Wednesday, March 25, 2020

दीये और तूफान की लडाई

२० मार्च की सुबह ५.३० बजे राजधानी की तिहाड जेल के फांसी घर में चारों बलात्कारी हत्यारों को फांसी दे दी गई। सात साल ३ महीने और तीन दिन के लंबे इंतजार के बाद निर्भया उर्फ ज्योति सिंह की मां आशादेवी ने राहत की सांस ली। बहुत देरी से मिले इस इंसाफ ने करोडों देशवासियों को तसल्ली और खुशी बख्शी। लोगों ने अपने-अपने तरीके से खुशी का इज़हार किया। तिहाड जेल के बाहर मौजूद भीड ने 'निर्भया अमर रहे' के नारे लगाये। देश में जगह-जगह मिठाइयां बांटकर खुशी जतायी गई। कई शहरों में दिन में एक दूसरे को गुलाल लगाकर होली तो शाम को दीप जलाकर दिवाली मनाई गई, वहीं हैदराबाद के निकट स्थित एक मंदिर परिसर में प्रफुल्लित भीड ने रेपासुर (दुष्कर्मी राक्षस) का ११ फीट ऊंचा पुतला जलाया।
ज्योति सिंह बलात्कार केस में जहां एक तरफ दोषियों के वकील ने मीडिया में छाये रहने के लिए तरह-तरह की अनर्गल बयानबाजियां कीं, ज्योति और उसके माता-पिता पर बेहूदा आरोप लगाये, वहीं ज्योति की वकील सीमा कुशवाहा ने बेहद शालीनता के साथ इन्साफ की लडाई लडकर देशवासियों का दिल जीत लिया। गौरतलब है कि बलात्कारियों के वकील हर तरह के दांव-पेंच के पुराने खिलाडी थे तो सीमा की वकालत का यह पहला केस था, जिसे उन्होंने पूरे दमखम और सजगता के साथ लडा और दोषियों को फांसी की सज़ा दिलवायी। सीमा कुशवाह किसी रईस खानदान की बेटी नहीं हैं। छोटे से गांव में जन्म लेकर उन्होंने उन तमाम संकटों को झेला, जो आम गरीब भारतीय परिवार की सन्तानों को झेलने पडते हैं। २०१२ में ज्योति पर जब सामूहिक बलात्कार और हत्या का घोर अमानवीय जुल्म ढाया गया था, तब सीमा ट्रेनिंग पीरियड में थीं। दरअसल वह सिविल परीक्षा देकर आईएएस बन अपने माता-पिता के सपनों को पूरा करना चाहती थीं, लेकिन ज्योति के साथ हुई दरिंदगी के बाद देश भर में हुए प्रदर्शनों ने उनकी सोच बदल दी। गुस्साये भारतीयों की बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकाने की पुरजोर मांग उनके दिमाग में दिन-रात गूंजती रहती। तभी उन्होंने ठाना कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन वह यह केस लडेंगी और ज्योति को न्याय दिलवाकर ही दम लेंगी। यह केस किसी चुनौती से कम नहीं था। कई बडे-बडे नामी-गिरामी वकीलों ने यह केस इसलिए नहीं लडा क्योंकि उन्हें मनचाही फीस नहीं मिल रही थी।
जिन्होंने बलात्कारियों का केस ल‹डा उनकी खासी पहुंच, नाम और रुतबा था। जिनका बस एक ही मकसद था कि किसी भी तरह से ज्योति के बलात्कारी हत्यारों को फांसी के फंदे से बचाना है। इसके लिए भले ही वकालत की गरिमा गर्त में क्यों न चली जाए। दरिंदे दुराचारी, हत्यारों को बचाने के लिए और भी कई छिपी हुई ताकतें काम कर रहीं थीं, जबकि उनकी आर्थिक स्थिति कतई ऐसी नहीं थी कि वे महंगे वकीलों के जरिए कानूनी लडाई लडते हुए अपनी फांसी की तारीख को तीन बार टलवा पाते। वकीलों की जेब भरने के लिए उनके यहां धन कहां से बरसा यह भी किसी पहेली जैसा ही है। उनका इरादा तो चौथी बार भी तारीख को आगे बढवाने या फांसी की सज़ा को उम्र कैद में बदलवाने का था। इसके लिए उनके पैंतरेबाज वकील एपी सिंह ने १९ मार्च की रात १ बजे हाईकोर्ट और तडके तीन बजे सुप्रीम कोर्ट में फिर से कोई नया दांव खेलने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पडी। सच जीत गया, हैवानियत हार गई। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह दीये और तूफान की लडाई थी, जिसमें वही हुआ, जो सदियों से होता आया है। अन्तत: अंधेरे को परास्त होना ही पडता है।
हैवानों को फांसी के फंदे पर तो लटका दिया गया, लेकिन कुछ लोगों को यह सज़ा रास नहीं आयी। उनकी नज़र में यह भी हत्या ही है। जैसा कभी पुरातन काल में होता था-खून का बदला खून। फांसी की सज़ा को इन्साफ मानने वालों की सोच में जंगलीपन भरा है। वे यह भूल जाते हैं कि हम इन्सान हैं, जानवर नहीं। इस आधुनिक काल में फांसी का दिया जाना सरासर लोकतंत्र का ही अपमान है। फांसी तो राजतंत्र का प्रतीक है। जहां कू्रर राजाओं की राक्षसी मनमानी चला करती थी। असली सज़ा तो वह है, जो दोषी जिन्दा रह कर भुगते। जिन्दा रहकर भी तिल-तिल कर मरे। उसे ज़िन्दगी की कीमत का अहसास हो। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने भी इस फांसी का विरोध करते हुए कहा कि महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म-हिंसा को रोकने के लिए फांसी की सज़ा कोई समाधान नहीं है। इस फांसी से भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड में एक और गहरा धब्बा लगा है। भारतीय अदालतों ने इसे बार-बार मनमाने असंगत तरीके लागू किया है। हम सभी राष्ट्रों से मौत की सज़ा का इस्तेमाल बंद करने या इस पर प्रतिबंध लगने की अपील करते हैं।

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