Thursday, September 3, 2020

हर शहर मांगे, अशोक, दुर्गा और तुकाराम

२८ साल की नौकरी में ५३ तबादले! जिस विभाग में गये वहीं के फर्जीवाडे और घोटालों को उजागर करने में लग गये। कभी किसी के दबाव में नहीं आये। किसी राजा के दरबार में माथा नहीं टेका। शुभqचतक समझा-समझाकर थक गये कि तुम अकेले इस दुनिया को नहीं बदल सकते। राजनीति के मगरमच्छों से बैर करके तकलीफ के सिवाय और कुछ नहीं पाओगे। जिन लोगों के लिए अपनी जान दांव पर लगाने से नहीं घबराते हो वो खुद ही अंधे बने हुए हैं। तालाब में रहकर लगातार मगरमच्छों से टकराव कर और कितना खामियाजा भुगतोगे। यह भी कोई जीना है। चौबीस घण्टे जूते पहने रहते हो। रात को तकिये की जगह सूटकेस लगाकर सोते हो।
सत्ताधीशों, राजनेताओं और अपनी ही बिरादरी के भ्रष्टों से सतत लडने और टकराने वाले प्रेरक योद्धा अशोक खेमका १९९१ बैच के आईएएस अधिकारी हैं। उनकी कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी ने पहले उन्हें हरियाणा में लोकप्रिय बनाया फिर उनके सोने की तरह एकदम खरे सच्चे जुनून और संघर्ष ने देश और दुनिया में उनके नाम का ऐसा डंका बजाया कि सरकारें भी घबराने लगीं। भ्रष्ट राजनेताओं और अफसरों को भी अंदर ही अंदर खुद के होने पर शर्म तो आयी, लेकिन सत्तामोह और 'धनमोह' ने उन्हें पतित बनाये रखा। यकीनन बडा मुश्किल होता है भीड से अलग हटकर चलना और अपने लिए कांटों भरी राह चुनना, लेकिन इतिहास गवाह है, जिसने भी अपने निजी स्वार्थों की तिलांजलि देकर सर्वजन हितकारी सोच को अमलीजामा पहनाया, उसको आम जनता ने हाथोंहाथ लिया। यह सुख हर किसी के नसीब में नहीं। उनकी किस्मत और हिस्से में तो बिलकुल भी नहीं, जो 'काली माया' के चक्कर में घनचक्कर बन जाते हैं। अशोक खेमका चाहते तो आज खरबपति होते। उनका स्थायी ठिकाना होता। किसी आलीशान कोठी में शान से रह रहे होते, जहां महंगी से महंगी कारों के साथ तमाम ऐशो-आराम के साधन होते, लेकिन वे उस मिट्टी के नहीं बने हैं, जो काली ही काली है। देशवासियों की आंखों में धूल झोंकने वाली है।
अरविन्द केजरीवाल ने जिस राबर्ट वाड्रा के लुटेरे कारनामों का डंका पीट-पीटकर अपनी राजनीति की सडक बनायी और आज दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं, उस सोनिया गांधी के प्यारे-दुलारे दामाद के तन-बदन में आग लगाने और बेनकाब करने की हिम्मती पहल अशोक खेमका ने ही की थी। खेमका ने ही प्रियंका गांधी के इस मायावी ठग पतिदेव पर हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र qसह हुड्डा की सरकारी जमीनें सौगात में देने की अथाह मेहरबानियों तथा मात्र चार साल में ५० लाख की सम्पत्ति के ३०० करोड के जादुई आंकडे तक पहुंच जाने के चमत्कार का पर्दाफाश किया था। उसके बाद ही भारतवासियों को पता चला था कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का दामाद होने के कितने-कितने सुख और फायदे हैं। सासू मां के सत्ता काल में शातिर व्यापारी ने सात फ्लैट सिर्फ ५ करोड में हासिल कर लिए, जबकि तब एक फ्लैट की ही कीमत ३५ से ७० करोड रुपये तक थी। हरियाणा सरकार ने वाड्रा की 'नामी-गिरामी कंपनी' को जो ३.