Thursday, June 24, 2021

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    चित्र-1 : कल तक अपनी मेहनत की बदौलत उनका गुजर बसर चल रहा था। जालिम महामारी ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। खुद भूख से तड़प कर मर भी जाते, लेकिन अपने परिवार की भुखमरी और बदहाली को बर्दाश्त कर पाना उनसे नहीं हो पाया। उसके बाद तो उन्होंने ऐसी-ऐसी राहें चुन लीं जो अकल्पनीय थीं। उनकी इच्छा और छवि के अनुकूल ही नहीं थीं। देश के प्रख्यात शहर जयपुर की हस्ती थे बलवंत राय। सोना, चांदी और हीरा के व्यापार में खूब धन और नाम कमाया था इस मेहनतकश स्वाभिमानी इंसान ने। रहने के लिए भव्य कोठी थी, कहीं आने-जाने के लिए कारें थीं। हंसता-खेलता परिवार था। महामारी के दौरान कारोबार ठंडा पड़ गया। उन्होंने बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दूसरी लहर तो उन्हें कहीं ओर बहाकर ले जाने की ठान चुकी थी। कर्ज बढ़ने लगा। जिन्हें ऋण दे रखा था, वे कोरोना का रोना रोते हुए अकड़ कर कहने लगे कि जब धंधा ही नहीं है तो कर्ज कहां से चुकाएं। जब हाथ में पैसा होगा तभी देने की सोचेंगे। अभी तो हमें अपनी चिंता करनी है। अपने बाल-बच्चों को हर आफत से बचा कर रखना है। सरल, सहज स्वभाव के बलवंत खुद भी तकलीफ से गुजर रहे थे इसलिए अपनी पैसों की वसूली के लिए दबाव बनाने की बजाय चुपचाप अपने घर लौट आते, लेकिन यहां उनका सामना होता अपने उन बदमाश और क्रूर लेनदारों से जिनके लिए पैसा ही सबकुछ था। बलवंत लेनदारों के पैर पकड़ते, कुछ दिन सब्र करने की फरियाद करते, लेकिन शैतान धनपशु धमकाते हुए कहते, 'कोरोना-वोरोना जाए भाड़ में हमें तो अपनी रकम चाहिए। अभी नहीं दी तो तुम्हारी इज्जत के चिथड़े उड़ाकर रख देंगे। तुम्हारी खूबसूरत बीवी और दोनों बेटे सड़क पर भीख मांगते नजर आएंगे।' रोज-रोज की धमकियों और गंदी-गंदी गालियों की बौछार ने बलवंत का जीना हराम कर दिया। अपना मान-सम्मान चौराहे पर नीलाम होने की चिंता ने रातों की नींद छीन ली। कर्ज न चुका पाने के स्वनिर्मित अपराधा बोध ने दहशत के गर्त में धकेल दिया। कुछ शुभचिंतकों ने बलवंत को सलाह दी कि अपनी जमीन बेचकर कर्ज चुका दो, लेकिन वह नहीं माना। लेनदारों की गुंडागर्दी कम नहीं हुई। कुछ दिन और सब्र करने का हाथ जोड़कर किया गया निवेदन बेअसर रहा। साहूकार उस पर यकीन न करने की जैसे कसम ही खा चुके थे। एक दिन की सुबह तो उन्होंने बलवंत की पत्नी को बेहूदा कटाक्ष कर अपमानित कर दिया जो बलवंत बर्दाश्त नहीं कर पाया। शाम को उसने अपनी पत्नी और दोनों बेटो को फांसी के फंदे पर लटकाने के पश्चात खुदकुशी कर ली। पूरे परिवार की आत्महत्या की खबर जिसने भी सुनी और देखी उसकी तो रूह ही कांप गयी। विशाल कोठी पूरी तरह से खाली हो चुकी थी। लोगों ने कई तरह की चर्चाओं के पिटारे खोल दिये। बलवंत को अपनी इज्जत की यदि इतनी ही चिंता थी तो उसने अपनी कोठी क्यों नहीं बेच दी? करोड़ों की इस कोठी को बेचकर तो वह आसानी से सभी के कर्ज से मुक्त हो सकता था, लेकिन उसकी तो यही जिद थी कि यह कोठी तो उसके बच्चों की अमानत है। जब तक इंसान जिन्दा है तभी तक धन और जमीन-जायदाद भी मायने रखती है। जब इंसान ही नहीं रहा तो करोड़ों की सम्पत्ति मिट्टी ही तो है...।
