Thursday, February 25, 2021

रिश्ते-फरिश्ते

        आप भी उससे मिलेंगे तो यही लगेगा कि कोई किताब पढ रहे हैं। आधे में छोडने का तो बिलकुल मन नहीं करेगा। पन्ना-पन्ना पढकर ही दम लेंगे। इस किताब में कुछ भी काल्पनिक नहीं। सौ फीसदी सच है। हकीकत है। ऐसी किताबें जुनून और जिद की कलम से लिखी जाती हैं। यह किताबें अंधेरे में भी चमकती नज़र आती हैं। इस किताब की असली नायिका मां है तो नायक बेटा है। नायक का नाम है श्रीकांत बोला। उम्र तीस वर्ष। जन्मजात नेत्रहीन है। झोपडी से महल तक पहुंचने की संघर्ष गाथा उसी की जुबानी...
        "मेरा जन्म १९९१ में आंध्रप्रदेश के सीतारामपुरम गांव में हुआ। माता-पिता को तब आघात लगा, जब उन्हें पता चला कि उनका बच्चा तो अंधा है। रिश्तेदारों, अडोसी, पडोसियों ने भी उन्हें घोर बदकिस्मत करार दे डाला, जिनके यहां लडका तो पैदा हुआ, लेकिन किसी काम का नहीं। उम्र भर के लिए बोझ। तकलीफों और परेशानियों का घर। सभी ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे बच्चे का होना न होना एक बराबर है। वैसे भी लडके तो मां-बाप की सेवा और उनका नाम रोशन करने के लिए जन्मते हैं। मां-बाप के सपने अपनी अच्छी औलाद की बदौलत ही साकार होते हैं। यह अंधा तो उनके लिए फंदा है। ऐसे फंदों से मुक्ति पाना ही अक्लमंदी है। जैसे दूसरे समझदार मां-बाप करते हैं, तुम भी इसका गला घोंट दो। चुपचाप कहीं दफना दो। यह नहीं कर सकते तो अनाथालय में ले जाकर छोड दो। वही इसे खिलाएंगे, पिलायेंगे और जो उनकी मर्जी होगी, करेंगे। अनाथालय की शरण में पल-बढकर भीख मांगना तो सीख ही लेगा। तुम लोगों का तो इसे पालते-पालते ही दम निकल जायेगा। घर के बर्तन तक बिक जायेंगे और हाथ में कटोरा पकडकर भीख मांगने की नौबत आ जाएगी।"
        कुछ दिन तक तो मां हर किसी के उपदेश सुनती रहीं, लेकिन एक दिन उन पर बिफर पडीं। उन्हें आसपास फटकने तक से मना कर दिया। मां के अंतिम फैसले के रूप में कहे गये इन शब्दों ने सभी की जुबानें बंद कर दीं, "तुम लोग कान खोलकर सुन लो कि जब तक मैं जिन्दा हूं, अपने बच्चे पर आंच नहीं आने दूंगी। खुद को बेचकर भी इसकी इतनी अच्छी तरह से परवरिश करूंगी कि तुम लोग भी देखते रह जाओगे।" "चार साल का हुआ तो मां ने गांव के स्कूल में दाखिला करवा तो दिया, लेकिन घर से अकेले बाहर निकलना मेरे लिए आसान नहीं था। कभी पिता स्कूल छोडने जाते तो कभी मां छोड आती और लेने भी पहुंच जाती। स्कूल में मेरे साथ पढने वाले बच्चे मुझ से दूरी बनाये रहते। जब मैं तीसरी कक्षा में पहुंचा तो प्रिंसिपल ने मेरे लिए फरमान जारी कर दिया कि हमें ऐसे बच्चों की जरूरत नहीं, जिसके लिए हमें जरूरत से ज्यादा दिमाग खपाना और अपना कीमती समय बरबाद करना पडे। मां के जुनून ने मुझे हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में पहुंचा दिया, लेकिन वहां भी मुझे कुछ भी सुझायी नहीं देता था। चौबीस घण्टे बस घबराया-घबराया रहता। एक रात मैंने स्कूल से भागने की कोशिश की तो वार्डन की मुझ पर निगाह पड गई। उन्होंने मेरे इरादे को भांप लिया था। गुस्से में उन्होंने मुझे अपने पास खींचा और पांच-सात तमाचे जडते हुए कहा कि कहां-कहां