Thursday, November 12, 2020

एक और कसम

"तुम्हारा तो हर हाल में इस दलदल से दूर रहने का वादा था?"
"क्या करती अपने बू‹ढे मां-बापूजी और छोटी बहन को चुपचाप मौत का निवाला बनते देखती रह जाती...!"
"इन बदनाम पगडंडियों पर फिसल-फिसल कर चलने के अलावा और भी तो रास्ते हैं, जिन पर चलने से तुम्हारा मान-सम्मान बना रहता। तुमने तो मेरे भरोसे के कत्ल के साथ-साथ अपना भविष्य भी चौपट करने की भूल कर दी!"
"आदरणीय पत्रकार महोदय, यह जीवन भी बडा अजीब है। कब किसके साथ क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जिस तरह से कोरोना ने करो‹डों लोगों को तबाह कर दिया। लाखों की मौत हो गयी। उसकी किसी ने कभी कल्पना की थी? मैं तो लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर पढाई-लिखायी में लीन थी। बाबूजी कभी-कभार जिद करके कमाने-धमाने के लिए घर से बाहर चले जाते थे। इधर-उधर से थोडी-बहुत सहायता भी मिल रही थी, लेकिन अचानक एक दिन मां और बाबूजी को खांसी, जुकाम और बुखार ने जकड लिया। कोविड-१९ का टेस्ट करवाया तो पॉजिटिव निकलने पर डर के मारे हम सबके हाथ-पांव फूल गये। हर सुख-दु:ख में साथ देने का आश्वासन देने वाले रिश्तेदारों तथा पडोसियों को जैसे ही दोनों के कोरोना संक्रमित होने की खबर लगी तो सहायता का हाथ बढाना तो दूर सबने हमारे घर के आसपास फटकने से भी तौबा कर ली। दोनों को अस्पताल में भर्ती कराने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। पहले तो डॉक्टर आनाकानी करते रहे, लेकिन जब मैंने उन्हें पूरी तरह से यकीन दिलाया कि जो भी फीस होगी पांच-सात दिन में जमा करा दूंगी। तब कहीं जाकर उन्होंने अपने हाथ-पैर चलाने प्रारंभ किये। पांच हजार रुपये मैंने एडवांस भी जमा करवा दिये।
दूसरे कोरोना मरीजों के परिजनों से यह पता चल गया था कि कम-अज़-कम पचास-साठ हजार रुपये तो लगेंगे ही। डॉक्टरों के लिए कमायी का यह सुनहरा मौका है। उन्हें अपनी मजबूरी बताते हुए लाख रोते-गाते रहो, लेकिन वे किसी पर भी रहम नहीं करते। मेरे पास तो सोने-चांदी के कोई जेवर भी नहीं थे, जिन्हें साहूकार को बेचकर अस्पताल की फीस दे पाती। मेरे पढने-लिखने के इंतजाम के लिए घर पहले ही गिरवी रखा जा चुका था। मेरे पास एक अपना जिस्म ही था, लेकिन लॉकडाउन में ग्राहक ढूंढना आसान नहीं था। हां, मुझे यह जरूर पता था कि हमारे समुदाय की लडकियां, औरतें हमेशा की तरह इन दिनों भी हाइवे से गुजरने वाले ट्रकों के ड्राइवरों की वासना पूर्ति कर घर परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर रही हैं, लेकिन मेरे सामने तो इलाज के लिए मोटी रकम के जुगा‹ड की घोर समस्या थी। काफी सोच-विचार करने के पश्चात अंतत: रात को मैं हाइवे पर स्थित उस कुख्यात ढाबे पर जा पहुंची, जहां से कभी मां ने वेश्यावृति की शुरुआत की थी। अपनी पूरी जवानी इस बदनाम धंधे में कुर्बान कर देने वाली मां ने कसम खायी थी कि अपनी बेटियों को इस नर्क में कभी नहीं जाने देगी, लेकिन...। ढाबे के मालिक को जब मैंने अपनी समस्या से अवगत कराया तो उसे मुझ पर बडा रहम आया। उसने फौरन कुछ अनजान चेहरों से मिलवा दिया।
जिस देह व्यापार से मुझे नफरत थी उसी ने चार दिन में मेरी पहाड-सी समस्या का समाधान कर दिया। दो दिन तक दर्द से तडपती रही। मां-बाबूजी स्वस्थ होकर घर आ गये। मां को जब मेरे बिकने की हकीकत पता चली तो वह घण्टों रोती रही। तसल्ली देने के लिए मैंने ही उन्हें समझाया और याद दिलाया कि हमारा बांछडा, बेड़िया तथा सांसी समुदाय पेट पालने के लिए सदियों से ही देह व्यवसाय करता चला आ रहा है। दूसरों के यहां जहां बेटों के जन्मने पर खुशियां मनायी जाती हैं, हमारे यहां तो बेटी का होना शुभ माना जाता है। खूब ढोल-नगाडे बजाये और गीत-गाने गाये जाते हैं। कई दिनों तक जश्न का जोश इस उमंग की तरंग में डूबा रहता है कि रोजगार में इजाफा करने के लिए घर में एक और नारी देह का आगमन हुआ है।
