Thursday, March 12, 2020

दंगों की आग में राख होने से बची पाती

वो आग लगा रहे थे, भीड को भडका रहे थे। उनके भाषणों में ज़हर भरा था। वे सब कुछ स्वाहा करने पर आमादा थे और इधर यह लोगों को मौत के मुंह में समाने से बचा रहे थे, उनके घर-परिवारों की हिफाजत में जी-जान लगा रहे थे। यह लोगों को बार-बार याद दिला रहे थे कि हिंसा से कभी भी किसी का भला नहीं हुआ। इसने तो हमेशा बरबादी का इतिहास रचा है...। भटको और बहकोगे तो अपना सबकुछ खो दोगे! जालिमों की भी‹ड से अलग हटकर खडे यह लोग दरअसल इन्सानियत के फरिश्ते थे, जो अपनी जान पर खेलकर भी सौहार्द का पैगाम देते हुए उपद्रवियों के हिंसक हौसलों को मात दे रहे थे। अगर इन्होंने अपनी जान को जोखिम में नहीं डाला होता तो दिल्ली के दंगों में मरने वालों का आंकडा और काफी बढ सकता था।
हिंसा की आग चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। दोनों ही समुदाय के लोग एक दूसरे की जान लेने को उतावले थे। देश की राजधानी के करावल नगर में भी हर तरफ आग और दहशत पसरी थी। हर किसी को मौत का भय सता रहा था। तब ऐसे चिंताजनक माहौल में संजीव कुमार नामक युवक ने न सिर्फ एक मुस्लिम परिवार के २४ सदस्यों को अपने घर में पनाह देकर उनकी जान बचायी, बल्कि उसी परिवार की आठ महीने की गर्भवती महिला की तबीयत बुरी तरह बिगडने पर उसे बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। उपद्रवी भीड से बचाने के लिए संजीव ने पीडा से बेहाल उस मुस्लिम महिला का बुर्का उतरवाकर अपनी पत्नी के कपडे पहनाए और अपनी बाइक पर बिठाकर बचते-बचाते किसी तरह से अस्पताल पहुंचाया। रास्ते में मुस्लिम भीड ने उन्हें रोक कर घेरा भी, लेकिन संजीव ने जब हिम्मत दिखाते हुए मारने पर उतारू भीड को हकीकत से अवगत कराया तो भीड में शामिल लोगों ने उसे गले से लगा लिया।
विजयपार्क के इलाके में दोनों तरफ से पत्थरबाजी चल रही थी। उपद्रवी दुकानों को लूटने और जलाने की पुख्ता तैयारी के साथ आये थे। सबसे पहले उन्होंने दो दुकानों पर हमला किया, इसमें एक दुकान हिन्दू की थी, दूसरी मुस्लिम की, लेकिन स्थानीय हिन्दू-मुस्लिमों ने तय कर लिया कि इनकी खूनी मंशा किसी भी हालत में पूरी नहीं होने देनी है। उपद्रवियों की भीड में अधिकांश चेहरे अपरिचित थे, अनजाने थे, जो कहीं बाहर से आए थे। स्थानीय लोगों ने मिलजुलकर उनको खदेडने के लिए मोर्चा संभाल लिया। दंगाइयों ने तो सोच रखा था कि वे आसानी से अपना काम कर चलते बनेंगे, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता से खौफ खाकर भाग खडे हुए। इस तरह से एक-दूसरे की मदद से पचास दुकानें लुटने और राख होने से बच गर्इं। दंगाइयों के आतंक और जुल्मो-सितम का मुकाबला करने के लिए कई हिन्दू-मुस्लिम अपने-अपने तरीके से इसी कोशिश में लगे रहे कि नफरत किसी भी हालत में जीतने न पाए। आपसी सद्भाव बचा रहे। एक फेसबुक मित्र ने अपनी चिन्ता और वेदना को इन शब्दों में व्यक्त किया, "भजनपुरा में मेरा घर है। मैं यहीं पैदा हुआ। जो पेट्रोल पम्प (दिल्ली डीजल्स) परसों जलाया गया, यही पेट्रोल पम्प २ नवंबर १९८४ में भी जलाया गया था। मैंने पहले भी एक सहमें हुए बच्चे के रूप में यहां से धुआं देखा था, इसलिए मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि यह कैसे भय से भर देता है। मेरा पूरा परिवार यहीं रहता है, मैं उनके लिए चिंतित हूं। मेरे बहुत से विद्यार्थी