भागोगे। ऐसे भागने से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपना नहीं तो उस मां का ख्याल करो, जिसने कई सपने पाल रखे हैं। ईश्वर ने तुम्हें किसी चमत्कार के लिए इस धरती पर भेजा है। डरो नहीं, बस लडो... लडते ही रहो। वार्डन के चांटों और शब्दों का ही असर था कि उस दिन मुझे लगा कि मैं तो देख सकता हूं। मुझे हर चुनौती का डटकर सामना करते हुए खुशी-खुशी जीना है। मेरे अंदर साहस की रोशनी की तरंगें दौडने लगीं। मैं दसवीं तक टॉपर रहा, लेकिन मेरे मनोबल को तोडने वाली ताकतें तब भी मेरे पीछे पडी रहीं।
दसवीं के बाद आईआईटी की कोचिंग के लिए एक कोचिंग सेंटर गया तो वहां के संचालक ने तीखा थप्पड-सा शब्द बाण मारा कि तुम जैसे पौधे कभी पेड नहीं बन सकते, क्योंकि उनमें तेज बारिश और आंधियों को सहने की ताकत नहीं होती। हमेशा-हमेशा के लिए फौरन धराशायी हो जाते हैं और साथियों के तेजी से दौडते कदमों से रौंद दिये जाते हैं। साइंस में एडमिशन पाने के लिए अंतत: मुझे कोर्ट की शरण लेनी पडी। मां के हाथ और साथ के दम पर वो लडाई भी मैंने डट कर लडी और जीत हासिल की। आंध्रप्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड में साइंस लेकर ९२ प्रतिशत नंबर के साथ पास होने वाला मैं पहला नेत्रहीन छात्र बना। उसके बाद तो बडी आसानी से अमेरिका के एमआईटी में प्रवेश मिल गया और यहां भी तब तक किसी दृष्टिहीन छात्र को प्रवेश नहीं मिला था। अमेरिका से पढाई कर लौटा तो तकदीर मेरे स्वागत के लिए सभी दरवाजे खोले खडी थी। मैं हौसले से लबालब था। मां खुशी से फूली नहीं समा रही थी। मैंने अपने दम पर हैदराबाद में कंज्यूमर फूड पैकेजिंग कंपनी शुरू की। २३ की उम्र में बोलैंट कंपनी का सीईओ बना। आज जब तीस साल का होने जा रहा हूं तब कंपनी ६०० करोड के आंकडे को छू चुकी है। मेरी कंपनी में चार सौ कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें ७० प्रतिशत दिव्यांग हैं। जिन्दगी ने मुझे एक ही पाठ पढाया है कि ऊपर वाला भी तभी साथ देता है, जब हम हिम्मत और योजना के साथ चलते रहते हैं। चाहे कितनी भी मुश्किल भरी राहें हों, जुनूनी संघर्ष की बदौलत अंतत: आसान हो ही जाती हैं और मंजिल खुद-ब-खुद गले लगाती है।
        बेटे के लिए अपनी जिन्दगी होम कर देने वाली मां का यह बेटा आज छह सौ करोड का मालिक है। आने वाले वक्त में मेरी तिजोरी में दस-बीस हजार करोड रुपये भी होंगे, लेकिन मां और उनकी कुर्बानी से बढकर तो नहीं होंगे। मेरी सबसे बडी दौलत तो मेरी मां है, जिन्होंने मुझे यहां तक पहुंचाया है।"
        बीते हफ्ते महाराष्ट्र के नाशिक जिले में एक भाई अपनी बहन को बाइक पर दस किलोमीटर दूर स्कूल छोडने जा रहा था। सुनसान रास्ते में घनी झाडी में छिपे तेंदुए ने छलांग लगाकर बहन के पैर को अपने मुंह में दबोच लिया। ऐसा लग रहा था कि भूखा तेंदुआ उसकी जान लेकर ही दम लेगा। भाई ने आंधी की तरह बाइक की रफ्तार बढा दी। साथ-साथ दौडते तेंदुए ने बहन की पीठ पर टंगे बैग को जोर से खींचा और बैग उसके मुंह में आ गया। आगे बाइक दौड रही थी और पीछे-पीछे दौडता तेंदुआ बहन को दबोचने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाये था। भाई की