Thursday, March 19, 2020

नतमस्तक हैं हम

उम्र होगी यही कोई पचास-पचपन के बीच। नाम श्रीमती आशादेवी सिंह। आम भारतीय नारी जैसा चेहरा-मोहरा। पनीली आंखें। टेलीविजन के पर्दे पर जब भी देखा, यही लगा कि इस बहादुर नारी ने अपनी आंखों को आंसू छलकाने से पूरी तरह से मना कर रखा है। आशादेवी का सबसे बडा परिचय तो यह है कि, वे निर्भया की मां हैं। इस मां ने यह कहते हुए अपनी बेटी के नाम को उजागर करने का साहस दिखाया कि शर्मिंदा तो उन बलात्कारियों, हत्यारों को होना चाहिए, जो इसे अंजाम देते हैं। हम क्यों शर्मसार होकर अपना नाम और मुंह छुपाएं। हम सबका तो यही फर्ज और मकसद होना चाहिए कि दरिंदों को ऐसी कडी से कडी सज़ा दिलवाएं, जिससे दूसरे उनका अनुसरण करने की कभी सोच ही न पाएं। अपनी बेटी ज्योति सिंह के बलात्कारी, हत्यारों को फांसी की सज़ा दिलवाने की आशादेवी की अभूतपूर्व साहसिक लडाई को देश और दुनिया ने देखा और उनके अटूट हौसले को बार-बार सलाम किया। 'अदालती युद्ध' के दौरान उन्हें जिस तरह की तोहमतों, अवरोधों, बद्दुआओं, चेतावनियों और धमकियों का सामना करना पडा वे भी बेहद चौंकाने और डराने वाली रहीं। यह तो आशा ही थीं जो टस से मस नहीं हुई। वे जब कोर्ट में जातीं तो उनके खिलाफ बोलने वाले तन कर खडे हो जाते। दोषियों के परिवार वाले उन पर अनर्गल आरोपों की झडी लगाते नहीं थकते। देश के कई बुद्धिजीवियों ने उनपर अपने इरादे और सोच बदलने का बार-बार दबाव डाला। उनसे कहा गया कि उन्हें दूसरों के बच्चों की भी चिन्ता करनी चाहिए। किसी भी सच्ची नारी का मातृभाव सिर्फ खुद की संतान के प्रति नहीं होता, लेकिन यह आशादेवी तो क्रूरता और निर्ममता की मूरत हैं, जो अपने दर्द की कैद से बाहर ही नहीं निकलना चाहतीं। जिन लडकों को वे फांसी के फंदे पर लटकाने की जिद पर अडी हैं, उन्होंने तो अभी तक दुनिया को ही ढंग से नहीं देखा है। उनकी पूरी जिन्दगी पडी है। उनसे भूल हो गई। बच्चों से गलती हो ही जाती है। हर गुनाहगार को प्रायश्चित करने और सुधरने का मौका जरूर मिलना चाहिए।
फांसी के बाद तो कुछ भी नहीं बचता। वैसे भी उम्रकैद भी तो अपने आप में बहुत बडी सज़ा है। जेल में रहकर कैदी हर दिन मरता और तडपता है। उसे अपने किये का पछतावा होता है। अपने परिवार की बदनामी, लोगों की निगाह से गिरने की शर्मिंदगी, घुटन, तिरस्कार और लानतें उसे अधमरा कर देती हैं। एक ही झटके में बलात्कारी को मौत के घाट उतार देने से तो वह सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है। दरअसल, सज़ा तो ऐसी होनी चाहिए, जो हर पल खंजर की तरह चुभे और अपराधी को अपने कुकर्म का सतत अहसास दिलाए। आशादेवी को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दोषियों के परिवार हैं, जिनमें उनके माता-पिता, भाई-बहन आदि शामिल हैं। बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने के बाद उनके परिवार वालों पर क्या बीतेगी, उसकी भी उन्हें चिन्ता करनी चाहिए। इस घटना के बाद से उनका भी सुख-चैन छिन गया है। कोर्ट और वकीलों के चक्कर में टूट गये हैं। उनके जो छोटे-मोटे धंधे थे वे भी चौपट हो गये हैं। समाज में उनकी पहले-सी इज्जत नहीं रही। अडोसी-पडोसी भी उनसे दूरी बनाकर रखते हैं। रिश्तेदार भी हालचाल पूछने नहीं आते।
दोषियों की फांसी की तारीख टालने के लिए उनके वकील ने भी तरह-तरह के कानूनी दाव-पेचों, कुतर्कों और बेहूदे आरोपों से आशादेवी को कम आहत नहीं किया। इस सच से किसी भी हालत में मुंह नहीं मोडा जा सकता कि दोषियों को अंतिम सांस तक अपने कानूनी अधिकारों का उपयोग करने का प्रबल हक है। बचाव पक्ष के वकील को संविधान द्वारा प्रदत्त सभी अधिकारों का इस्तेमाल करने से कोई नहीं रोक सकता, लेकिन फांसी की तारीख नजदीक आने से ऐन पूर्व कोई न कोई याचिका दायर करके सजा टलवाना सिर्फ और सिर्फ 'पैंतरेबाजी' ही कही जा सकती है। दोषियों के वकील का दुनिया छोड चुकी ज्योति सिंह के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग क्या उनकी घटिया मानसिकता को नहीं दर्शाता? उन्होंने कितनी आसानी से कह दिया कि जो लडकी रात को अपने पुरुष मित्र के साथ घूमती हो उसको चरित्रवान नहीं कहा जा सकता। अगर मेरी बेटी ऐसे रातों को मटरगश्ती करती और शादी से पहले संबंध बनाती तो मैं उसका गला घोट देता। उन्होंने आखिर यह निष्कर्ष कैसे निकाला कि ज्योति बदचलन ही थी? अपने मित्र के साथ घूमना-फिरना कोई अपराध नहीं है। अपनी वकालत चमकाने के लिए मृतक और उसके परिवार को अपमानित करने की यह सोच और कथनी जले पर नमक छिडकने वाली तो है ही, बहुत-बहुत धिक्कारनीय भी है।
एक समर्पित मां कैसे भूल जाती रक्त से सना वो दर्दनाक मंज़र जब उसकी सुंदर-सुशील बेटी बलात्कारी दरिंदों की हैवानियत का शिकार होने के बाद अस्पताल के बिस्तर पर खून से लथपथ पडी कराह रही थी। उसके होंठ बुरी तरह से दो भागों में कट चुके थे। शरीर का अधिकांश मांस ही गायब था। वह पानी-पानी कर रही थी, लेकिन मां बेबस थी। उसे पानी पिलाया ही नहीं जा सकता था। सांस लेने में भी बेटी को बेइन्तहा कष्ट हो रहा था। बीते सात सालों में कोई भी दिन ऐसा नहीं था, जब तडपती बेटी की यह पुकार मां के कानों में न गूंजी हो कि बलात्कारियों को बख्शना नहीं मां। उन्हें सज़ा जरूर दिलवाना। तुम अगर सुस्त पड गई तो यह और इन जैसे तमाम कमीने मेरी तरह और भी न जाने कितनी लडकियों का जीवन बर्बाद कर जश्न मनाते रहेंगे। आशादेवी सिंह ने खूंखार हैवानियत की शिकार हुई बेटी के क्रूर बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकवा कर जो सच्ची श्रद्धांजलि दी है, उस पर जिन्हें हाय-तौबा मचानी है, खोट निकालना है, निकालते रहें, लेकिन हम तो अपनी बेटी की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए अपनी जी-जान लगा देने वाली मां के समक्ष नतमस्तक हैं।

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