Thursday, August 13, 2020

समय के सीने में खंजर



चित्र - १ : महाराष्ट्र में स्थित है शहर औरंगाबाद। यहां के एक कुपूत ने अपनी ९० वर्षीय बुजुर्ग मां को जंगल में ले जाकर मरने के लिए छोड दिया। चलने-फिरने में लाचार मां को कोरोना हो गया था। भरे-पूरे परिवार के सभी सदस्यों को यह डर सताने लगा था कि बु‹िढया के कारण कहीं वे सभी कोरोना की चपेट में न आ जाएं। उसके तो वैसे भी कब्र में पैर लटके हैं। चंद दिनों की मेहमान है, उसे अब अपने साथ रखकर मौत को दावत क्यों दी जाए। सभी को इस घोर समस्या से निजात पाने का यही अंतिम हल नजर आया कि कोरोना संक्रमण से ग्रसित मरणासन्न मां के इलाज पर अपनी मेहनत की कमायी लुटाने की बजाय घने जंगल में ले जाकर छो‹ड दिया जाए, जहां खूंखार जंगली जानवर उसे खा, चबाकर सफाचट करने में देरी नहीं लगाएंगे। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वैसे भी इस 'मौत काल' में जब सभी को अपनी जान बचाने की प‹डी है, तो कौन हमसे बु‹िढया के बारे में पूछेगा। दूर-दराज के रिश्तेदारों को बता देंगे कि माताजी को कोरोना ने हमसे छीन लिया है। हम आपकी सलामती के आकांक्षी है, इसलिए हमारा आग्रह है, अपने-अपने घरों में रहकर कोरोना से बचे रहें। यह समय दूर से ही संवेदना व्यक्त करने का है। घरवालों के सुझाव का पालन करते हुए नालायक बेटा अपनी मां को जंगल में किसी फालतू सामान की तरह फेंक कर आने के बाद घर में आकर चैन की नींद सो गया। बरसात का मौसम होने के कारण घने हरे-भरे जंगल में ठंडी हवाएं चल रही थीं। वृद्धा एक पतली-सी चादर में सिमटी-दुबकी घण्टों तडपती रही। तब उसके मन में कैसे-कैसे विचार आये होंगे इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि जानवर का निवाला बनने से पहले किसी की उस पर नजर प‹ड गयी। पुलिस ने वृद्धा को अस्पताल में भर्ती कराया। पूछताछ में जब मानवता को शर्मसार करने वाली यह हकीकत सामने आयी तो देखने व सुनने वाले हतप्रभ रह गये। आंखें भीग गर्इं।
चित्र - २ : कल रात को फेसबुक से पता चला कि आनंद नहीं रहा। कोरोना ने उसके प्राण ले लिए। हमारी ब‹डी पुरानी दोस्ती थी। तीस साल की सरकारी नौकरी के बाद २०२० के अप्रैल महीने में आनंद रिटायर हुआ था। तेजी से फैलते कोरोना संक्रमण ने पूरी दुनिया को भयभीत कर रखा था। रिटायरमेंट के बाद अपने कुछ छूटे कार्यों और सपनों को साकार होते देखने की उसकी ब‹डी तमन्ना थी। बेफिक्र होकर जीना चाहता था। दोनों बेटे अच्छी नौकरी का लुत्फ उठा रहे हैं। उसे अपने बहू-बेटे और पोते-पोती से भी असीम लगाव था। रिटायरमेंट के बाद कुछ महीने तो उसने परिवार के साथ अच्छी तरह से गुजारे फिर उसे समय काटने की परेशानी ने घेर लिया। वह शहर की एक समाजसेवी संस्था से जुड गया और लॉकडाउन से परेशान, घबराये गरीबों की सेवा में लग गया। मेरी उससे मोबाइल पर बात होती रहती थी। अक्सर कहता था कि एक्टिव लाइफ में ही असली मज़ा है। मैं तो चलते-फिरते ही इस दुनिया से विदा होना चाहता हूं। यह क्या कि बीमार होकर बिस्तर पडे रहो और बच्चे परेशान होते रहें। इस दौरान उसने अपनी लगभग सारी जमापूंजी भी बेटों के हवाले कर दी। दो महीने तक अपनी संस्था के साथियों के साथ सडकों पर भटकते और घरों में कैद लोगों को राशन, दवाएं, दूध के पैकेट आदि पहुंचाते-पहुंचाते खुद भी कोरोना का शिकार हो गया। उसी दौरान उसने अपनी पी‹डा व्यक्त करते हुए बताया कि बेटों से मिलने को तरस गया हूं। पोते-पोती की बहुत याद आती है, लेकिन इतने दिन हो गये कोई मिलने नहीं आया। अपनों की राह देखते-देखते आनंद दो हफ्ते अस्पताल में रहने के बाद स्वर्ग सिधार गया। उसके बेटों ने पिता की मौत की जानकारी मिलने के बाद भी उसके अंतिम दर्शन करना जरूरी नहीं समझा। अस्पताल प्रशासन ने उनसे बार-बार अनुरोध किया कि शव को आकर ले जाएं, लेकिन वे नहीं पहुंचे। अंतत: संतान के मोह का कैदी आनंद लावारिस की तरह दाह संस्कार के बाद आज़ाद हो गया।