भी जिद थी कि किसी भी हालत में बहन को बचाना है। भले ही खुद की जान क्यों न चली जाए। भाई बाएं हाथ से बहन को जकडकर, दाएं हाथ से बाइक दौडाता रहा। वह भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि बहन पर किंचित भी आंच न आए। इसी भागादौडी में तेंदुए के खिंचाव से बैग का पट्टा टूट गया और बैग उसके मुंह में फंसा रह गया। दोनों ने राहत की सांस ली। तेंदुआ बहुत पीछे छूट चुका था। उसके गुर्राने की दहशती आवाज अभी भी आ रही थी। उनकी बाइक सीधे स्कूल पहुंचकर ही रुकी। बहनों के प्रति भाइयों के स्नेह, समर्पण और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने की हजारों दास्तानें हैं। ऊपर वाले ने रिश्ते बनाये ही इसलिए होंगे। यह खून के रिश्ते हैं...। लेकिन एक और रिश्ता भी है, जो इंसानियत का रिश्ता कहलाता है। यह रिश्ता कई बार खून के रिश्तों को भी मात दे देता हैं, क्योंकि यह बिना किसी भेदभाव के सभी का साथी बन जाता है।
        एक सवाल कि एक रुपये में क्या होता है, क्या मिलता है? हलकी सी चाकलेट और संतरे के स्वाद वाली गोली जरूर मिल जाती है, जिसे आज के बच्चे भी पसंद नहीं करते। भिखारी भी एक रुपये के सिक्के को लेने से कतराते हैं। कागज़ के नोट तो वैसे भी आजकल कम नज़र आते हैं, जो हैं भी, वो शादी, ब्याह या किसी अन्य शुभ कार्य में दस को ग्यारह, सौ को एक सौ एक और पांच सौ को पांच सौ एक के शुभ आंकडे बनाने... दर्शाने के काम आते हैं। महंगाई भी कितनी बढा दी गई है। कुछ भी सस्ता नहीं मिलता। अनाज, दूध, सब्जियां, दवाएं सब महंगी होती चली जा रही हैं। पीने के पानी तक की कीमत चुकानी पड रही है। गरीब आदमी यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाए तो उसका बचना मुश्किल है। डॉक्टरी के पेशे की इंसानियत भी जाती रही है, लेकिन फिर भी सच्चे इंसानों के अंदर का इंसान जिन्दा है इसे साबित कर दिखाया है ओडिशा के संबलपुर जिले के युवा डॉक्टर शंकर रामचंदानी ने, जिन्होंने गरीबों और वंचितों के इलाज के लिए 'एक रुपया' क्लिनिक खोला है। किराये के मकान में खोले गये इस अस्पताल में मरीजों की भीड लगी रहती है। गरीबों से एक रुपया फीस भी इसलिए लेते हैं ताकि उन्हें यह न लगे कि वे मुफ्त में इलाज करा रहे हैं। वे लंबे समय से चाह रहे थे कि ऐसे चिकित्सालय की स्थापना करें, जहां गरीब और बेसहारा लोग आसानी से पहुंचकर मुफ्त में इलाज करवा सकें। उनका मानना है बडे-बडे अस्पतालों में बडे निवेश की आवश्यकता होती है, इसलिए वहां पर इलाज भी महंगा हो जाता है। इसलिए उन्होंने आलीशान अस्पताल खोलने की बजाय साधारण अस्पताल खोला है, जहां पर उनकी कोशिश है कि जिनकी जेबें खाली हैं वे भी गर्व के साथ बीमारी से छुटकारा पा सकें। अडतीस वर्षीय डॉक्टर की पत्नी भी डॉक्टर हैं। दोनों विभिन्न अस्पतालों में कई वर्षों तक कार्यरत रहे हैं। दोनों अच्छी तरह से जानते हैं कि आज अधिकांश डॉक्टर कैसे निर्दयी सौदागर बन कर रह गये हैं, लेकिन इन पति-पत्नी को धन की कोई भूख नहीं। ताउम्र इंसानियत का धर्म निभाते हुए जीना चाहते हैं... ताकि खुद की निगाहों से गिरना न पडे...।

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