Thursday, February 11, 2021

इतिहास का सबसे बडा विश्वासघात

    पहले मनोहरपुर (चाईबासा) की इस खबर को पढें। यह शहर भारत वर्ष में ही है। दरिंदा भी यहीं की धरा पर जन्मा है। हो सकता है इस खबर को पढने के बाद आपको कष्ट हो। गुस्सा आए। आघात भी लगे, लेकिन पढें जरूर :
'नसवीर टोला में रहने वाले ३५ वर्षीय पवन शराब के नशे का गुलाम हो चुका था। लगभग बीस साल से वह प्रतिदिन शराब पीकर उत्पात मचाता आ रहा था। २० जनवरी २०२१ की रात हमेशा की तरह पवन नशे में धुत होकर घर पहुंचा। साठ वर्षीय वृद्ध मां ने हमेशा की तरह उसे शराब से तौबा करने और इज्जत की जिन्दगी जीने को कहा तो वह भडक उठा और घर के बाहर चला गया। दरअसल वह मां की समझाइश और टोका-टाकी से तंग आ चुका था। रोज़-रोज़ की ऐसी ही टोका-टाकी और सलाह के कारण ही १७ सितंबर २०१२ को उसने अपने पिता की हत्या कर दी थी और एक साल पहले ही सजा काटकर रिहा हुआ था। पिता की तरह अब मां उसे अपनी शत्रु लगने लगी थी। करीब दो घण्टे के बाद वह एक पूरी बोतल चढाकर घर लौटा और मोटे डंडे से मां की अंधाधुंध पिटायी करने लगा। उसके छोटे भाई की पत्नी डर के मारे अपने एक माह के दुधमुंहे बच्चे को गोद में उठाकर बाहर भागी और कुछ ही दूरी पर स्थित एक घने पेड के पीछे छिप गई। अंधेरा होने के बावजूद उसे डंडे से अपनी मां को लहुलूहान करता शैतान दिख रहा था। वह चाह कर भी शोर नहीं मचा पा रही थी। भय से कांपती बस चुपचाप अपनी सास को मौत के मुंह में समाता देखती रही। कुछ ही देर में उम्रदराज बीमार, असहाय निर्बल मां ने दम तोड दिया।
    मां की सांसें छीनने और उसे लाश में तब्दील करने के बाद भी वह नहीं रुका। उसने घर के आंगन में ही सूखी लकड़ियां जमा कीं और फौरन धान की भूसी डालकर चिता बनायी। उस पर मां की लाश को रखा और आग लगा दी। धधकती आग में मां राख होती रही और वह बडे इत्मीनान के साथ उसी चिता की आग में मुर्गा भूनकर खाता-चबाता रहा। पूरा मुर्गा चट करने के बाद वह घर के भीतर जाकर बेफिक्र होकर गहरी नींद में सो गया...।"
    किसी भी संवेदनशील इंसान के होश फाख्ता कर देने वाली इस खबर को पढने के पश्चात इस विचार और सवाल का उठना लाजिमी है कि यह इंसान है या नरपिशाच? ...जिसने पहले अपने पिता की हत्या की, फिर मां को स्वाहा कर दिया। जरा सोचिये कि अपने बेटे के हाथों विधवा हुई मां ने इतने वर्षों तक अपने शराबी, हत्यारे बेटे को क्या सोचकर बर्दाश्त किया होगा? क्रूर बेटे को अपने सामने और आसपास पाकर भी क्या उसे अपने पति की याद नहीं आती रही होगी? निश्चय ही मां इस भ्रम में होगी कि आखिर वह उसी की पैदाइश है, जो होना था, हो चुका, लेकिन अब उसमें सुधार आयेगा। भूलकर भी अब वह कोई भूल नहीं करेगा। ऐसी घातक भूलें कई माता-पिता अकसर करते रहते हैं। बस इस इंतजार में कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा। हमारी जायी औलाद को ईश्वर सद्बुद्धि देगा, लेकिन नालायक औलादें सही रास्ते पर नहीं आतीं। पवन जैसे नरपिशाच यकीनन अपवाद होते हैं। लाखों, करोडों में एकाध, लेकिन फिर भी इनका हमारे ही समाज में पनपना डराता और कंपकंपाता तो है...!
