Thursday, March 11, 2021

उदास शहर का दर्द

    शहर हैरान है। वह बोलता नहीं। देखता तो है। अपने चेहरे-मोहरे में लाये जा रहे अच्छे बदलाव से उसे प्रसन्नता होती है। मन खिल उठता है, लेकिन यह जो शर्मनाक तमाशे हो रहे हैं, उसे कतई नहीं सुहाते। उसकी भी अपनी संस्कृति है। संस्कार हैं। जिनकी बदौलत पूरे देश में उसके नाम का डंका बजता है। दूर-दूर से लोग बार-बार उससे मिलने आते हैं। कई लोगों को तो यह शहर इतना भाता है कि वे यहीं बस जाते हैं। शहर भी उन्हें भरपूर मान-सम्मान के साथ अपनाता है। उसकी नजर में सभी एक समान हैं। जात-पात-धर्म, गरीबी, अमीरी उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। मायने रखती है तो बस इंसानियत, भाईचारा, मेल-मिलाप और अपराधमुक्त स्वच्छ और पवित्र वातावरण। शहर को ऐसी बेवकूफियों, घटिया हरकतों और ऐसी खबरों से सख्त नफरत है, जो बार-बार उसकी साख पर बट्टा लगाती हैं...।
   "पैसों की बारिश का झांसा, लडकियों से निर्वस्त्र पूजा" ...हां यही शीर्षक है उस पहली खबर का, जिसने शहर को गमगीन कर दिया। फिर से निराशा के गर्त में धकेल दिया। इस आधुनिक युग में कुछ जादू-टोना का जाल फैलाने वाले शैतानों ने १६ से १८ वर्ष की ल‹डकियों को ५ करो‹ड रुपये दिलाने का लालच देकर अपने जाल में फांस लिया। कम उम्र की लडकियों से मेलजोल ब‹ढाकर उन्हें शहर से दूर ले जाया जाता था। पैसों के लालच में वे भी सहर्ष तैयार हो जाती थीं। ल‹डकियों को धूर्त यह कहकर अपने मजबूत घेरे में ले लेते थे कि वे चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास महाकाली की अपार शक्ति है। यह तो अच्छा हुआ कि एक किशोरी की सजगता के कारण ५० करोड के कडकते नोटों की बारिश करने का लालच देनेवाले ल‹डकियों की अस्मत के लुटेरे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिये गये हैं। उनके मोबाइल में कई कम उम्र की ल‹डकियों की निर्वस्त्र तस्वीरें मिली हैं।
कोविड की दूसरी लहर आने की वजह से शहर में लॉकडाउन लगा था। पुलिस वाले ब‹डी सतर्कता के साथ अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। स‹डक पर सन्नाटा था। सभी अपने-अपने घरों में बंद थे। होटल और पान ठेले भी बंद हो चुके थे। ऐसे में जब गश्ती दल को एक घर के सामने से गुजरते समय कोई हलचल होते दिखी तो वह चौकन्ना हो गया। घर के बाहर महंगी-महंगी मोटर साइकलों तथा आलीशान कारों की कतारें लगी थीं। तब पुलिस ने वही किया जो उसे करना चाहिए था। घर के अंदर का नज़ारा देखकर पुलिस वाले दंग रह गये। वहां तो युवक-युवतियों का मेला लगा था। मौजमस्ती की जबरदस्त पार्टी चल रही थी। किसी के हाथ में शराब का गिलास तो किसी के हाथ में बीयर की बोतल थी। नशीले तंबाकू वाला हुक्का भी अपने जलवे दिखा रहा था। यानी हर नशे का भरपूर आनंद लिया जा रहा था। रात के दो बजे के बाद घर से बाहर नशे में मदमस्त होकर कानफाडू डीजे के शोर में झूमने, चूमने-चाटने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कर गुजरने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। यह कोई मामूली परिवारों की बिगडी हुई औलादें नहीं। किसी का बाप ब‹डा कारोबारी तो किसी का पुलिस अधिकारी है। इन्हीं के शागिर्दों ने शहर के आशादीप शासकीय महिला आश्रय गृह बनाम सुधार गृह में लडकियों तथा महिलाओं को निर्वस्त्र नाचने को मजबूर कर दिया। इस आश्रय स्थल बनाम सुधार गृह में दुनियाभर की उन सतायी नारियों को पनाह दी जाती है, जिनका दूर-दूर तक कोई अपना नहीं। कुंवारी माताएं, विधवाएं और पारिवारिक हिंसा की शिकार असहाय महिलाएं यहां आती तो हैं, शांति और सुरक्षा के साथ स्वावलंबी बनने के लिए, लेकिन उनका अक्सर चीरहरण होता रहता