    चित्र-2 : नारंगी नगर नागपुर के एक रिक्शाचालक ने जब देखा कि कोई साथ देने को तैयार नहीं। किसी से उम्मीद करना भी व्यर्थ है तो उसने लॉकडाउन में ही रिक्शा निकाला और सवारियों की तलाश में यहां-वहां चक्कर लगाने लगा। लॉकडाउन के कारण सभी अपने-अपने घरों में कैद थे। नाममात्र के लोग ही सड़कों पर नज़र आ रहे थे। भटकते-भटकते सुबह से शाम हो गई। एक भी सवारी नहीं मिली। अब तो बस भूख से तड़पते बच्चों का चेहरा ही उसकी आंखों के सामने आ रहा था। वह खुद को दोषी मानते हुए बेहद शर्मसार था। घर का चूल्हा ही न जल पाए तो उसका होना न होना एक बराबर है। चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन आज ऐसा नहीं होने देना है। उसने तुरंत अपने रिक्शे को सड़क के किनारे खड़ा किया और भीख मांगनी शुरू कर दी। पैंसठ वर्षीय पिता के हाथों कुछ ही घण्टों में इतने रुपये तो आ ही गये जिससे परिवार के रात को भूखा नहीं सोना पड़ा। अब तो यह रोज का काम हो गया। जब भी सवारी नहीं मिलती तो रिक्शा को कहीं सुरक्षित स्थान पर खड़ा करने के पश्चात वह हाथ पसारकर खड़ा हो जाता। दो-चार घण्टे में पच्चीस-पचास रुपये मिल ही जाते। कुछ लोग फटकार लगाने से भी नहीं चूकते। उन्हें लगता कि बुड्ढा शराब का शौकीन है इसलिए भीख मांग रहा है। दाल-चावल खरीद कर जब बुजुर्ग घर लौटता तो उसे खुद के भिखारी बनने का सच कचोटता रहता। एक जमाना था जब शहर में साइकिल रिक्शा दौड़ा कर ठीक-ठाक कमायी हो जाती थी। छह-सात लोगों के परिवार को दाल-रोटी का संकट नहीं झेलना पड़ता था। पिछले तीन-चार वर्षों से ई-रिक्शा का चलन बढ़ने से सवारियां भी साइकिलरिक्शा पर बैठना कम पसंद करती हैं। हर कोई जल्द से जल्द अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहता है। एक तो पैसंठ पार की उम्र और उस पर दिव्यांग होने के कारण रिक्शा चलाना उसके बस की बात नहीं रही फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी थी...। यह किसी एक बलवंत और रिक्शेवाले की दास्तान नहीं है। कोरोना ने तो लाखों भारतीयों को तबाह करके रख दिया है...।
    चित्र-3 : अमीरों ने कोरोना के विकराल वक्त में दिल खोलकर सहायता कर हाथ बढ़ाया, लेकिन सभी तो एक जैसे नहीं हैं। जब लोगों की धड़ाधड़ मौतें हो रहीं थीं तब कई रईस विदेशों की सैर पर निकल गये। कितनों ने अपना वो देश ही छोड़ दिया जहां पर वे पनपे थे। करोड़पति-अरबपति बने थे, लेकिन अब उन्हें भारत नर्क लगने लगा था। उन्होंने अपना वो अतीत भुला दिया जब वे कुछ भी नहीं थे। किसी ने कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की राह पकड़ी तो किसी ने आयरलैंड, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया, माल्टा, साइप्रस, तुर्की जैसों देशों में पनाह ले ली। रईसों के देश को छोड़ने की शुरुआत तो कोरोना की पहली लहर से ही हो गई थी। दूसरी लहर में तो विदेशों में जाकर बसने के इच्छुक लोग वीजा और इमिग्रेशन सर्विस देने वाली कंपनियों के यहां पूछताछ के लिए काफी बड़ी संख्या में पहुंचने लगे। ऐसे धनवानों के दिल दिमाग में इस बात ने घर कर लिया कि जिस देश में हमने उद्योग धंधे खड़े किये, हजारों लोगों को नौकरियां उपलब्ध करवायीं, सरकार को मोटा टैक्स चुकाया, वहां की सरकार यदि हिफाजत नहीं कर पा रही है, आम और खास लोगों को किफायती और जवाबदेह हेल्थकेयर सिस्टम उपलब्ध नहीं करवाया जा रहा है, वहां पर रहने का क्या फायदा! किसी लेखक ने गलत तो नहीं कहा कि इंसान जब ताकतवर हो जाता है तो उसे सिर्फ अपनी ही सूझती है। उसके सामने लाशें भी बिछी हों तो वह उन्हें रौंदते हुए आगे निकल जाता हैै...।

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