आज के आपाधापी के दौर में बुजुर्ग दंपति कैसी-कैसी यातनाएं और अकेलापन भोग रहे हैं इसकी हकीकत बयां करती है यह खबर, "उत्तराखंड के शहर देहरादून में पैंसठ वर्षीय सेवानिवृत फौजी और पचपन वर्षीय उनकी पत्नी दो महीने तक घर में कैद रहे। इस दौरान उन्हें अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ। जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था तब दोनों अकेले खाली पेट मौत से जंग लड रहे थे। बेहद मरणासन्न स्थिति में जब उन्हें अस्पताल लाया गया, तब डॉक्टर भी उनकी दशा देखकर घबरा गये। दोनों के नाखून और बाल काफी बढे हुए थे। कपडे बेहद मैले-कुचैले थे। जबरदस्त बदबू आ रही थी। शरीर एकदम कमजोर हो गया था। उनसे ठीक से बोलना भी नहीं हो पा रहा था। कई दिनों तक पानी नहीं मिलने के कारण उनके शरीर में पानी की कमी हो गई थी। इस बुजुर्ग दंपति के दो बेटे और एक बेटी है। बेटे दिल्ली में नौकरी करते हैं। बेटी भी अपने परिवार के साथ दिल्ली में ही रहती है। हर तरह से सम्पन्न बेटे-बहू और बेटी-दामाद होने के बावजूद नर्क की सी सजा भोग रहे बुजुर्ग दंपति के अस्पताल में भर्ती होने का किसी ने वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाला तो अपनी ही दुनिया में खोये बडे बेटे को उनके बीमार होने का पता चला। अस्पताल में पहुंचने पर उसने अपने जन्मदाताओं की हालत देखकर अपनी नज़रें झुका लीं। उसके पास लोगों के सवालों का कोई जवाब नहीं था। वह तो पडोसियों को ही दोषी ठहरा रहा था, जिन्होंने अकेले घर में कैद उसके असहाय मां-बाप की सुध नहीं ली। पडोसी धर्म नहीं निभाया। इंसानियत को भी ताक पर रख दिया। उसका कहना था कि उसकी पहले कभी-कभार उनसे फोन पर बात होती रहती थी, लेकिन तीन माह से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। उन्होंने कभी हमें बताया ही नहीं कि वे परेशानी की हालत में हैं।
    चलने-फिरने में असमर्थ माता-पिता जिस घर में रहते थे, उसकी खिडकियां और दरवाजे टूट चुके थे। घर की मरम्मत के लिए रखा लोहा और सीमेंट गायब था। मां के जेवर भी कोई उडा कर ले गया था। शहर के कुछ दबंग उन्हें घर छोडकर चले जाने के लिए धमकाते रहते थे। वहां पर बडी बिल्डिंग तानकर करोडों रुपये कमाने का उनका इरादा था। बदमाशों के आतंकी खौफ के कारण भी उन्होंने बाहर झांकना बंद कर दिया था। पडोसी भी दबंगों से खौफ खाते थे और भूलकर भी उनका साथ देने के लिए नहीं आते थे। पुलिस अगर उन्हें अस्पताल नहीं लाती तो दस-बीस दिन में उनकी हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से विदायी हो जाती। बेटे, बेटी, दामाद और उनके बच्चे कुछ दिनों तक रोते-गाते फिर कहानी का हमेशा-हमेशा के लिए अंत हो जाता...।