५ एकड जमीन साढे सात करोड में बाप का माल समझकर दे दी, उसे शातिर वाड्रा ने उस रियल स्टेट दिग्गज डीएलएफ को ५५ करोड में बेच दिया, जिसने उन्हें ६५ करो‹ड का लोन बिना ब्याज अर्पित किया था। चार करोड २० लाख का आलीशान फ्लैट मात्र ८९ लाख में खरीदने के किस्मतधारी रॉबर्ट वाड्रा की नींद उडाने वाले खेमका ने गुरुग्राम के कई गांव की जमीनों को बिल्डरो के हाथों जाने से बचाया। इसके साथ ही उनके मददगार थैली प्रेमी अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की, लेकिन हरियाणा सरकार ने भ्रष्टाचारियों का साथ देते हुए खेमका का ही तबादला कर दिया। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, कर्तव्यपरायण खेमका को बार-बार अपनी ईमानदारी की सजा भुगतनी पडी। ये खेमका ही थे, जिन्होंने २००४ में तब के मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का आदेश मानने से ही इंकार कर दिया था, जब कई शिक्षकों का सत्र के बीच में तबादला कर दिया गया था। भ्रष्टाचारी चौटाला आज जेल में अपने दुष्कर्मों की सजा भुगत रहा है और खेमका तबादलों पर तबादले का दंश झेलने के बाद भी खुश और संतुष्ट हैं।
संघर्ष, धैर्य, परिश्रम, कर्तव्यपरायणता और दबंगता की प्रतिमूर्ति दुर्गा शक्ति नागपाल २००९ बैच की आईएएस अधिकारी हैं। दुर्गा ने उत्तरप्रदेश के गौतम नगर में एसडीएम के अपने कार्यकाल में भूमाफियाओं, रेत खनन माफियाओं तथा सरकारी सम्पत्ति के लुटेरों के होश ठिकाने लगा दिये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को खनन के डकैतों पर दुर्गा का डंडा चलाना कतई रास नहीं आया था। वजह थी बाहुबली और धनवान माफियाओं से उनकी करीबी और गहरी रिश्तेदारी। दुर्गा से पहले किसी भी आईएएस ने मुख्यमंत्री की नाराजगी मोल लेकर खनन के अवैध कारोबार पर लगाम लगाने की हिम्मत नहीं की थी। गौतम बुद्ध नगर के काटलापुर गांव में सरकारी जमीन पर बनायी गयी मस्जिद की दीवार को तोडने के आदेश ने खार खाये बैठे मुख्यमंत्री अखिलेश को दुर्गा को निलंबित करने का बहाना दे दिया। ईमानदारी और कर्मठता से अपनी ड्यूटी निभाने वाली दुर्गा पर आरोप लगा कि वे साम्प्रदायिक सौहार्द की धज्जियां उ‹डाने पर आमादा हैं। सरकार को ऐसी अधिकारी की जरूरत नहीं। मुख्यमंत्री अखिलेश को यह पता नहीं था कि दुर्गा के साहस की पूरे देश में प्रशंसा हो रही है। उनके निलंबन की गाज ने दुर्गा को रातों-रात आदर्श... रोल मॉडल बना दिया है। सोशल मीडिया पर उनके समर्थन में लाखों लोगों ने अपनी आवाज बुलंद की। जगह-जगह पर सरकार के विरोध में प्रदर्शनों का तांता लग गया। २०१४ में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो दुर्गा को प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली बुला लिया गया और कृषि मंत्रालय में ओएसडी बना दिया गया। इस निर्भीक नारी के प्रेरक जीवन संघर्ष पर फिल्म भी बन रही है। फिल्म निर्माता का कहना है कि ऐसी जीती-जागती प्रभावी शख्सियत की कहानी देश की जनता तक जानी ही चाहिए।
अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा देने वाले अधिकारियों को किसी प्रकार के प्रचार के साधनों की जरूरत नहीं पडती। उनके नाम का डंका बजाने वालों का हुजूम अपने आप जुट जाता है। उनकी ख्याति उनसे आगे दौडती-चलती है। १५ साल की अफसरी में १४वीं बार स्थानांतरित हुए २००५ बैच के आईएएस अधिकारी तुकाराम मुंढे, अशोक खेमका और दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह मंत्रियों और नेताओं को भले ही चुभते