और विचार भी दूर-दूर तक अपना प्रभाव छोडते हैं। यह कितनी हैरत भरी सच्चाई है कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने वाली प्रज्ञा ठाकुर और गुंडों, हत्यारों वाली आतंकी भाषा बोलने वाले अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोग चुनाव जीतकर सांसद और विधायक बन जाते हैं। कौन जितवाता है इन्हें? यकीनन हम ही...। कौन से प्रलोभन, भय और मजबूरी के चलते हमारा मत ब‹डी आसानी से उनकी झोली में चला जाता है, जिन्हें आग उगलने के सिवाय और कुछ नहीं आता। ऐसे नेता इधर भी हैं, उधर भी हैं। इन नेताओं को अच्छी तरह से पता है कि उनकी लोकप्रियता की वजह क्या है। इनके मन में तो सिर्फ ज़हर ही ज़हर है, लेकिन भाषणों में जनवाद, मानवतावाद, धर्म निरपेक्षता, बराबरी और न्याय पाने के नारे हैं। मजहब के नाम पर बैर कराना इनकी राजनीति भी है और धर्म भी। हिन्दू और मुसलमानों के बीच भेदभाव, मनमुटाव पैदा करने वाले यह नेता जनता को कभी कोई तरक्की का मार्ग नहीं दिखाते। इनकी तो सतत यही मंशा रहती है कि लोगों को असली मुद्दों से भटकाकर, आपस में लडवाकर धार्मिक मामलों में उलझाये रखा जाए। सबसे अफसोस की बात तो यह भी है कि नफरत की बोली बोलने वाले खलनायकों को अधिकांश न्यूज चैनलों के द्वारा नायक की तरह पेश किया जाता है। न्यूज एंकर खुद स्टुडियो में हिंसा भडकाने की भाषा बोलते हैं। देश को तोडने, आग लगाने के सपने देखने वाले नकाबपोशों, बदमाशों और उनके भडकाऊ नारों और बयानों को बार-बार इस तरह से दिखाया और सुनाया जाता है, जिससे दोनों तरफ गुस्सा और आग भडके। कट्टर और कट्टर हो जाएं, अपना आपा ही खो दें और मरने-मारने पर उतारू हो जाएं।
३० जनवरी को महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर जामिया में निकले रहे शांतिपूर्ण जुलूस पर गोपाल नामक एक युवक ने खुलेआम तमंचा लहराकर गोली चलायी। बडी दबंगता से उसने यह भी कहा, 'ये लो आज़ादी।' नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर लोगों को उकसाने और भडकाने वाले युवक शरजीत इमाम के हौसले इतने बढ गये कि वह देश के प्रदेश असम को देश से काटने की बातें करते हुए गांधी को फासिस्ट बताने लगा! आखिर ऐसे आतंकी, देश और समाज के दुश्मन, हत्यारों के प्रतिरूप आते कहां से हैं? कौन है इनका जन्मदाता, प्रेरक और आदर्श? जवाब से भी कोई नावाकिफ नहीं। यही उन्मादी उग्रवादी बाद में नेता बन जाते हैं, बना दिये जाते हैं। भिन्न-भिन्न नाम से अपनी राजनीतिक पार्टियां चलाने वाले इनके आका इन्हें विधानसभा और लोकसभा चुनाव की टिकट देकर चुनाव लडवाते हैं और अगर कहीं यह चुनाव जीतकर विधानसभा और संसद भवन पहुंच जाते हैं तो कैसे-कैसे शर्मिंदगी भरे मंजर सामने आते हैं उनसे भी हम और आप अनभिज्ञ नहीं हैं।

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