फिर अब तो हमारे समुदाय के लोगों की धन की भूख इस कदर बढ गयी है कि दूसरे समाज की लडकियों को भी खरीदकर अपने परंपरागत पेशे में खपाया जाने लगा है। बडे गर्व के साथ मासूम बच्चियों को जिस्मफरोशी में धकेलने वाले हमारे समुदाय के लोगों को मेहनत-मजदूरी करने में लज्जा आती है। बहू-बेटियों को बेचकर पेट भरने वाले लोगों की भीड में अपवाद स्वरूप मेरे मां-बाबूजी जैसे लोग भी हैं, जो बेटियों को बाजार की हवा नहीं लगने देना चाहते, लेकिन कोई न कोई मजबूरी, उनके सपनों का खून कर देती है। सरकार ने भी घोषणाएं और दावे तो बहुत किए, करोडों का फंड देने की घोषणा भी की, लेकिन हमारा समुदाय वहीं का वही है। यह सरकारी धन पता नहीं किनके पास जाता है। हम तक आया होता तो किंचित तो सुधार के लक्षण नजर आते! सरकार के साथ-साथ मेरी नाराज़गी और शिकायत तो आपकी पत्रकार बिरादरी से भी है, जो हमारे समुदाय की औरतों, लडकियों और बच्चियों के प्रति दिखावटी सहानुभूति दर्शाते हैं। हमारे बारे में जो खबरें तथा लेख लिखे, छापे जाते हैं वे निमंत्रित करते आकर्षक विज्ञापन ज्यादा लगते हैं, उन्हीं को पढकर पता नहीं कहां-कहां से लोग हमारे ठिकानों तक दौडे चले आते हैं। उन्हें हमारी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और बदहाली तो नहीं दिखती, नारी देह जरूर दिखती है। हर किसी ने यह मान लिया है कि उसे विधाता ने धरती पर पुरुषों की वासना की आंधी को शांत करने के लिए ही भेजा है।"
"लेकिन अब तो तुम्हारे माता-पिता बीमारी से मुक्त हो चुके हैं। जो हुआ उसे भूल जाओ। अपनी पढाई-लिखाई की तरफ ध्यान दो। अब बस यही सोचकर खुद को तसल्ली दो कि कोई बुरा सपना देखा था, जिसने कई कटु अनुभवों से साक्षात्कार कराकर तुम्हारी आंखें खोल दीं। भविष्य में तुम्हें अपने समुदाय में बदलाव लाने के लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहुत संभल-संभल कर चलना है।"
"कौन सी दुनिया में रह रहे हैं पत्रकार महोदय! अब आपको वो सच भी बताये देती हूं, जिसे मैंने आपसे छिपाये रखने की सोची थी। मां-बाबूजी को कोरोना से मुक्त होने के बाद भी अस्पताल से छुट्टी नहीं दी जा रही थी। लालची डॉक्टरों की जिद थी जब तक बाकी के और चालीस हजार रुपये नहीं भरे जाएंगे तब तक उन्हें उनकी कैद में रहना होगा। जोरदार तमाशा-सा खडा कर दिया गया था। पचास हजार तो मैं दे चुकी थी। बाकी की फीस को चुकाने के लिए अब मुझे कई हफ्तों से देहभोगी डॉक्टरों के बिस्तर पर बिछना पड रहा है। दोनों डॉक्टर तो अपनी मनमानी करते ही हैं, अपने दोस्तों को भी बुला लेते हैं। इसे मैं उनकी भलमानस कहूं या कुछ और... रात भर मेरी देह के साथ खिलवाड करने के पश्चात कभी-कभार पांच-सात हजार की मेरी वेश्यावृत्ति की फीस देना नहीं भूलते। उसी से मां-बाबू जी की दवाई, छोटी बहन की पढाई और घर का चूल्हा जल रहा है।"
"देखो, अब कोरोना की बीमारी का प्रकोप काफी कम हो चुका है। तुम अपनी इस भयावह दुनिया से बाहर निकलने की ठान लोगी तो सब ठीक हो जाएगा। किसी बडे सुरक्षित शहर में रहने और पढने का पूरा प्रबंध मेरे जिम्मे रहा।"
"क्या पत्रकार जी! आपको अभी भी मैं वो बच्ची लग रही हूं, जिससे आप सात साल पहले मिले थे। अब पूरे सत्रह साल की हो गई हूं। यहां की और वहां की दुनिया की सच्चाई मेरे से छिपी नहीं है। हर जगह वहशी दरिंदे भरे पडे हैं। अखबार में आज सुबह ही मैंने यह खबर पढी है,  "पुणे के निकट स्थित एक गांव में बीती रात शौच करने के लिए निकली एक महिला को किसी वहशी इंसान ने दबोच लिया। जब महिला के प्रतिरोध के कारण वह बलात्कार नहीं कर पाया तो उसने उसकी आंख ही निकाल ली...।"
"ऐसी वारदातें तो अब अपने देश में रोजमर्रा का खेल हैं, लेकिन तुमने जो किया, उससे मेरा दिल टूट गया है।"
"आप चिन्ता न करें। एक कसम टूट गई तो उसे जाने दें। मेरा एक बार फिर से वादा है कि अपनी छोटी बहन को कभी भी नहीं बहकने दूंगी। उसे इतना पढाऊंगी-लिखाऊंगी और जगाऊंगी कि वह अपनी सारी उम्र आपके सपने को साकार करने में लगा देगी। वो कसम तो टूट गई, लेकिन इस कसम को अपने जीते-जी तो कभी भी टूटने और बिखरने नहीं दूंगी।"
१५ अगस्त १९४७ के दिन जन्मे पत्रकार, स्वतंत्र कुमार ने जब से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तभी से मध्यप्रदेश के मंदसोर जिले में महिलाओं के जागरण और उत्थान में लगे हैं। उन्हें कुछ लडकियों को देह धंधे के कीचड से बाहर निकालने में सफलता भी मिली है। उनका एकमात्र लक्ष्य और हार्दिक तमन्ना है कि कोई भी लडकी बिकने को मजबूर न हो।

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