Thursday, August 6, 2020

कहां हैं भगवान?

डॉक्टर आयशा। खिला-खिला मुस्कुराता चेहरा। तीस से ज्यादा की नहीं लग रहीं थीं। कोरोना संक्रमितों का इलाज करते-करते चल बसीं। इस युवती ने कई सपने देखे होंगे। बहुत कुछ कर गुजरने की चाहत रही होगी, लेकिन जब उसने देखा कि कोरोना ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है और मरीजों का तांता लगा है, तो वह सबकुछ भूलकर उनकी सेवा में लग गर्इं। न दिन देखा, न रात। अपनी जान को जोखिम में डालकर अपना फर्ज़ निभाने वाली आयशा कब कोरोना वायरस से संक्रमित हुर्इं, इसका भी उसे पता नहीं चला। पता चलता भी कैसे... वह तो मरीजों की देखभाल में सबकुछ भूल चुकी थी। उसे अपना होश ही कहां था! जब सभी ‘ईदङ्क मना रहे थे तभी हमेशा हंसती मुस्कुराती रहनेवाली मनमोहक आयशा ने इस जहां से हमेशा-हमेशा के लिए विदायी ले ली।
मध्यप्रदेश के नीमच शहर के छोटे से गांव में रहने वाले राजेंद्र कुमार चौधरी की यही ख्वाहिश थी कि गरीबी के कारण किसी को इलाज से वंचित न रहना प‹डे इसलिए उन्होंने अपने बेटे जोगेंद्र qसह को डॉक्टर बनाया। इसके लिए उन्हें अपना पुश्तैनी घर भी बेचना प‹डा, लेकिन उनकी दिली तमन्ना पूरी हो गई थी, इसलिए खुशी और तसल्ली से हमेशा उनका चेहरा चमकता रहता था। बाबा साहब अस्पताल में पदस्थ डॉ. जोगेंद्र की चुंबकीय मुस्कान के सभी कायल थे। मिलनसार इतने कि कुछ ही दिनों में अस्पताल के समस्त साथी डॉक्टरों, नर्सों और कर्मचारियों का दिल जीत लिया। कोरोना काल में मरीजों का उपचार उनकी पहली प्राथमिकता थी। खाना-पीना, सोना तक भूल गये। पूरी जागरुकता के साथ मरीजों का उपचार करते-करते जोगेंद्र स्वयं कोरोना के शिकार हो गये, लेकिन फिर भी अपनी qचता छो‹ड फर्ज निभाते रहे। इस बीच तबीयत ज्यादा बिग‹ड गई तो अस्पताल में भर्ती करवाना प‹डा। करीब एक माह तक पूरे दमखम के साथ कोरोना से जंग जारी रही। अंतत: चल बसे। डॉ. जोगेंद्र के पिता एक साधारण किसान हैं। दिल्ली में जब कोरोना ने लोगों को ब‹डी तेजी से अपने चंगुल में लेना प्रारंभ कर दिया था तब उनकी माताजी ने उन्हें वापस लौटने को कहा था, लेकिन जोगेंद्र ने कहा था कि ऐसे संकट के समय में कोरोना पी‹िडतों को मेरी सख्त जरूरत है। खुद को सुरक्षित करने की बजाय महामारी की गिरफ्त में आये लोगों को बचाना मेरी पहली जिम्मेदारी है। पिताजी ने मुझे जिस मकसद से डॉक्टर बनाया है उसे अधूरे में कैसे छो‹ड दूं? डॉक्टर जोगेंद्र की सगाई व शादी मार्च में होनी थी। परिवार ने सभी तैयारियां भी कर ली थीं, लेकिन कोरोना के कारण लॉकडाउन लगने की वजह से जून माह में शादी करने का निर्णय लिया गया। जून माह के अंत में पूरी तैयारी कर ली गयी, लेकिन बेटा कोरोना की चपेट में आ गया। करीब एक माह तक अस्पताल में रहने के दौरान भी उसे अपने घर बसाने की बजाय मरीजों की चिन्ता थी। वह बार-बार कहता कि ठीक होते ही मुझे मरीजों की सेवा में लग जाना है...। वे मुझे बुला रहे हैं...।
देश के सबसे ब‹डे अस्पतालों में से एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के झज्जर कैंप में अपनी सेवाएं देने वाले नंद भंबर की जनवरी, २०२० में शादी हुई। तीन दिन बाद ही उन्हें ड्यूटी पर वापस बुलाया गया तो वे हाजिर हो गए। पिछले पांच माह से कोरोना संक्रमित मरीजों को उनके बिस्तर पर डायलिसिस की सेवा दे रहे नंद को उसकी मां ने पीपीई किट में पसीने से तर-बतर देखा तो उनके होश उ‹ड गये। नंद लगभग बेहोशी की हालत में थे और मां से वीडियो कॉल पर बात