Thursday, March 5, 2020

धर्म की दहलीज़ लांघने वाले फरिश्तों को सलाम

दंगाइयों की लगायी आग और चली गोलियों ने क्या-क्या नहीं जलाया। किस-किस को नहीं मारा। घर जले, दुकानें जलीं, मंदिर और मस्जिद आग के हवाले कर दी गईं। वर्षों पुराने आपसी रिश्ते भी भुला दिये गये। कातिलों की भीड में कौन-कौन शामिल थे इसका पूरी तरह से पता तो शायद ही चल पाये। कहते हैं भीड का कोई चेहरा नहीं होता। भीड तो भीड होती है। हर दंगे का इतिहास उठाकर देखें तो यह सच सीना ताने नज़र आता है कि शैतानों की भीड में कुछ इन्सान भी होते हैं, जिनकी इन्सानियत उन्हें अंधा, बहरा होने से बचाये रखती है। उनकी आंखों पर किसी धर्म-जाति का काला चश्मा नहीं होता। उनका मानवता के धर्म से अटूट रिश्ता होता है। इस रिश्ते को किसी भी उन्मादी की आग राख नहीं कर सकती। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रेमकांत बघेल अपने मुस्लिम पडोसियों को आग से बचाने के लिए जान की बाजी नहीं लगाते। इसी तरह से हिन्दुओं को बचाने के लिए कई मुस्लिम नागरिक उपद्रवियों का यह कहते हुए रास्ता रोक कर नहीं खडे हो जाते कि इस गली में रहने वाले हिन्दूओं तक पहुंचने के लिए उन्हें उनकी लाश से गुजरना पडेगा। इंसानियत का धर्म निभाने में न हिन्दूओं ने कमी की और न ही मुसलमानों ने...। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जगह-जगह धुएं के गुबार उठ रहे थे। शोर-शराबे और अनियंत्रित भीड की नारेबाजी के बीच गोलियां और आंसू गैस के गोलों की आवाजें गूंज रहीं थीं। उपद्रवी मारो-मारो और भागो-भागो चिल्ला रहे थे। हाथों में लोहे की रॉड, लाठियां, हॉकी आदि लिए दंगाई धार्मिक पहचान करने के बाद एक दूसरे पर खूंखार जानवरों की तरह टूट रहे थे, तब दंगा प्रभावित इलाकों में रहने वाले अलग-अलग धर्मों के कई लोगों ने आपसी भाईचारे की हत्या नहीं होने दी। एक दूसरे से खानपान की चीजें आदान-प्रदान की गईं। बच्चों को दूध दिया गया।
सडकों और गलियों में बडा ही भयावह मंजर था। पुलिस भीड को एक ओर खदेडती तो उपद्रवी दूसरी जगह से आकर खून-खराबा शुरू कर देते। पुलिस खुलकर काम नहीं कर पा रही थी। उसके हाथ बंधे थे। ऊपर से ऑर्डर का इंतजार था शायद। इसलिए वर्दीधारी भीड के डंडे, लाठियां और गोलियां खाते रहे। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कुछ कालोनियां ऐसी भी थीं, जहां रातभर पथराव और हिंसा होती रही। लोग अपने घरों में दुबके रहे और सुबह होते ही घरों में ताले लगाकर अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए, तो कुछ ने धर्म की दहलीज लांघकर मदद करने वालों के यहां शरण ली। कुछ को अपने प्राण भी गंवाने पडे, कइयों को बुरी तरह से घायल होना पडा, लेकिन कर्तव्य निभाने में कहीं कोई कमी नहीं होने दी। दंगों में हिन्दू भी मारे गये मुसलमान भी।