है। सरकारी आशादीप में रात के अंधेरे में लडकियों के शोषण की जानकारी अखबारों को भी होती है, न्यूज चैनलों के धुरंधर भी अनभिज्ञ नहीं होते, लेकिन उनके लिए अब ऐसी खबरें कोई अहमियत नहीं रखतीं। वे भी 'याराना' निभाने की परिपाटी के गुलाम हैं। जब लडकियों ने जान-समझ लिया कि मीडिया उनकी नहीं सुनने वाला तो उन्होंने आखिरी दांव के तौर पर कुछ तेजतर्रार युवा कार्यकर्ताओं को अपना दुखडा कह सुनाया तथा उन्हें निर्वस्त्र नचाने वाला वीडियो भी वायरल हो गया तो जहां-तहां हंगामा मच गया। मंत्री और राजनीति के सोये शेर जाग गये।
    खाकी वर्दी वालों की तरह कुछ डॉक्टर भी शैतान बनने के मौके तलाशते रहते हैं। उन्हें भी वासना की आंधी इस कदर बेकाबू तथा अंधा करती रहती है कि क्या कहें...। वह महिला कोरोना उपचार केंद्र में बडे भरोसे के साथ इलाज के लिए भर्ती हुई थी। वहां के एक डॉक्टर ने उसे अपने जाल में फांसने के लिए पहले तो उससे मीठी-मीठी बातें कीं। उसे जल्दी स्वस्थ हो जाने का विश्वास दिलाते हुए मोबाइल नंबर भी ले लिया। सडक छाप लोफरों की तरह आधी-आधी रात को उसके स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बहाने फोन पर फोन करने लगा। इसी दौरान उसने अपनी असली मंशा प्रकट करते हुए सीधे-सीधे देह सुख की मांग कर दी। बीमार महिला को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। अय्याश डॉक्टर ने चुप्पी को ‘हांङ्क मान लिया। रात के दो बजे धडधडाते हुए उसने अस्पताल पहुंचकर जबरदस्ती बीमार महिला को छत पर ले जाने की मर्दाना कसरत की। महिला विरोध करते हुए जोर-जोर से चीखी-चिल्लायी तो सोये हुए दूसरे मरीज भी जाग गए। पूरे अस्पताल में सनसनी फैल गई। रिश्तेदार भी अस्पताल पहुंच गए। सभी ने उसे जूतों, चप्पलों, मुक्कों, तमाचों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। अस्पताल के कर्मचारियों ने किसी तरह से बीच-बचाव कर उसे मुर्दा होने से बचाया।
    अपनों के गम से उबरना बहुत मुश्किल होता है। उस पर बेटी को खोने का गम! वो भी दहेज लोभी दामाद के हाथों! २६ फरवरी, २०२१ को साबरमती नदी में कूदकर जान देने वाली आयशा रोज़ शहर के सपनों में आती है। उसका बस यही सवाल होता है कि पुरुषों का लालच कब खत्म होगा! पत्नी को सामान नहीं इंसान मानने की भावना कब पूरी तरह से जागेगी? यह पहली आयशा नहीं, जिसने धनलोलुप पति के आतंक से तंग आकर मौत को गले लगाया हो। यह ऐसा शर्मनाक सिलसिला है, जो थम ही नहीं रहा है। अपनी बेटी को खोने के गम में डूबे पिता के इन शब्दों ने शहर को रुला दिया, "मेरी बेटी तो सदा-सदा के लिए चली गई। कम अज़ कम अब तो होश में आओ। दूसरी बेटियों को तो बचा लो। कब तक हिन्दू-मुसलमान करते हुए नफरत के बीज बोते रहोगे। हुक्मरानों देश की असली समस्याओं से नज़रे चुराना बंद करो।"
    ८ मार्च २०२१, विश्व महिला दिवस की सुबह जब शहरवासी जागे तो उन्होंने शहर के विभिन्न चौक-चौराहों पर लगे होर्डिंग्स पर यह संदेश लिखा पाया तो दंग रह गये, "लडकियो डरो नहीं, लडो। धन के लालची पतियों से शेरनी की तरह भिड जाओ। मौत के हकदार वे हैं, तुम नहीं। तुम तो इस सृष्टि की रचयिता हो। बेटी, आयशा यदि तुम बेरहम पति के गाल पर तमाचे जड उससे अलग होने का ऐलान करती और बहादुर नारी की तरह हर जंग के मैदान में डटी रहती तो कितना अच्छा होता। बिटिया, कोई भी परिवार अपनी बेटी को खोना नहीं चाहता। बेटियां भटकाव के लिए नहीं, सही राह के लिए हैं। मेरी हर बेटी से यही विनती है कि, कोई भी गलत कदम उठाने से पहले हजार बार सोचना...।" शहर में लगे इन पचासों होर्डिंग्स को किसने लगाया, अभी तक पता नहीं चल पाया है...।

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