इन्हीं इलाकों से आते हैं - मुस्तफाबाद, सीलमपुर, नूर-ए इलाही, भजनपुरा, चांद बाग, शिवपुरी, गोकुलपुरी... इनमें से बहुत से बच्चों के नाम मुस्लिम हैं, लडके भी और लडकियां भी। फिलहाल अपने इन सभी विद्यार्थियों से एक ही गुजारिश है कि नफरत को पहचानो, उसे भडकाने वालों को पहचानो, लेकिन जवाब में नफरत पनपने न दो। यह नफरत जान-बूझकर फैलाई जा रही है। यह सुनियोजित है। मुझमें १९८४ का जो सहमा हुआ बच्चा है उसकी ओर से २०२० के हर सहमे हुए बच्चे, बच्ची को ढेर मोहब्बतें भेजता हूं। दंगई हमें कभी न जीत पाएंगे।
छह साल की मासूम बच्ची आलिया ने घर के आसपास बेतहाशा हिंसा देखी तो अपनी मां से पूछा कि यह लोग क्यों लड रहे हैं। डरी-सहमी मां ने कोई जवाब नहीं दिया। थोडी देर बाद मासूम ने अपने अब्बू की जलती दुकान देखी। मां ने कहा कि बेटा खिडकी बंद कर लो, हमें यहां से तुरंत भागना है। बच्ची ने झट से अपनी स्कूल की नोटबुक निकाली और छोटी सी कविता के रूप में हिंसा के दर्द को यह शब्द दे डाले :
"धरती है हम सबकी एक, पानी है हम सबका एक
पवन है हम सबकी एक, दुनिया में लोग अनेक, लेकिन सबकी दुनिया एक।"
अपने परिवार के साथ जान बचाकर जाते वक्त बेटी ने नोटबुक को अलमारी में रख दिया। दंगाइयों ने कुछ देर के बाद घर को आग लगा दी। पांच दिन बाद जले हुए घर में बच्ची की यह कविता लिखी नोटबुक एकदम सही सलामत मिली। उपरोक्त पंक्तियों ने हर शख्स को झकझोर दिया। आखें भी भिगों दीं। आलिया का पूरा परिवार दिल्ली छोडकर अपने मूल स्थान मुजफ्फरनगर जा चुका है। राजधानी अब उन्हें कितना भी बुलाये, ललचाये, लेकिन अब वे यहां कभी भी नहीं आएंगे। आलिया के परिवार की तरह हजारों परिवारों ने हमेशा-हमेशा के लिए दिल्ली को अलविदा कह दिया। सभी लोग रोजी-रोटी कमाने के लिए दिल्ली आए थे। दंगों ने उनके सभी सपनों की हत्या कर दी।
१९८४ के सिख विरोधी दंगों की तरह यह दंगे भी थम गये, लेकिन तब की तरह इस बार भी जबरन भेंट में मिले जख्मों का क्या...? सरकार ने भी मृतकों के परिवारों को पांच-दस लाख और घायलों को पच्चीस-पचास हजार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, लेकिन जिन्होंने दंगों की आग को भोगा है, अपने करीबियों और पडोसियों को जलते और मरते हुए देखा है, उनके कभी भी खत्म नहीं होने वाले गम... दर्द की कौनसी कीमत और क्या हर्जाना दे पायेगी सरकार? दंगे के पंद्रह दिन गुजर जाने के बाद पत्रकारों के समक्ष सरोज नामक महिला के कहे गये शब्दों के भीतर छिपी चिन्ता, दहशत का इलाज शासकों की कोई धनराशि कर पाएगी? "दंगई भीड को मैंने बेहद पास से देखा था। भीड लाठी-डंडे लेकर मेरे घर के सामने चिल्ला रही थी। दंगई कभी पथराव तो कभी गोलियां चला रहे थे। यह सब देखने के बाद मैं रात में ठीक से सो नहीं पा रही हूं। ज़रा-सी आवाज होती है तो हडबडाकर उठ जाती हूं और जब सोती हूं तो सपने में भीड मुझे अपनी ओर आती दिखायी पडती है। यह किसी एक महिला की दास्तान नहीं है। हजारों स्त्री, पुरुषों, बच्चों को दंगों की हिंसा ने गहरा मानसिक आघात पहुंचाया है। एक पीडिता का कहना था, उसने घरों में आगजनी देखी। इन घरों में बच्चों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें भी सुनीं। यह सब देखने-सुनने के बाद उसे अब रात में नींद नहीं आती। ऐसा लगता है कि कोई मेरा पीछा कर मार डालना चाहता है।

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