दंगों में अपनी कुर्बानी देने वाले हवलदार रतनलाल की बस यही चाहत थी कि हर हाल में आपसी भाईचारा बना रहे। देश प्रेम का ज़ज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। तीव्र बुखार होने के बावजूद भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। वे अक्सर युवाओं को सेना या पुलिस में भर्ती होकर देश की सेवा करने की प्रेरणा देते रहते थे। ४२ वर्षीय शहीद रतनलाल जब ड्यूटी के लिए घर से निकले तो हमेशा की तरह बच्चों ने पापा बाय...बाय कहकर विदायी दी थी। दुकान से अपने घर लौट रहे ३२ वर्षीय फुरकान को भीड ने इतना पीटा कि उन्होंने वहीं दम तोड दिया। दंगाइयों को समझाने गये उपद्रवियों ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के जवान को घेर कर मार डाला। २६ साल के जवान अंकित शर्मा की लाश नाले में मिली। भजनपुरा में दंगाइयों ने एक शख्स को इतनी निर्दयता से मारा, जिससे उनके डंडे टूट गए। अशफाक हुसैन की शादी १४ फरवरी को हुई थी। शादी को हुए अभी ११ दिन भी नहीं हुए थे कि २५ फरवरी २०२० की शाम दंगाइयों ने पहले उसका नाम पूछा, फिर उसके सीने पर ताबडतोड पांच गोलियां चला दीं। धारदार हथियार से सीने पर कई वार भी किये। अस्पताल में दो घण्टे बाद उसकी मौत हो गई।
२४ फरवरी की रात कोई सवा दस बजे होंगे, मोनू अपने पिता के साथ अपने बेटे के लिए दवाई लेने निकला था। रास्ते में पत्थरबाजी करती भीड ने दोनों पर लाठी डंडों से हमला कर दिया। बाइक को आग लगा दी। देखते ही देखते लहुलूहान मोनू के सामने पिता की जान चली गई। दंगाइयों को भले ही तसल्ली मिली हो, लेकिन मरने वालों के माता-पिता, भाई, बहन, पत्नी, बच्चों और अन्य परिजनों पर क्या बीती इसका अनुमान लगाना ही मुश्किल है। उनके तो कभी भी जख्म नहीं भर पायेंगे। ताउम्र अपनों को खोने का गम उन्हें सताता रहेगा। जिनके घर जलाये गये, दुकानें फूंकी गयीं, पेट्रोल पम्प स्वाहा कर दिये गये और सम्पत्ति नष्ट कर दी गई उनके दर्द को किसी पैमाने से नहीं आंका जा सकता। उन्होंने वर्षों की मेहनत के बाद घर, कारोबार खडे किये थे और दंगाइयों ने, शैतानों ने देखते ही देखते नेस्तनाबूत कर डाले। इस खूनी हिंसा में बाहरी लोग भी शामिल थे। दरअसल, उपद्रवियों के भेष में डाकू, चोर, लुटेरे भी भीड में शामिल हो गये थे। जिन्होंने अंधाधुंध लूटपाट की। मुंह पर कपडा लपेटे इन डकैतों ने बडी-बडी कपडों की दुकानों पर लगे बुतों को पहनाये गये कपडे भी नहीं छोडे। दंगाइयों, आतंकियों, गुंडों, लुटेरों ने तो अपनी नीचता की पराकाष्ठा दिखायी ही, नेताओं, जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों ने भी खुद के गैर जिम्मेदार होने का पुख्ता सबूत दे दिया। उनकी नाक के नीचे जुल्म होते रहे, तबाही मचायी जाती रही, खून-खराबा होता रहा, लेकिन वे अपने घरों में दुबके रहे। शर्म की बात तो यह भी है कि कुछ जनप्रतिनिधि जल्लाद की भूमिका में नजर आये। यहां तक कि पडोसी धर्म को भी भूल गये। अपने घरों की छतों से बम, बारूद और गोलियों की बरसात करते और करवाते रहे। उन्होंने मानवता का गला ही घोंट दिया। ऐसे लोग अब किस मुंह से वोटों की भीख मांगने जाएंगे? जो शख्स हर धर्म जाति के वोटरों की बदौलत पार्षद, विधायक, सांसद बनता है, वह यदि सिर्फ अपने धर्म के लोगों की हिफाजत को अपना धर्म मान ले तो इससे ब‹डी और कोई नीचता, गद्दारी और विश्वासघात नहीं हो सकता। ऐसे नेता इन्सानियत का कत्ल करने के साथ-साथ उस भरोसे के भी कत्ल करने के अपराधी हैं, जो बेशकीमती होता है। इसका मोल लगाया ही नहीं जा सकता। ऐसे में उसके टूटने का मतलब है सबकुछ खत्म हो जाना।

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