रहे हों, लेकिन आम जनता के बेहद प्रिय रहे हैं। २०२० के जनवरी महीने में नागपुर महानगर पालिका के आयुक्त पद को शोभायमान करने वाले तुकाराम जहां भी रहे, विवादों से घिरे रहे, लेकिन जनता के चहेते बने रहे। महानगर पालिका के कर्मचारियों को जब पता चला कि नियम-कानून का जी-जान से पालन करने वाले घोर अनुशासन प्रेमी तुकाराम का आगमन हो रहा है, तो वे सतर्क हो गये। तुकाराम का आना उनके लिए अच्छी खबर नहीं थी। उनके लिए तो और भी बुरी जो कामचोर और लेटलतीफ थे। बस नेतागिरी में लगे रहते थे। उन्हें तो न चाहते हुए भी अपनी गलत आदतें बदलनी पडीं। रिश्वतखोरी और लूटमारी करने वाले भी सतर्क हो गये। इस प्रशासनिक अधिकारी की नीति, निर्णय और निर्भीक व्यवहार से भ्रष्ट नगर सेवकों के स्वार्थों की पूर्ति में अवरोध लगने की खबरें लगातार सुर्खिया पाने लगीं। महापौर से टकराव की कर्कश आवाजें सोशल मीडिया पर भी सुनी-सुनायी जाने लगीं। किसी भी मंत्री और राजनेता के दरबार में माथा न टेकने की उनकी नीति ने निष्पक्ष पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का मन मोह लिया। शहरवासियों ने पहली बार ऐसा चट्टानी अधिकारी देखा, जो मनपा के खर्चों में कमी लाने, 'पानी' तथा अन्य भ्रष्टाचारों पर लगाम कसने के लिए पूरी तैयारी के साथ युद्धरत रहा। मार्च के महीने में होली के बाद एकाएक बरपे कोरोना कालखंड में तो मनपा आयुक्त तुकाराम ने कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए जो एक से बढकर एक योजनाएं बनायीं, शहरवासियों में चेतना जगायी, सुविधाएं उपलब्ध करवायीं उससे तमाम शहरवासी उनकी लगन, दूरदर्शिता व कार्यकुशलता का लोहा मानने को विवश हो गये। ३० लाख से अधिक की आबादी वाले नारंगी नगर की जनता को अनुशासन और सजगता के सूत्र में बांधे रखने के लिए अपनायी गयी कठोरता कुछ लोगों को पसंद नहीं आयी। एक तरफ जहां तुकाराम आमजन में लोकप्रिय होते चले गए वहीं दूसरी तरफ उनपर मनमानी के भी आरोप लगने लगे। महापौर एवं नगरसेवकों के साथ मनमुटाव और टकराव की खबरों की रफ्तार बढने लगी। इसी दौरान उन्होंने व्यापारियो के सिर पर महाराष्ट्र महापालिका कानून के अनुसार लाइसेंस लेने अन्यथा दुकाने बंद करने की तलवार लटका दी। उनका भावावेश में यह कहना भी व्यापारियों को शूल-सा चुभा कि यह शहर आपसे नहीं, आप शहर की वजह से हैं। कोरोना वायरस के भय से चिन्तित व्यापारी, जिनके पिछले कई माह से व्यापार, कारोबार ठप से थे। अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी उन्होंने तुकाराम के विरोध में एकजुट होने में देरी नहीं लगायी। फिर भी उनके प्रति सभी का आदर सम्मान तो बना रहा। नागरिकों को कोरोना से बचाने के लिए दिन-रात भागदौड करता योद्धा खुद भी कोरोना का शिकार हो गया। शहर भर के लिए महीनों बेचैन रहे सिपाही ने बिस्तर पकड लिया। कोई भी उनका हालचाल जानने को नहीं जा सका। इस बीच २० अगस्त की दोपहर उनके तबादले की खबर आई तो शहर की जनता सडकों पर उतर आयी। सोशल मीडिया पर भी इस पीडादायी तबादले के विरोध में जोरदार आवाजें उठीं। सभी की बस यही मांग थी कि उनका तबादला रोका जाए, लेकिन शहर के 'महासत्ताधीश' की मेल-मुलाकात नहीं करने की नाराजगी से जन्मी तीखी शिकायत पर हुए क्रूर स्थानांतरण को कौन रोकता?

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