Thursday, June 4, 2020

आगे की राह

कुछ खबरें ऐसी होती हैं, जो विचलित कर देती हैं। उन्हें नजरअंदाज करना बेहद मुश्किल हो जाता है। कोरोना के इस महासंकट काल में तो ऐसी-ऐसी खबरें सुनने-पढने में आ रही हैं, जो दिल को दहला रही हैं। सोचने-विचारने और महसूसने की हिम्मत कहीं दगा न दे जाए इसकी भी चिन्ता सताने लगी हैं। मन में बार-बार यह प्रश्न और विचार भी आता है कि यह सब हमारे ही जीवनकाल में होना था! विद्वान कहते हैं कि किसी भी इंसान के स्वभाव और उसके असली चरित्र की पहचान संकट के समय होती है। कोरोना काल में हमारे समक्ष कैसे-कैसे भयावह पिटारे खुल रहे हैं! दर्द और तसल्ली की असंख्य गाथाओं के पन्ने हमारे सामने हैं... एक मां ही होती है, जो अपने बच्चों के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं घबराती। इसलिए तो कहा गया है कि मां से बढकर कुछ नहीं होता। उसकी ममता, उदारता और त्याग की कहानियों से न जाने कितने ग्रंथ भरे पडे हैं। कोरोना के दुष्ट समय में देश के कई शहरों-महानगरों में कुछ माओं ने कैसे अपने बच्चों को यहां-वहां तडपने, मरने के लिए छोड दिया, समझ से परे है। अकेले नागपुर में ही तीन-चार नन्हे मासूम बच्चे लावारिस हालत में मिले। पुलिस ने उनके माता-पिता को खोजने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चला। अंतत: यह मान लिया गया कि गरीबी, बदहाली के कारण मां-बाप को अपने छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह त्यागने को विवश होना पडा हैं।
मध्यप्रदेश के बालाघाट में एक युवक ने अपने आठ वर्षीय बेटे के दोनों हाथ बांधकर उसे वैनगंगा नदी में फेंक दिया। इस हत्यारे पिता के पास कमायी का कोई साधन नहीं था। बेरोजगारी और गरीबी के कारण पिछले कई दिनों से मानसिक रूप से वह बेहद परेशान था। जिस दिन उसने बेटे का नदी में डुबोकर खात्मा किया, उसी दिन उसकी १० वर्षीय बिटिया का जन्मदिन था। भरी दोपहर वह अपनी पत्नी को यह कह कर निकला कि बेटी के बर्थ-डे के लिए केक लेने जा रहा हूं। करीब दो घण्टे बाद वह अकेला लौटा और पत्नी व परिवारजनों को दिल को दहला देने वाली यह हकीकत बताकर रुला-रुला दिया।
कोरोना के खूंखार दौर में हुए लॉकडाउन में कई खुद्दारों को हाथ फैलाने के लिए मजबूर होना पडा है। भूख भी उनके सब्र का इम्तहान लेने को उतारू है। नागपुर में ही है पदमावतीनगर। जब देशभर में लॉकडाउन की घोषणा हुई तब यहां का रहने वाला ट्रक चालक भिवक्षु कोरे गुजरात में था। लॉकडाउन के दौरान कुछ दिन तो उसकी पत्नी ने जमापूंजी से काम चलाया, लेकिन जब हाथ खाली हो गये तो उसके होश उड गये। घर मालिक ने दो-तीन दिन खाना भिजवाया। पास-पडोस की कुछ महिलाओं ने भी थोडी-बहुत मदद की, लेकिन बाद में सबने हाथ खींच लिया। ऐसे में भूखे जागने और सोने की नौबत आ गई। मेहनतकश ड्राइवर की पत्नी को खुद से ज्यादा अपने छोटे-छोटे बच्चों की चिन्ता खाती रही। पूरे परिवार ने चार-पांच दिन सिर्फ पानी और चाय पीकर निकाले। बच्चों को भूख की तडपन से विचलित देख असहाय मां के मन में अपने मायके से मदद लेने का विचार आया तो वह रेल और बसों के बंद होने के कारण पैदल ही नब्बे किमी की दूरी पर स्थित भंडारा शहर जाने को निकल पडी, लेकिन रास्ते में ही पुलिस ने उसे रोक दिया। पुलिस के काफी समझाने के बाद वह घर वापस लौटी। बस्ती के कुछ युवाओं को जब मुसीबत की मारी इस मां की जानकारी मिली तो उसे राशन किट उपलब्ध कराई गयी। उसका ट्रक ड्राइवर पति करीब ४७ दिन तक लॉकडाउन में फंसे रहने के बाद जब नागपुर लौटा तो वह पत्नी और बच्चों के गले लगकर घण्टों रोता रहा।
कोई साधन न मिलने की वजह से एक मजदूर परिवार हैदराबाद से पैदल ही चले जा रहा था। उन्हें सैकडों मील दूर मध्यप्रदेश के शहर बालाघाट जाना था। हैदराबाद में मजदूरी करने वाले इस माता-पिता ने अपने तीनों बच्चों को आग उगलते सूरज की तपन से बचाने की हर कोशिश की, लेकिन भूख, प्यास और लम्बे रास्ते की थकान भारी पड गई। उनके चार वर्षीय बच्चे का बेहाल हो गया। बीच रास्ते अस्वस्थ होकर वह बेहोश हो गया। असहाय माता-पिता ने सडक से गुजरते वाहनों और जीते-जागते इंसानों से हाथ जोड-जोड कर मदद मांगी, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। अपने सामने दम तोडते बच्चे की मां की चीखें सुनकर कुछ लोग रुके भी, लेकिन उन्हें 'अपने देस' जाने की जल्दी थी। अपनी जरूरत ने उन्हें इन्सान से पत्थर बना दिया था। इस दौरान घण्टों बच्चा मौत से जूझता रहा। अंतत: उसने मां की गोद में ही दम तोड दिया। दुखियारी मां ने खुद ही अपने आंसू पोंछे। नदी किनारे गह्ना खोदकर बेटे को दफनाया और आगे की राह पर चल पडी।
नोएडा की बारह साल की निहारिका को जब पता चला कि तीन प्रवासी मजदूर बहुत बडी विपदा में हैं। एक तो कैंसर का मरीज भी है। उसने अपनी बचत के ४८ हजार रुपये खर्च कर हवाई जहाज से उन्हें झारखंड भिजवाया। इस छोटी उम्र की बडी सोच रखने वाली बालिका का कहना है कि समाज ने हमें बहुत कुछ दिया है। अब हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि संकट के दौर में समाज के काम आएं। पूणे का ऑटोचालक अक्षय। इस शख्स की उदारता और दरियादिली तो देखिए...। इसने अपनी शादी के लिए जमा किये दो लाख रुपये उन बेसहारा मजदूरों को खाना खिलाने में खर्च कर दिये, जो सडकों पर भूखे-प्यासे भटक रहे थे। बलराम और रहमान जैसे जाने कितने भारतीय चेहरे हैं जो फरिश्तों की भूमिका में हैं। उनकी सहायता के हाथ न किसी की जात पूछ रहे हैं, न ही किसी का धर्म। बस मानवता का धर्म निभाये जा रहे हैं। उन्हें प्रचार और शोहरत की भी कोई भूख नहीं है। इन्हीं नायकों की वजह से ही आगे की राह के भी आसान होने का देशवासियों को पूरा-पूरा भरोसा है...।

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