चित्र - ३ : दिल्ली के भाई-बहन बिजेंद्र, सुमन ने कोरोना को हरा दिया, लेकिन लोगों के व्यवहार ने उन्हें डरा दिया। वे यह देखकर विचलित हो गये कि जिन लोगों के साथ उनका बचपन बीता, साथ-साथ खेले, पढे-लिखे, बडे हुए उन्हीं ने कोरोना होने पर उनसे मुंह मोड लिया। यही नहीं जब उन्होंने कोरोना को मात दे दी, पूरी तरह से स्वस्थ हो गये, तब भी उनकी परछाई तक से दूरी बनाते रहे। सामाजिक बहिष्कार झेलने वाले इस भाई-बहन ने ठीक होने पर दो अनजान लोगों की जिन्दगी बचाने के लिए खुशी-खुशी प्लाज्मा डोनेट किया। गली-मोहल्ले वालों के बर्ताव से दुखी सुमन और ब्रिजेंद्र कहते हैं कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होने पर उतना दुख नहीं हुआ था, जितना कोरोना से मुक्त होने के बाद अस्पताल से बाहर आने पर हुआ। क्या कोई प‹ढा-लिखा सभ्य समाज ऐसा होता है?
चित्र - ४ : देश की राजधानी में दस सदस्यों के परिवार के मुखिया रामनंदन को कोरोना की चपेट में आने के बाद राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में भर्ती कराया गया। रामनंदन के लिए उसका परिवार ही सबकुछ था। हमेशा अपनों की देखरेख व चिन्ताफिक्र करने वाले कोरोना ग्रस्त रामनंदन पांच दिन बाद चल बसे। अस्पताल की ओर से जब परिवार को उनके गुज़र जाने की सूचना देते हुए शव ले जाने को कहा गया तो सभी ने एकमत से शव लेने से मना कर दिया। सभी को अपनी जान प्यारी थी इसलिए उन्होंने अस्पताल प्रशासन और लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली संस्था को फार्म भरकर अंतिम संस्कार का जिम्मा सौंप दिया। किसी ने भी श्मशान घाट तक जाने की जहमत नहीं उठाई।
हर तरह से साधन-संपन्न बेटों, भतीजों, भाई-बहनों, चाचा-मामा एवं अन्य करीबी रिश्तेदारों के होने के बावजूद, जिन्हें कोरोना की चपेट में आने एवं दुनिया छोडने के बाद लावारिस छोड दिया गया! उनकी दुर्दशा और अपमान को देखकर श्मशान घाट व कब्रिस्तान में कार्यरत सेवकों की आंखों से आंसू छलक आये। इन मानवता के पुजारियों ने स्वयं के पैसों से शवों के कफन के इंतजाम से लेकर पूरे रस्मों-रिवाज के साथ 'लावारिसों' का दाह संस्कार और दफन क्रिया सम्पन्न की। एक बीमारी की वजह से दुनिया कितनी बदल गयी है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि ऐसा भी होगा? अस्पताल के एंबूलेंस से माता-पिता का शव लाने वाले कर्मचारी को चंद रुपये थमाकर कहा जाता है कि इनका अंतिम संस्कार आप ही जाकर कर दो!!
आज के इन घोर पीडादायी, भयावह हालात पर देश के विख्यात कवि, गीत, गज़लकार राजेंद्र राजन की लिखी यह पंक्तियां कितनी-कितनी मौजूं लगती हैं :

"आजकल जी भर गया कुछ इस तरह संसार से
अच्छी खबरें खो गर्इं जैसे अखबार से
वो जो बरसों तक लडा बीमारियों से हर घडी
एक पल में मर गया संतान के व्यवहार से
फसल ऐसी लहलहाई, जिन्दगी में स्वार्थ की
सारे रिश्ते दीखते हैं, आज खरपतवार से।"

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