करने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन कमज़ोरी और थकावट के कारण कुछ बोल नहीं पा रहे थे। बेटे को इस हालत में देख मां बुरी तरह से घबरा गयी। खुद को संभालने के बाद बेटे ने मां से बात की तो मां की सांस में सांस आयी और खुशी से उसका उदास मुरझाया चेहरा खिल गया। बेटा मां की आवाज सुनने को आतुर था। मां ने इतना ही कहा कि बेटा तू वाकई भगवान है। तेरे जैसा लाल ईश्वर हर मां को दे। आज तुझे मरीजों की सेवा करते देख मेरा जीवन धन्य हो गया। तू मेरी चिन्ता मत कर, बस मरीजों की सेवा में खुद को पूरी तरह से अर्पित कर दे। नंद बारह-बारह घण्टे तक पीपीई किट पहनकर मरीजों की देखरेख करते रहते हैं। हकीकत यह है कि अगर किट को ९ से १२ घण्टे तक पहना जाए तो पसीना, डिहाइड्रेशन, घबराहट जैसी तकलीफ होने लगती है, लेकिन नंद के लिए यह रोजमर्रा की बात है। घण्टों पीपीई किट पहने रहने के बाद जब वह उसे उतारते हैं तो नीचे (जूते की ओर) पसीना पानी की तरह भर जाता है, लेकिन नंद को फर्क नहीं प‹डता। यह सच दीगर है कि उनकी तकलीफ को देखकर देखने वाले घबरा जाते हैं।
लॉकडाउन के दौरान जब मजदूर अपने गांव जाने को बेचैन थे। भूख से बेहाल थे। यह सोच-सोच कर निराश हो चले थे कि उनकी अब ऐसे ही मौत हो जाने वाली है। कोई नहीं उनका हाल-चाल जानने वाला। सभी को अपनी प‹डी है। गरीबों की किसी को कोई फिक्र नहीं। तब एक्टर सोनू सूद अचानक उनके लिए फरिश्ता बनकर सामने आये। इस असली जननायक ने हजारों श्रमिकों को उनके घर पहुंचाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी और ताकत लगा दी। जो काम सरकार नहीं कर पायी उसे इस शख्स ने अपनी जुनूनी टीम के सहयोग से कर दिखाया। हजारों श्रमिकों, गरीबों, बदहालों को बसों, रेलगा‹िडयों से उनके गांव तक पहुंचाया। सभी के लिए भोजन, पानी, दवाएं, बच्चों के लिए दूध आदि की भी व्यवस्था की। हजारों मांओं ने सोनू को सदा सुखी रहने, फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया। बहनों ने बार-बार सराहना की। बुजुर्गों के मुंह से यही शब्द निकलते रहे, यह शख्स इंसान नहीं, भगवान है।
आंधप्रदेश के एक गरीब किसान की दो बेटियों की वो तस्वीर करो‹डों लोगों ने देखी होगी, जिसमें वे हल में बैलों की जगह खुद जुती थीं। समाजसेवकों, उद्योगपतियों, बुद्धिजीवियों ने बदनसीब गरीब किसान के प्रति भरपूर दया और सहानुभूति जतायी। सरकार और व्यवस्था को भी कोसा। यह तस्वीर देख कर सोनू का दिल पसीज गया। प‹ढने-लिखने की उम्र में देश की बेटियों की यह दुर्दशा और मजबूरी! उन्होंने उनके खेत को जोतने के लिए ट्रेक्टर भिजवा दिया। बाद में उनके भेजे ट्रेक्टर के साथ दोनों बेटियां और मां की मुस्कुराती तस्वीर भी सबके सामने आयी। पिता का कहना था कि ऊपर वाले भगवान को तो किसी ने नहीं देखा, लेकिन धरती के भगवान को हमने देखा भी और साथ ख‹डे पाया भी है।
हर कोई कहता है कि जमाना ब‹डा खराब है। सभी चाहते हैं कि यह दुनिया बदल जाए। किसी भी संकट काल में कोई भी खुद को असहाय और अकेला न पाए। बातों, उपदेशों, सीखों, संदेशों के जमा-खर्च करनेवालों की भी‹ड में कोरोना काल में हमने कितने ऐसे लोग देखे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के इंसानियत के परचम को लहराया है। हम में से किसी ने भी ईश्वर को नहीं देखा। भगवान की भी केवल कल्पना ही की है। यह जो सच्चे सेवक हमारे सामने हैं, इन्हें भी क्यों न हम अपना भगवान मान लें?

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