    देहरादून के अपने घर में अपनों के होते हुए भी भोजन और पानी को मोहताज रहने वाले दंपति की कहानी से कुछ अलग हटकर दास्तां है मित्रबंधु की, जिन्हें उनके बेटे-बहू आधी रात को कार में बैठाकर कहीं बहुत दूर छोडकर चलते बने थे। अब उन्हें आजादी से जीने और करोडों की जायदाद अपनी होने की अपार खुशी थी। घर में बुड्ढे के पीकर चीखने-चिल्लाने के शोर और दखलअंदाजी से भी उन्हें छुटकारा मिल गया था। मित्रबंधु किसी जमाने में साहित्य के आकाश के चमकते सितारे थे। बिखरे परिवारों और टूटे इंसानों को जोडने और संभलने का संदेश देने वाली उनकी लिखी किताबों की बिक्री से कई प्रकाशकों ने खासा धन कमाया, लेकिन मित्रबंधु आर्थिक संकट में फंसे रहे। संतान के प्रति स्नेह, दुलार ऐसा कि बिना कुछ सोचे अपनी सारी जमा पूंजी उनके हवाले कर दी। बेटी तो शादी कर अपने पिया के घर में चल दी और बेटे-बहू ने बेघर कर दिया। वर्षों तक करीबी यार-दोस्त मित्रबंधु का चेहरा देखने के लिए तरसते रहे। बेटे ने कभी सही जवाब नहीं दिया। अभी हाल ही में शहर को साफ-सुथरा रखने के लिए नगर निगम ने बडी बेरहमी से बेघर, बेसहारा लोगों को गंदगी मानते हुए कडकती ठंड में शहर से मीलों दूर छोडने का अभियान चलाया, तो किसी जागरूक शख्स के द्वारा बनाये गये वीडियो में साहित्यकार मित्रबंधु का भी टूटा-फूटा चेहरा नज़र आया। बेटे ने तो नहीं, दोस्तों ने उन्हें तुरंत पहचान लिया। दोस्त जिससे मिलने की आस छोड चुके थे, वह तो भीख मांगकर अपना गुजर बसर कर रहा था। महानगर की भीड में वह अकेला नहीं था, जिसका अपनों ने ही ऐसा शर्मनाक हश्र किया था। विक्षिप्तों और भिखारियों के साथ रहते-रहते मित्रबंधु की भी दशा पागलों जैसी हो गई थी। बदन दिखाते फटे कपडे, झाड-झंखाड-सी बढी दाढी और बिखरे बाल उनका हाल बता रहे थे। वे महीनों से नहाये तक नहीं थे। किसी को पहचानने की क्षमता भी क्षीण हो गई थी।
    रिश्तेदार और दोस्त मित्रबंधु कोe‘रैन बसेरा' छोड फिर से घर जाने के लिए लाख कोशिशों के बाद भी मना नहीं पाये हैं। मित्रबंधु के रुंधे हुए गले से बस यही शब्द निकलते हैं, 'अब वहां क्या जाना जहां मुझे बार-बार अपमानित किया गया। अपनी ही संतान से मैंने उपहार में बस विश्वासघात ही पाया है। मुझे वो दिन बार-बार याद आता है, जब मैंने किसी गलती पर अपने पोते को थप्पड रसीद की थी तो बेटे ने मुझे हॉकी से पीटा था। बहू ने भी उसका साथ दिया था। दरअसल, जब उन्होंने मुझे पांच सौ मील दूर जंगल में ले जाकर छोड दिया था, मर तो मैं उसी दिन ही गया था। जब तक पत्नी जिन्दा थी तब तक मैं सुरक्षित और बेफिक्र था। वह शेरनी की तरह दोनों पर झपट प‹डती थी। सबका मुंह बंद कर देती थी। उसके जाने के बाद मैं अनाथ हो गया। नितांत अकेला हो गया। अब तो मैं ऊपर वाले से हाथ जोडकर बार-बार यही प्रार्थना करता हूं कि वह किसी भी इंसान को अकेला मत छोडे। जब पत्नी जाए तो वह भी चल बसे। घोर स्वार्थी रिश्तों के बीच बहुत मुश्किल होता है जीना। पल-पल काटना दूभर हो जाता है। अब तो मैं बेसहारा, लावारिसों के लिए बनाये गए इसी 'रैन बसेरा' में अपने सडक के साथियों के साथ बाकी बचे दिन गुजारना चाहता हूं। मेरी और कहीं जाने की कोई इच्छा नहीं...।'

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