Friday, March 19, 2021

बस... सावधान

"हां मारा है, तो...? उत्तर प्रदेश के एक फाइव स्टार होटल में पत्रकारों की पिटायी के बाद यही जवाब दिया प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने। पुराने समाजवादी बाप के इस बेटे की तरह अकडने, झगडने वाले नेता और भी हैं, जिन्हें पत्रकारों को लताडने और अपमानित करने में बडा मजा आता है। अपने यहां के अधिकांश पत्रकार फिर भी बददिमाग लडाकू गुंडे किस्म नेताओं के आगे-पीछे डोलने से बाज नहीं आते। जिस युवा राजनेता के इशारों पर उनकी पार्टी के बेलगाम कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों को लाठी, डंडों, घूसों और थप्पडों से अंधाधुंध मारा-पीटा आजकल उनका पारा काफी चढा रहता है। भारत के नेता सत्ता से बाहर होने के बाद बौखलाये रहते हैं। जब सत्ता पर काबिज रहते हैं, तब तो पत्रकारों को जमीनें, लिफाफे, महंगे उपहारों से नवाजते रहते हैं। हां मारा है, तो...? के धमकी भरे अंदाज और उग्र तेवर दिखाने की बजाय पत्रकारों की सुरक्षा का जिम्मा अपने सिर पर ओढे रहते हैं। इस बहादुर धमकीबाज ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने पिता का अनुसरण कर अपनी आरती गाने वाले पत्रकारों, संपादकों की कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहने दी। इस दरियादिली का यही मकसद था कि मीडिया के ये चेहरे हमेशा उनके प्रति वफादार बने रहेंगे। सत्ता आज है कल नहीं। इस अटल सच से हर नेता वाकिफ है, लेकिन सत्ता के छिनने के बाद समाजवादी बाप के समान बेटे ने कभी कल्पना नहीं की थी उनकी जी-हजूरी करने वाली फौज बागी हो जाएगी। उन्हीं से ऐसे-ऐसे सवाल करने लगेगी, जिनका जवाब देना मुश्किल होगा। पिछले कई महीनों से पत्रकारों को कोसने का चलन तेजी से बढा है। उन्हीं की बिरादरी में विभाजन की रेखाएं खिंच चुकी है। अखबारनवीसों को तो सम्मान मिल जाता है, लेकिन न्यूज चैनलों के कर्ताधर्ताओं ने खुद को लोगों की निगाह से गिराते हुए तमाशा बना कर रख दिया है। अधिकांश न्यूज चैनलों के एंकर तथा संवाददाता और संपादक इस भ्रम में जीने लगे थे कि वे अपने आप में बहुत बडी हस्ती हैं। उनके भीतर इस भ्रम को पनपाने में राजनीति, राजनेताओं का अहम योगदान है। अपने देश में कई चैनली बाबू करोड में खेल रहे हैं। भ्रष्ट नेताओं की इनकी काली कमायी के असली स्त्रोतों का पता लगाना आसान नहीं है। यही वजह है कि अधिकांश चैनल वाले यारी दोस्ती के चलन दस्तूर पर चल रहे हैं। वे किसी से पंगा नहीं लेते। अपने दोनों हाथों में लड्डू रखकर पत्रकारिता का आनंद लूट रहे हैं। उनपर कभी भी किसी नकली समाजवादी को अकड दिखाते नहीं देखा जाता। वे तो आज भी शाम को उनकी महफिलों का हिस्सा हैं। उत्तर प्रदेश के शहर गाजियाबाद में एक बारह साल के बच्चे ने मंदिर का पानी क्या पिया कि उसे अपराधी मान लिया गया। मासूम को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी ने इसी दिन के लिए तो अपनी शहादत नहीं दी थी। वे तो किसी बर्बरता की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। वोटों के लिए इंसानों को जाति-धर्म, समाज, अपने परायों में बांटने वाले लालुओं, भालुओं, मुलायमों, अखिलेशों ने राजनीति को युद्ध के मैदानों में तब्दील करके रख दिया है। चुनावों के मौसम से पहले ही हिंसा और मारकाट शुरू हो जाती है। अब तक चुनाव जगाते कम डराते ज्यादा हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले हिंसा का जो दौर चला है, उससे हर सजग भारतीय हैरान है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि हिंसा में भी फायदे तलाशे जा रहे हैं। पच्चीस-पचास की कुर्बानी से यदि बाजी पलटी जा सकती है या दोबारा सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है तो खून की नदियां बहाने में कोई हर्ज नहीं... ऐसा वो राजनेता भी मान चुके हैं। भले ही खुलकर दिखाते नहीं, लेकिन उनके इशारे सब कह रहे हैं। नेता और व्यक्ति विशेष के विरोध की राजनीति हर किसी के लिए डराने वाली है। नेता की मौजूदगी में उसी के गुंडों के द्वारा पत्रकारों को पीटने के पीछे एक बडा कारण यह भी है कि इस नेता और उसकी तरह के अधिकांश नेताओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखायी दे रहा है। वे जितना विरोध करते हैं, बकवासबाजी करते हैं उससे वो 'कर्मवादी' और बलशाली होता चला जा रहा है। जनता को इतनी समझ तो है ही कि कौन सच्चा देश सेवक है और किस-किस ने भारत को निरंतर लूटा-खसोटा है।

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